स्नेहलता बोस की पाँच कविताएँ

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 स्नेहलता बोस की पाँच कविताएँ

 डॉ शेफालिका वर्मा की टिप्पणी : चलंत पद्यों और गीतों की अमावसी शस्य गहन उद्बोधन तले दब रही गंभीर काव्यों की मान्यता कभी -कभी नवल प्रश्नों  का सृजन करते हैं . उस परिस्थिति में हमें पंत , गुप्त , अज्ञेय ,मुक्तिबोध , बच्चन , निराला , दिनकर , आरसी से लेकर महादेवी तक की यादें सताने लगती हैं . उस परिपेक्ष्य मे हम वर्तमान में कालजयी कृतियों को ढूंढने लगे है .सार्थक जीवन जीने वालों और सकारात्मक सोच रखने वालों की अभी भी कमी नहीं है . अतः साहित्य जीवंत है और आशा है की  पुंज सदैव ज्योतिर्मय ही रहेगी  . इन्ही सरल साहित्यिक कृतियों के अवलोकन की एक कड़ी में श्रीमती स्नेहलता बोस की चंद कवितायें पढ़कर अचंभित रह गयीं .एक तरफ ये अपनी कविताओं में एकादश में अमावस की खोज कर रही हैं तो दूसरी तरफ अहिल्या और सीता जैसी मानवधर्मी माताओं की व्यथा से नारी विमर्श की गाथा का अविरल बखान कर रही हैं . प्रकृति की मूल वसुंधरा को काव्य में तो माटी जैसे प्रांजल शब्दों की उपाधि से आपने विभूषित किया पर इसके  छन्दो मे अनंत गुणों का स्नेहिल उच्छ्वास है. एक अकथ्य संत्रास में भी मजबूत स्तम्भ और आयाम है . भौतिकवादी युग के असंतोष तले बोझिल हुई बुढ़ापे की पीड़ा में एक अद्भुत मर्म है. जो  इस दौर से गुजर रहे है ..दर्द की अनुभूति वही बता सकते है. आपकी कविताओं को पढ़ने के बाद मेरी लेखनी भारी सा लगने लगा है , कविताओं के भाव को समझने की शक्ति तो हैं, पर उद्बोधन आपके  गंभीर तात्विक विवेचन के आवरण से ढँक सा गया है.
अंत में यही कह सकती हूँ की आप वर्तमान की भविष्य तो नहीं बन सकती क्योकि आप अब जीवन के उत्तरार्ध में प्रवेश कर रही हैं लेकिन आपके काव्य सब दिन भविष्य ही बने रहेंगें .इसके छंद -चंद के भाव पढ़ने वालों को उसकी  आत्मा से प्रत्यक्ष साक्षात्कार करवाता रहेगा यही मेरी आशा  विश्वास है ( डॉ शेफालिका वर्मा  साहित्यं अकादेमी पुरस्कार से पुरस्कृत हिन्दी और मैथिली  की  चर्चित साहित्यकार )

 स्नेहलता बोस की पाँच कविताएँ

1. एकादश

अब तो रात गई,
ख़तम हुआ सब खेल|
कैसे कोई दीया जले,
बिन बाती बिन तेल||

तन जैसे खाली कुआं,
गूँज गई आवाज़|
बैठ जगत पे रोता मन,
बिसर गए सब काज||

दोनों आँखें रीत गई,
पथराई सब देह|
टूटा मन दरक गया,
बिरथा बरसे मेह||

संझा सूरज खो गया,
भई अमावस रात|
रात सजावट ले आई,
तारों की सौगात ||

तपती देह दोपहर जेठ – सी ,
नैना सावन मास |
फागुन – सा बौराया मन,
पतझर का आवास ||

पिय को प्यारी देह री,
सासरे को काम |
माटी – सा मिला हुआ,
चांदनी – सा चाम ||

दुल्हन बिटिया बिदा हुई,
भीगी आँख की कोर |
फैल गया सन्नाटा – सा,
भीड़ में चारों ओर ||

अम्मा का आँगन छूटा,
और बाबूल की बांह |
बिसरी बिटिया ढूंढती,
तनिक नेह की छाँह ||

मन ही मन कौंध गई,
बीती रात की बात |
तन ऐसे उजाला भया,
ज्यों फूटा परभात ||

बरसी बरखा रात भर,
कोई ओर न छोर |
बिजुरी – सा तन तड़पा,
मन को मिला ना ठौर ||

धिया पराई हो गई,
ब्याह ले गए मीत |
कुछ भी अपना ना रहा,
कैसी कुल की रीत ||

२. आदत

सच कहना मुश्किल होता है,
सच कहने की आदत डालो |
चाहे जितने सपने देखो,
सच करने की आदत डालो ||

एक बार मिलता है जीवन,
मिलती है गिनती की साँसें,
पूरी कर ले सारी इच्छाएँ,
पलटे न नियति के पासे,
रहो कभी ना बैठे ठाले,
कुछ करने की आदत डालो ||

तन की ताकत से भी बढ़कर ,
ऊंचा होता है मन का बल,
मन में निर्मल प्रेम छुपा है,
निश्छल प्रेम बना लो संबंल,
‘’मैं’’ के भीतर अहं भरा है,
‘’हम’’ कहने की आदत डालो ||

राह कंटीली हो सकती है,
छा सकता है गहन अँधेरा
मधुबन सा महका लो मन को,
मिट जाएगा दु:ख का घेरा,
माटी का दीपक –सा बनकर,
जल जाने की आदत डालो ||

मन सच्ची लगन हो यदि,
मरू में फूल खिला सकते हैं,
चाँद सितारे तोड़ – तोड़ कर,
आसमान से ला सकते हैं |
मातृभूमि के लिए कभी भी,
मर मिटने की आदत डालो ||

3. अहिल्या और सिया

उसके नयन निहारते रहे,
घोर वनप्रांत की ओर,
मुड़ती पगडंडी की तरफ,
उस छोर तक,
जिसके आगे देखना संभव नहीं |

कैसे पुकारती प्रिय को?
अवरूद्ध कंठ कांपता ह्रदय
मर्मान्तक वेदना का
जड़ता भरा अहसास |

अभिशापित मौन पाषाण प्रतिमा – सी जड़वत !
प्रवंचिता, अपमान – दग्धा, तिरस्कृता अहिल्या |
निर्वासिता, उपेक्षिता, शापिता, विवश मुनिपत्नी
अपने ही विचारों की दीवारों से आवृत

आजन्म कारावास भोगती –सी
श्रीराम के चरण धूली की
प्रतीक्षा में लीन
(कि राम आएं जो जी जाऊँ )
कितनी बड़ी विडम्बना
उस राम की प्रतीक्षा !
जिसने अहिल्या उद्धार के पश्चात
सिया का वरण किया,
रावण ने जिसका हरण किया
शत्रुवध पश्चात राम के कहने पर
सिया ने अग्नि प्रवेश किया !!

चहुँ ओर रामराज्य का डंका बजा,
(रजक) के कहने पर पावन प्रिया को ताजा |
लोक मर्यादा रक्षक राम ने,
मर्यादा पुरूषोत्तम का पद पाया |
वनवास दे दिया कठोर अग्नि परीक्षा में
खरा उतरने पर भी,
अंत:सत्वा (गर्भिणी) सिया को

उसी राम ने शाप मुक्त किया था
प्रवंचिता पाषाण प्रतिमा अहिल्या को,

आज भी प्रेतात्मा – सी भटकती है
यत्र – तत्र – सर्वत्र
निष्कलंक किन्तु चरित्र हीना
सिया और अहिल्या
किसी राम की प्रतीक्षा में |

एक प्रश्न – तनिक इतिहास बदल जाता !
पहले सिया वरण होता
फिर राम का अहिल्या को
स्पर्श चरण होता
तो क्या राम का स्पर्श प्रभावी हो पाता ?
क्या अहिल्या का मानवीकरण हो पाता ?

4.  माटी

प्रभु ध्यान भंग कर बैठे ही थे,
(कि) माटी ने आकर प्रणाम किया,
बोली शंकर ये क्या किया ?
आपने मुझे क्यों माटी बना दिया ?

भगवन ! मैं चन्दन बन जाती,
तुम्हारे अंग अंग लगती ,
दिक् – दिगंत सुगंध बन महकती,
अपने भाग्य पर इठलाती – इतराती |

शिव ! मैं चम्पा – चमेली बन जाती ,
चटकती खिलती,
तुम्हारे शीश पर चढ़ती,
सजती संवरती,
लोग मुझे आँखों से लगाते,
माथे से छुआते |

प्रियवर ! जलधारा ही बन जाती,
गंगाझरी में जा गिरती,
तुम्हारा अभिषेक करती,
अभिसिंचित करती कण – कण,
और मिट जाती |

प्रभु मुस्कुराए , बोले
तुम माटी ही नहीं माँ भी हो
मेरी पार्थिव देह,
तुम्हीं से बनी है,
तुम आदि शक्ति हो,
मातृ स्वरूपा हो |

चन्दन तुम्हारे कोख से उपजा है,
चमेली तुम्हारी ही आत्मजा है,
जल तुम्हारे ह्रदय की ममता है,
वो तुम्हारे नेह का आँचल है,
इक दिन सभी को माटी होना है,
इक दिन सभी को माटी में मिलना है |

5.  बुढ़ापा

सुना है समय सभी घाव भर देता है
पर भरते नहीं हैं वक्त के दिए घाव
झुर्रियों भरा चेहरा लिए सूनी आँखें
क्यों देखती हैं आकाश की ओर
हथेलियों की ओट से
आकाश के पास कुछ भी नहीं है
इन्हें देने को |

चंद चमकते टुकड़े हैं या पत्थर हैं
जो किसी काम के नहीं
झुकी कमर और लाठी के सहारे
ज़मीन की ओर नज़रें गड़ाए
क्या चाहते हैं ये वक्त के सताए
इस धरती का बंजर रेतीलापन
सिर्फ देगा ठंडा टीसता दर्द
इसके सिवा कुछ नहीं !

असहाय अक्षम बेबस लाचार
बस चंद शब्दों में आकर
सिमट गया है बुढ़ापा |

snehlta bose.poet snehlta boseपरिचय
स्नेहलता बोस
” शिक्षक श्री अवार्ड – 2013 ” से सम्मानित शिक्षिका व् साहित्यकार

शिक्षा : एम. ए., बी. एड

भाषा ज्ञान : हिन्दी, बँगला, अंग्रेज़ी, बुन्देलखंडी, छत्तीसगढ़ी

शिक्षिका : केन्द्रीय विद्यालय क्रमांक एक, इंदौर से २००४ में सेवानिवृत्त

सम्मान : २०१३ में अध्यापन के क्षेत्र में शिक्षक दिवस पर ‘शिक्षक श्री’ अवार्ड से सम्मानित

लेखन : शालेय जीवन से, कई हिन्दी पत्रिकाओं और अखबारों में प्रमुखता से कविता और आलेख का  नियमित प्रकाशन, रंगमंच पर अभिनय, रेडियो आर्टिस्ट

प्रकाशित काव्य संग्रह: 1) नेह परस २) इस मोड़ पर

संप्रति : स्वतंत्र लेखन एवं अध्ययन – अध्यापन
संपर्क : ५७, धार कोठी, रेसीडेंसी एरिया , इंदौर (म.प्र) दूरभाष : ०९४७९५६२४१५, ०७३१- २७००३५२

8 COMMENTS

  1. बहुत सुन्दर कवितायें ..जीवन के विविध पहलू को स्पर्श करती हुई ..खासकर लयात्मक छंदों में भाव के उद्बोधन दुष्कर होतें हैं .इस भ्रम को दूर करती है स्नेहलता जी की लेखनी. इसका कारण है ये नैसर्गिक रूप से ” आशु-कवयित्री “हैं . अपने अंतःकरण को सुनाकर नहीं लिखती वरेण्य अंतःकरण की सुनकर लिखती हैं . इनकी कविताओं का सबसे सबल पक्ष है की ..ये अपने भावो का सरल शब्दों में उद्बोधन करती हैं . वर्त्तमान साहित्य में एक भ्रम सा है की जिन पद्यों को पढ़कर आह! ओह ! आँसू. आदि का एहसास नहीं हो वह पद्य ” अनर्गल ” होते हैं . इन्होने इस भ्रम को अपनी कविताओं में समाहित नहीं होने दिया यहाँ संत्रास भी मोहक लगते हैं …आशा यही करूंगा की ये कवितायें फिर मिलें ..साभार : शिव कुमार झा टिल्लू , जमशेदपुर

  2. किसी एक कविता की तारीफ मुश्किल हैं ! टिप्पणी लाजबाब हैं ! शानदार दोनों ! आपने दिन अच्छा कर दिया !

  3. शानदार कविताएँ …एक से बढकर एक ! अहिल्या और सिया का जबाब नहीं ,आपके लेखन में जो गहराई हैं वह किसी समुन्द्र तल से भी ज़्यादा हैं ! साभार !!!

  4. आपकी कोई कविता एक दुसरे कम नहीं हैं पर माटी …सबसे उम्दा लगी ! सभी शानदार कविताओं के लियें शुक्रिया !

  5. एकादश…बहुत वक़्त बाद कोई ऐसी कविता पढ़ने को मिली ! सभी कविताएँ शानदार ! आपको पढ़ना बहुत ही सुखद अहसाह रहा ! साभार !

  6. आपकी पाँचों कविताएँ बार बार पढ़ने का मन हुआ ! ऐसा बहुत ही कम होता हैं जब एक साथ सभी कविताएँ हमे शानदार पढ़ने को मिल जाएं ! साभार !!

  7. स्नेहलता जी …अहिल्या और सिया …सबसे शानदार कविता हैं ,ऐसा नहीं हैं की बाकी कविताएँ कण बढिया हैं पर अहिल्या और सिया की जो रचना आपने की हैं वह मुझे रामायण की याद दिलाती हैं !

  8. मैम आपकी हर कविता शानदार हैं ,सभी एक से बढकर एक हैं ! पर मैम बुढ़ापा सच में बहुत उम्दा कविता हैं !

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