हक़ीक़त के आईने में मोदी का राहुल पर कटाक्ष

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निर्मल रानी**,,

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन राजग के सबसे प्रमुख घटक जनता दल युनाईटेड सहित भारतीय जनता पार्टी के एक बड़े धड़े के विरोध के बावजूद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के लिए अपना एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रखा है। स्वयं को भाजपा का मज़बूत नेता व प्रधानमंत्री का सशक्त दावेदार जताने के लिए मोदी ने निकट भविष्य में गुजरात में होने वाले चुनाव प्रचार अभियान को अपनी रणनीति का हिस्सा बनाया है। नरेंद्र मोदी ने गुजरात विधानसभा चुनाव का प्रचार अभियान शुरु कर दिया है तथा वे एक आधुनिक सुविधाओं से युक्त रथ पर सवार होकर गुजरात के राज्यस्तरीय भ्रमण पर निकल पड़े हैं। इस दौरान वे जिन जनसभाओं को संबोधित कर रहे हैं वहां उनके भाषणों के अंदाज़ में गंभीरता कम व मसखरापन एवं कटाक्ष ज़्यादा देखने को मिल रहा है। मज़ाकिय़ा व मसखरेपन के लहजे में अपनी बातें कहकर जनता को हंसाने व लुभाने का उन्होंने एक सहज व सरल तरीक़ा ढूंढ रखा है।

अपने इसी क्रम में उन्होंने पिछले दिनों राहुल गांधी का नाम लेकर सोनिया गांधी पर निशाना साधा और कह दिया कि राहुल तो अंतर्राष्ट्रीय नेता हैं क्योंकि वे तो भारत के अलावा इटली से भी चुनाव लड़ सकते हैं। परंतु मैं तो केवल राष्ट्रीय नेता हूं। इस प्रकार की ग़ैर संजीदा बातें कहकर हालांकि नरेंद्र मोदी ने वहां मौजूद लोगों के ठहाके तो बटोर लिए। परंतु उनकी इस बात को सच्चाई के तराज़ू पर तौलने में हर्ज ही क्या है। राहुल गांधी के पास राजनैतिक दर्शन है या नहीं, वे देश को मज़बूत,सक्षम व कुशल नेतृत्व दे सकते हैं या नहीं तथा उन्होंने कांग्रेस पार्टी को मज़बूत किया है या कमज़ोर इस बहस में पडऩे के बजाए नरेंद्र मोदी के वक्तव्य के मद्देनज़र कम से कम उनकी राहुल गांधी से तुलना तो की जानी चाहिए। उदाहरण के तौर पर कांग्रेस पार्टी एकमत होकर राहुल गांधी से नेतृत्व की आशा रखती है। पार्टी में राहुल के विरुद्ध कभी कोई स्वर बुलंद नहीं हुआ। यदि राहुल गांधी को पार्टी के संसदीय दल के नेता के रूप में आज प्रस्तावित किया जाए तो ऐसा नहीं लगता कि पार्टी में कोई सांसद उनके नाम का विरोध करेगा। क्या मोदी को लेकर भारतीय जनता पार्टी में भी ऐसा है? क्या नरेंद्र मोदी भाजपा के सर्वमान्य नेता हैं?भाजपा में मोदी के नाम को लेकर समय-समय पर मचने वाली उथल-पुथल कम से कम पार्टी में मोदी के सर्वमान्य नेता होने का संदेश नहीं देती। परंतु इसके जवाब में भाजपाई यह कहकर अपना हाथ ऊपर रखने की कोशिश करते हैं कि भाजपा एक लोकतांत्रिक पार्टी है जबकि कांग्रेस परिवारवाद की शिकार है।
अब आईए दिग्विजय सिंह की उस बात पर जिसमें उन्होंने नरेंद्र मोदी को गुजरात तक सीमित रहने वाला क्षेत्रीय नेता बताया था तथा राहुल गांधी को राष्ट्रीय नेता करार दिया था। और इसी के जवाब में तिलमिलाकर नरेंद्र मोदी ने राहुल गांधी को राष्ट्रीय के बजाए अंतर्राष्ट्रीय नेता कह कर उनका मज़ाक़ उड़ाने का प्रयास किया। और उन्हें अंतर्राष्ट्रीय बताने में मोदी को हमेशा की तरह इटली ही याद आया। सर्वप्रथम तो नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय नेता होने की हक़ीक़त को ही देखा जाए। देश के दो सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश व बिहार गत् लोकसभा व विधानसभा चुनावों के दौरान नरेंद्र मोदी के दौरे से अछूते रहे। नरेंद्र मोदी का उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार में न जाने का कारण यह था कि वे संजय जोशी को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाए जाने से नाराज़ थे। वह नहीं चाहते थे कि उनके प्रचार से पार्टी राज्य में अच्छा प्रदर्शन करे और उसका श्रेय संजय जोशी को मिले। यह है एक राष्ट्रीय नेता की सोच व हैसियत का प्रभाव जो अपनी ही पार्टी के नेता के विषय में ऐसे विचार रखता है। इस पर तुर्रा यह कि वह प्रधानमंत्री पद के दावेदार भी हैं। उधर बिहार में भी पिछले संसदीय व विधानसभा चुनावों के दौरान भाजपा के सहयोगी नितीश कुमार ने नरेंद्र मोदी के बिहार में चुनाव प्रचार हेतु प्रवेश करने पर रोक लगा दी थी। और नरेंद्र मोदी नितीश कुमार द्वारा लगाए गए इस प्रतिबंध का पालन करते हुए बिहार में चुनाव प्रचार करने से महरूम रह गए थे। क्या यही है एक राष्ट्रीय नेता की पहचान जोकि अपने ही देश के दो सबसे बड़े राज्यों में किन्हीं भी कारणों से चुनाव प्रचार हेतु दाखिल भी न हो सके? अभी कुछ समय पूर्व मुंबई में भाजपा कार्यकारिणी की बैठक में भी नरेंद्र मोदी की शिरकत पर सवाल खड़े हो रहे थे। आखिरकार मोदी ने संजय जोशी को कार्यकारिणी से हटाए जाने के बाद ही कार्यकारिणी की बैठक में शरीक होने का निर्णय लिया। क्या राहुल गांधी को भी कभी कांग्रेसशासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों,मीडिया अथवा अपनी पार्टी के नेताओं से कभी इस प्रकार दो-दो हाथ करते हुए देखा गया है?

निश्चित रूप से आज कांग्रेस की साख दांव पर लगी हुई है। आए दिन उजागर होने वाले नए से नए और बड़े से बड़े घोटाले कांग्रेस को घोर संकट में डाल रहे हैं। ऐसे में यदि कांग्रेस को भविष्य में नुक़सान भी उठाना पड़ता है तो इस नुक़सान व नाकामी की जि़म्मेदार स्वयं कांग्रेस पार्टी व उसकी नीतियां ही होंगी। मौजूदा हालात में किसी भी विपक्षी दल को कांग्रेस को कमज़ोर करने या उसके विकल्प के रूप में स्वयं को स्थापित करने या सामने लाने का कोई श्रेय नहीं जाता। इन सबके बावजूद सोनिया गांधी जिस समय भी चाहें उस समय राहुल गांधी को देश का प्रधानमंत्री बनवाकर भारत के प्रधानमंत्रियों की सूची में उनका नाम भी शामिल करवा सकती हैं। परंतु वे इस काम के लिए उतनी उतावली नहीं दिखाई दे रही हैं जितने कि नरेंद्र मोदी या उनके समर्थक नज़र आ रहे हैं। नरेंद्र मोदी के समर्थक तो उनकी तुलना शेर(जानवर) से करते हैं। परंतु नरेंद्र मोदी तो अपने भाषणों में शेर की तरह दहाड़ते कम हैं,मसखरापन व कटाक्ष के तीर ज़्यादा छोड़ते हैं। नरेंद्र मोदी ने गुजरात में अपने शासनकाल के दौरान समुदाय विशेष के साथ जो बर्ताव किया है उसके चलते पूरी की पूरी भारतीय जनता पार्टी अलपसंख्यक समाज की नज़रों से गिर चुकी है। हालांकि ऐसी स्थिति अटल बिहारी वाजपेयी की राजैतिक सक्रियता के समय नहीं थी। परंतु मोदी ने अपने सांप्रदायिक चेहरे की छाप भाजपा पर छोडक़र केवल कट्टर हिंदुत्ववादी राजनीति करने का जोै फ़ैसला लिया उससे निश्चित रूप से भाजपा को काफ़ी नुक़सान उठाना पड़ रहा है। जबकि राहुल गांधी के साथ ऐसा कुछ भी नहीं है। देश का कोई भी समुदाय,वर्ग, धर्म या राज्य विशेष का कोई भी व्यक्ति राहुल गांधी से न तो मोदी की तरह नफ़ रत करता है न ही राहुल के किसी फै़सले ने कभी कांग्रेस पार्टी को कोई क्षति पहुंचाई है।

अब ज़रा इन दोनों नेताओं की कुछ अंतर्राष्ट्रीय तुलना भी कर ली जाए। राहुल गांधी जनवरी 2009 में अपने एक सहपाठी ब्रिटिश विदेशमंत्री डेविड मिलिबैंड को लेकर अचानक अमेठी जा पहंचे थे। उन्होंने उस ब्रिटिश मंत्री के साथ ग़रीबों व दलितों के घरों में चारपाई पर बैठकर चाय पी और ब्रिटिश मंत्री को राहुल ने अपने संबंधों के आधार पर भारत की ज़मीनी हक़ीक़त व इसके बावजूद देश की प्रतिबद्धता से वाकिफ़ कराने का प्रयास किया। ज़ाहिर है यह राहुल के अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का ही परिणाम था कि उनके द्वारा अर्जित किए गए ‘अंतर्राष्ट्रीय स्तर’ के व्यक्तिगत् रिश्तों के आधार पर ब्रिटिश मंत्री अमेठी के गांवों की गलियों में फिरने के लिए आ गया। जबकि हमारे ‘सिंह’ समझे जाने वाले नरेंद्र मोदी जी तो गुजरात का मुख्यमंत्री होने के बावजूद अपने अमेरिकी समर्थकों को केवल वीडियो कानफ्रेंसिंग के माध्यम से संबोधित करने के लिए बाध्य हैं। क्योंकि अमेरिका उन्हें अपने यहां प्रवेश करने हेतु वीज़ा नहीं देता। वैसे भी नरेंद्र मोदी की 2002 में गोधरा कांड के बाद हुए गुजरात दंगों के दौरान उनकी संदिग्ध भूमिका के चलते राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वयं उनकी, उनके चलते गांधी के राज्य गुजरात की जो छवि बनी है वह निहायत अफ़सोसनाक है। हालांकि अब वे आधुनिक प्रचार माध्यमों के द्वारा अपनी खलनायक की छवि को सुधारने का प्रयास ज़रूर कर रहे हैं। परंतु ऐसा लगता है कि शायद अब काफ़ी देर हो चुकी है।
राहुल गांधी ने अपनी छवि को संवारने,सुधारने,सजाने या उसे देश व दुनिया के समक्ष सुसज्जित तरीक़े से पेश करने हेतु किसी अंतर्राष्ट्रीय छवि सुधार संगठन या एजेंसी का सहारा क़तई नहीं लिया जबकि नरेंद्र मोदी गत् कई वर्षों से ‘वाईब्रेंट गुजरात’ के नाम पर यही काम करते आ रहे हैं। हो सकता है कि वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक होने के नाते संघ के सपनों के देश के भावी प्रधानमंत्री क्यों न हों। परंतु ऐसा नहीं लगता कि देश के राजनैतिक समीकरण खासतौर पर भारतीय जनता पार्टी में नरेंद्र मोदी के नाम पर प्रधानमंत्री के पद को लेकर होने वाली उठापटक उन्हें प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचने देगी। परंतु मोदी का सोनिया गांधी व राहुल गांधी पर बार-बार कटाक्ष रूपी प्रहार करना यही दर्शाता है कि वे सीधे तौर पर सोनिया व राहुल गांधी के मु$काबले के नेता बनने की कोशिश में हैं। परंतु दरअसल उनके द्वारा सोनिया या राहुल पर किए जाने वाले कटाक्ष हक़ीक़त के आईने में कटाक्ष नहीं बल्कि हक़ीक़त प्रतीत होते हैं।

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*निर्मल रानी

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं.

Nirmal Rani (Writer)
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*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely her own and do not necessarily reflect the views of INVC

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