स्वामी विवेकानंद जी का शीकागो गर्जना

0
29
green_acre-1894-august-3{संजय कुमार आजाद**}
 ‘‘ मैं 1893 की शिकागो विश्व धर्म महासभा में उपस्थित थी, जब वह नवयुवक उठा एवं उसने कहा, ‘अमेरिकावासी बहनों तथा भाइयों’ सात हजार लोग इसलिए सम्मान में उठ खड़े हुए जिसके विषय में वे अनजान थे। जब वह समाप्त हुआ तब मैंने देखा, अनेकों युवतियां आप से कहा, ‘अच्छा मेरे बच्चे, यदि इस आक्रमण को तुम झेल गये तो तुम सचमुच ही भगवान हो।‘‘ उपरोक्त भावनापूर्ण वचन है श्रीमती एस.के. ब्लॉजेट जो लॉस एंजिलिस की थी और 11 सितम्बर 1893 के उस विश्व परिवर्तन कारी घटना की गवाह रही थी। विश्व धर्म महासभा में विश्व के सभी मत-पंथों और समुदायों के बीच भारत माता के चिर युवा सपूत की सिंह गर्जना ने पराधीन भारत का आध्यात्मिक शक्ति ने विश्व को अपने कदमों में गिराकर ‘विश्व गुरु’ की सपना को साकार किया। भारतीय सभ्यता, संस्कृति के प्रतिमूर्ति ने गर्व से उद्घोष करते हुए अपनी भावनापूर्ण अभिव्यक्ति व्यक्त करते हुए कहा-‘मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूं जिसने संसार को सहिष्णुता तथा स्वीकृति दोनों की ही शिक्षा दी है। हमलोग केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्म व सत्य को मानते हैं। मुझे आप से कहने में गर्व है कि मैं ऐसे धर्म का अनुयायी हूं जिसकी पवित्र भाषा संस्कृत में ष्मगबसनेपवदष् शब्द अवनुवाद्य है।विष्व के अनेक ऐसे देश के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। अपने सम्बोधन में रामकृष्ण परमहंस के आत्मा का प्रतिमूर्ति स्वामी विवेकानन्द ने लोगों के दिलों पर जो छाप छोड़ी वह अद्भुत रहा। लोगों ने अपने नायक को पहचान लिया तथा अपने हृदय-सिंहासन पर आरूढ़ कर लिया था, उसके बाद से वे धर्म सभा के सितारे बन गए थे। एक परिव्राजक हिन्दू ने एकबार फिर विश्व को भारतीय सभ्यता, संस्कृति को जानने के लिए उत्साहित किया।
swami vivekanandaइस धर्म महासभा के बाद अपने अनुभवों को व्यक्त करते हुए परिव्राजक हिन्दू युवा संन्यासी ने लिखा था-‘मेरा हृदय जोरों से धड़क रहा था तथा जीभ तो लगभग सुख ही गयी थी।’ किन्तु जब विश्व धर्म महासभा के विशाल जनसमुदाय को सम्बोधित किया तो लोकप्रियता की सारी सीमारेखाओं से बड़ी रेखा खींच डाला। जबकि इस विश्व धर्म महासभा का आयोजन विश्व में ईसाई अभिमान को प्रतिस्थापित कराने का सुनियोजित चाल था। आयोजकों को विश्वास था कि इस विश्व धर्म महासभा के बाद विश्व में ईसाई मत का डंका बजेगा। इस मत का गौरवपूर्वक एवं निरपवाद रूप से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध होगा। इस परिकल्पना को साकार किया था इन्टरनेशल लॉ एंड आर्डर लीग के अध्यक्ष एवं पाश्चात्य देशों के संवैधानिक एवं आर्थिक सुधारों के प्रणेता एवं विख्यात वकील श्री चार्ल्स कैरल बॉनी थे। जगत में ईसाई मत की श्रेष्ठता के आलोक में विश्व धर्म महासभा का होना उस वक्त अद्भुत एवं अद्वितीय था। इसमें लेश मात्र भी शंका नहीं है। एक को छोड़कर बाकी मतों में अच्छाई नहीं है, उसी भावना का संचार यह विश्व धर्म महासभा के आयोजकों का उद्देश्य था, जिसे स्वामी जी ने पलभर में धाराशायी कर दिया था। स्वामी जी ने अपने पत्र में भी यह उल्लेख किया है कि ‘ईसाई धर्म का अन्य सभी धार्मिक विश्वासों के ऊपर वर्चस्व साबित करने हेतु की विश्व धर्म महासभा का संगठन किया गया था…..।’ एक साक्षात्कार में भी स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-‘मुझे ऐसा प्रतित होता है कि यह विश्व धर्म महासभा का संगठन जगत के समक्ष गैर-ईसाईयों का मजाक उड़ाने हेतु हुआ है।’ भले ही स्वामी जी के उपरोक्त कथन न्यायोचित न हो, किन्तु हकीकत यही है कि सिर्फ मैं ही श्रेष्ठ हूं’ की अहंकारी भावना से आज भी पश्चिमी जगत ग्रस्त है। विश्वव्यापी भ्रातृत्व भावना का संचार करने वाला परिव्राजक युवा हिन्दू स्वामी विवेकानन्द ने वसुधैव कुटुम्बकम् का मंत्र उपस्थित जन समुदाय को जब दिया, ठीक वैसी स्थिति में उस वक्त वहां के उपस्थित विद्वत जन समुदाय को हुआ होगा, जब जेठ की तपती धुप से त्रस्त धरती पर वर्षा की बूंदों का प्रहार होता है। विश्व में संन्यास की सबसे प्राचीन हिन्दू राष्ट्र के प्रतिनिधि के रूप में स्वामी विवेकानन्द ने जो ध्येय, विद्वान श्रोताओं को दिया, वह अन्य मतों में दुर्लभ और अविश्वसनीय है। हिन्दू संस्कार और संस्कृति का वाहक यह युवा परिव्राजक स्वामी विवेकानन्द ने अपने सम्बोधन के प्रारंभिक पांच सरल शब्दों से ही पांच तत्वों क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा से निर्मित इस नश्वर शरीर द्वारा उपस्थित पंचों सहित विद्वत जन समूह को हिन्दुत्व रूपी भगवा ध्वज के तले लाकर मानवता का सवोत्कृष्ट पाठ पढ़ाया। भले ही वर्तमान यूपीए सरकार के लिए हिन्दू अछूत शब्द और भगवा रंग आतंकवाद का रूप हो, किंतु आधुनिक विश्व को भी आज हिन्दुत्व और इसी भगवा रंग के ध्वज के तले आत्म ज्ञान, आत्म सम्मान और आत्म गौरव की अनुभूति होती है, जो प्रेम, दया, करुणा, भाईचारा और रिश्ते-नातों पर आधारित है।
विश्व के प्राचीनतम धर्मों का सिरमौर जिसकी आस्था ही हिन्दुत्व है। यदि वर्तमान भारत से ‘हिन्दूत्व‘ हटा दिया जाए तो यह राष्ट्र लाश की तरह होगी, जहां पाश्विकता, असहिष्णुता, बर्बरता, भय, भूख, भ्रष्टाचार, आतंक …..जैसे प्रवृतियों का वर्चस्व होगा। हिन्दुत्व भारत की आत्मा है, जिसे प्राचीन काल में जब विश्व पढ़ना, लिखना तो क्या रहने की कला से भी परिचित नहीं था, तब के ऋषि-मुनियों ने भी इसी हिन्दुत्व को भारत ही नही विष्व मंगल कामना के विकास का मूल मंत्र माना था। जिसे गुलाम शासन व्यवस्था में जकड़ा भारत को आध्यात्मिक रूप से ‘विश्व गुरु’ के पद पर 11 सितम्बर 1893 को शिकागो विश्व धर्म महा सम्मेलन में प्रतिस्थापित कराने वाले स्वामी विवेकानन्द ने भी उसी हिन्दुत्व का डंका बजाया। उन्होंने कहा, ‘गर्व से कहो हम हिन्दु हैं।’ जिसे उन्नीसवीं सदी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने भी जोर देकर कहा कि पहचानों हम कौन हैं? गर्व से स्वामी विवेकानन्द के बात को कि ‘हम हिन्दु हैं’ उन्होंने कहा। भले ही आज ‘हिन्दू’ शब्द भारतीय राजनीति में अछूत शब्द है, किंतु स्मरण रहे इतिहास साक्षी है जब-जब इस देश के निवासियों ने अपने को हिन्दुत्व से दूर किया वह क्षेत्र भारत से अलग होकर बर्बर एवं पाश्विक देश के रूप में ही विश्व के मानचित्र पर उभरा है। आज भी स्वामीजी के उस वचन को इस देश को स्मरण रखना चाहिए जो 11 सितम्बर को उन्होंने शिकागो विश्व धर्म महासभा में दिया था। राजनीति में सत्ता के लोभ में जिस तरह से हिन्दु संस्कार और संस्कृति का मटियामेट किया जा रहा है, हिन्दुत्व और प्रेरणादायी भगवा ध्वज को आतंकवाद से जोड़ा जा रहा है। वह राष्ट्र के साथ विश्वासघात है। विश्व के महानतम परिव्राजक युवा संन्यासी स्वामी विवेकानन्द जी का यह वर्ष 150वीं साल गिरह है। वैसे में स्वामी जी के वचन, उनके स्वप्न, भारत के सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक स्थिति के प्रति उनका वैश्विक विश्वास एवं उनकी जो परिकल्पना है उसके प्रति हम सब मिलकर आगे बढ़े तो यह देश पुनः विश्व गुरु बनेगा, इसमें लेश मात्र भी संशय नहीं है। इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर उन्होंने ‘रामकृष्ण-मिशन’ की स्थापना की थी ताकि भारत के संस्कृति, संस्कार व शिक्षा का प्रचार-प्रसार हो। हिन्दू और हिन्दुत्व की भावना का जन-जन में संचार हो, लोगों में गर्व कि अनुभूति हो कि ‘हम हिन्दु हैं।’ किन्तु ‘रामकृष्ण-मिशन’ स्वामी जी के सपनों के भारत से कोसों दूर होता दिख रहा है। स्वामी विवेकानन्द ने जिस ‘संस्कृत’ भाषा को पवित्र एवं सुदृढ़ बताया, आज उसी देशभाषा संस्कृत को विदेशों में तो नहीं बल्कि इसी भारत भूमि में गला घोंटा जा रहा है। आज संस्कृत जिस हाशिए पर खड़ी है, उसके लिए मार्क्स-मुल्ला और मैकाले पुत्रों से ज्यादा ‘हिन्दु पुत्र’ ही दोषी है। संस्कृत आज विदेशों में शोहरत हासिल कर रही है, किंतु अपनी जन्मभूमि पर ही उपेक्षित है। उनकी 150वीं वर्षगांठ पर भी यदि संस्कृत को हम अपना सके तो स्वामी जी के प्रति हमारी सच्ची सर्मपण है।
******
sanjay-kumar-azad*संजय कुमार आजाद
पता : शीतल अपार्टमेंट,
निवारणपुर
रांची 834002
मो- 09431162589
** लेखक- संजय कुमार आजाद, प्रदेश प्रमुख विश्व संवाद केन्द्र झारखंड एवं बिरसा हुंकार हिन्दी पाक्षिक के संपादक हैं।
**लेखक स्वतंत्र पत्रकार है *लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं और आई.एन.वी.सी का इससे सहमत होना आवश्यक नहीं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here