**सूचनाएं नहीं छिपाई जा सकती : गोपाल प्रसाद

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 गोपाल प्रसाद*,,

 अमेरिकी राष्र्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने भारत दौरे के दौरान चुन चुन कर मूर्ति, आजादी एवं लोकतंत्र के प्रतीकों का इस्तेमाल किया. इसी क्रम में उन्होंने सूचना के अधिकार कानून की भी प्रशंशा की. उन्होंने कहा कि इससे नागरिक वह सबकुछ हासिल कर सकते हैं जिसके वो हक़दार हैं. यह कानून नौकरशाही कि जिम्मेदारी का अहसास करता है, परन्तु किसी भी व्यवस्था में कानून का होना ही प्रयाप्त नहीं होता बल्कि कानून को लागू करने और करवाने की स्थितियां भी आवश्यक होती है. भारत में गोपनीयता और देश की सुरक्षा की आड़ में सूचनाओं को दबाने के मजबूत व्यवस्था कायम रही है. नौकरशाही उसमे प्रमुख है. पांच वर्षों के अनुभवों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि संगठित नौकरशाही ने सूचना के अधिकार कानून को बेअसर करने कि हर संभव कोशिश कि है. वह तरह तरह से सूचना के अधिकार कानून के प्रावधानों की व्याख्या करती है. उदहारण स्वरुप प्रधानमंत्री कार्यालय में लगी द एवोलुशन ऑफ़ हिन्दू आर्य जीवन (जी एच नगरकर – १९२९ भित्तिचित्र यानि पेंटिंग) वर्तमान स्थिति के बारे में प्रधानमंत्री कार्यालय से किसी व्यक्ति ने सूचना मांगी थी. यह तश्वीर उन लोगों ने स्वयं देखि और जब प्रधानमंत्री से यू एन आई के मसले में कुलदीप नैय्यर के नेतृत्वा में मिलाने गए थे. आवेदक ने जानकारी मांगी थी कि क्या उपरोक्त चित्र को यथावत रखा गया है और उसमे हिन्दू आर्य समाज का चित्रण किस तरह से किया गया है. क्या उस चित्र की प्रति उपलब्ध हो सकती है, यदि उसको हटाया गया है तो  कब हटाया गया. क्या हिन्दू आर्य समाज को चित्रित करने वाली और भी तश्वीरे प्रधानमन्त्री कार्यालय में हैं?
                       वास्तव में इस तस्वीर में वर्ण व्यवस्था के अनुरूप चित्र बनाये गए है और ये अंग्रेजो के कार्यकाल के दौरान ही बनाये गए थे. प्रधानमन्त्री कार्यालय ने इसके जवाब में कहा कि उसके अभिलेखों में उक्त तश्वीर की कोई जानकारी नहीं मिलती है. अर्थात आँखों से देखी गयी कोई जानकारी यदि फाइलों में नहि है तो नौकरशाही उसके मौजूद होने से इंकार कर देती है.
                        मुख्य सूचना आयुक्त के समक्ष प्रधानमन्त्री  कार्यालय के इस जवाब के खिलाफ अपील की गयी. यदि कोई जानकारी अभिलेखों में उपलब्ध नहीं है लेकिन वह सूचना अस्तित्व में है तो क्या वह सूचना नहीं मानी जायेगी. तथा उस सूचना को सूचना के रूप में अभिलेखों में स्थापित कर उसे सूचना कि मांग करने वाले नागरिकों को उपलब्ध नहीं कराया जाना चाहिए, उस स्थिति में जब प्रधानमन्त्री  कार्यालय में यह चित्र पेंटिंग के रूप में लगा हुआ है. इसे कई लोगों ने देखा है और इसके सम्बन्ध में समाचार पत्रों में छपा भी है. मुख्य सूचना आयुक्त के समक्ष अपील में यह दलील दी गई कि सूचना के अधिकार कानून में यह प्रावधान नहीं है कि जो अभिलेखों में उपलब्ध नहीं है उनका कोई अस्तित्व ही नहीं है. सूचना एक तथ्य के रूप में अस्तित्व में है. उसे लोगों ने देखा है तो उसे सूचना न होने के रूप में कैसे प्रस्तुत किया जा सकता है. इस तरह से सूचना के अधिकार कानून के तहत बुनियादी उसूलों पर फर्क पड़ता है. सूचना आयोग को इस तरह के सैधांतिक प्रश्नों को तत्काल हल करना चाहिए. वास्तव में सूचना अधिकार कानून के प्रावधानों कि मनमानी व्याख्याओं का एक असर यह होता है कि सूचना मांगने वालों के एक हिस्से की सूचना की भूख शांत हो जाती है. सरकारी व्यवस्था किसी नागरिक को शांत करने के लिए उसे थका देने में यकीं करती है. इसके लिए मनमानी व्याख्या बहुत कारगर हथियार साबित होती है. आखिर जो सूचनाएं आसानी से उपलब्ध हैं, उन्हें देने में जितना संभव हो सके उतनी रुकावटें खड़ी की जाती है.
                   भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के लिए ठेके पर कर्मचारियों कि नियुक्ति करने वाली सरकारी कंपनी बेसिल को सूचना आयुक्त ने वाहन हुई भर्तियों से संबंधित सुचनाए उपलब्ध करने का निर्देश दिया परन्तु कंपनी ने यह कहकर सूचना उपलब्ध नहीं करवाई कि इस तरह कि सुचनाए उपलब्ध नहीं है. सूचना चाहने वाला चाहे तो दस्तेजों का अवलोकन कर सकता है. अर्थात देखने के लिए तो सूचना उपलब्ध है परन्तु वह आंकड़ो के रूप में उपलब्ध नहीं है. दरअसल सूचना मांगने वालों को दस्तावेजों कि फोटो कॉपी के नाम पर जो लम्बे चौड़े बिल भेजे जाते हैं, उसकी जड़ में सुचनाए उपलब्ध न करने की मंशा ही होती है. अपील कि प्रक्रिया में जाने पर कुछेक सूचनाएं मिल जाती हैं. अंततः सूचनारन (सूचना मांगने वाले) को मुख्य सूचना आयुक्त के समक्ष अपील करनी होती है. जिसकी सुनवाई में हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट कि तरह समय लगाने लगा है, नौकरशाही का ढांचा इतना ढीठ है कि वह सोचता है कि जब उसे सूचना आयुक्त का निर्देश मिलेगा तभी सूचना उपलब्ध करा दी जाएगी. देखा जाय तो सूचना मांगने का जो मकसद होता है, वह पूरा न होने के बजाय सूचना मांगने वाला इस व्यवस्था से तबतक बुरी तरह थक चूका होता है. उसे यह भी भरोसा नहीं होता है कि निर्देश मिलने के वाबजूद लागू हो पायगा अथवा नहीं.
                     इसी तरह अब कोई भी सूचना मंगनी हो तो कह दिया जाता है कि सूचना के अधिकार के तहत आवेदन करें. केंद्रीय मंत्री एम एस गिल ने तो संसद में कहा था कि  राष्ट्रमंडल खेलों से संबंधित सूचनाएं चाहिए तो वो सूचना के अधिकार कानून के तहत आवेदन कर सकते हैं. जबकि सूचना के अधिकार कानून में कहा गया है कि ऐसी स्थिति विकसित करनी चाहिए ताकि इस कानून का कम से कम इस्तेमाल हो. कानून बनाने का यह अर्थ है कि सरकारी तंत्र महसूस करे कि गोपनीयता और देश की सुरक्षा की आड़ में सूचनाएं नहीं छुपाई जा सकती. इसका अर्थ यह हुआ कि वह किसी नागरिक द्वारा मांगी गयी सूचनाएं उपलब्ध कराये.
नोट :  लेखक गोपाल प्रसाद सूचना के अधिकार कार्यकर्ता हैं एवं यह उनके निजी विचार है.  
(लेखक सूचना के अधिकार  कार्यकर्त्ता हैं )
गोपाल प्रसाद (RTI ACTIVIST)
मंडावली, दिल्ली – 92

मो० – 9289723144

EMAIL: gopal.eshakti@gmail.com

*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC

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