सुशांत सुप्रिय की 10 कविताएँ

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 10 कविताएँ

1. एक सजल संवेदना-सी

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उसे आँखों से
कम सूझता है अब
घुटने जवाब देने लगे हैं
बोलती है तो कभी-कभी
काँपने लगती है उसकी ज़बान
घर के लोगों के राडार पर
उसकी उपस्थिति अब
दर्ज़ नहीं होती
लेकिन वह है कि
बहे जा रही है अब भी
एक सजल संवेदना-सी
समूचे घर में —
अरे बच्चों ने खाना खाया कि नहीं
कोई पौधों को पानी दे देना ज़रा
बारिश भी तो ठीक से
नहीं हुई है इस साल

                         ———-०———-

                              2. निमंत्रण

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ओ प्रिय
आओ कोई ऐसी जगह तलाश करें
जहाँ प्रतिदिन मूक समझौतों के सायनाइड
नहीं लेने पड़ें
जहाँ ढलती उम्र के साथ
निरंतर चश्मे का नंबर न बढ़े
जहाँ एक दिन अचानक
यह भुतैला विचार नहीं सताए
कि हम सब महज़
चाबी भरे खिलौने हैं
चलो प्रिय
कौमा और पूर्ण-विराम से परे कहीं
जिएँ

                           ———-०———-

                               3. बोलना

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— सुशांत सुप्रिय
हर बार जब मैं
अपना मुँह खोलता हूँ
तो केवल मैं ही नहीं बोलता
माँ का दूध भी
बोलता है मुझमें से
पिता की शिक्षा भी
बोलती है मुझमें से
मेरा देश
मेरा काल भी
बोलता है मुझमें से

                      ———-०———-

                          4. हक़ीक़त

————-

हथेली पर खिंची
टूटी जीवन-रेखा से
क्या डरते हो
साप्ताहिक भविष्य-फल में की गई
अनिष्ट की भविष्यवाणियों से
क्या डरते हो
कुंडली में आ बैठे
शनि की साढ़े-साती से
क्या डरते हो
यदि डरना है तो
अपने ‘मैं’ से डरो
अपने बेलगाम शब्दों से डरो
अपने मन के कोढ़ से डरो
अपने भीतर हो गई
हर छोटी-सी मौत से डरो
क्योंकि
उँगलियों में
‘नीलम’ और ‘मूनस्टोन’ की
अँगूठियाँ पहन कर
तुम इनसे नहीं बच पाओगे

                      ———-०———-

                          5. पत्थर

———–

वह एक पत्थर था
रास्ते में पड़ा हुआ
सुबह जब मैं वहाँ से गुज़रा
मैंने देखा —
कोई उसके दाईं ओर से
निकल कर जा रहा था
कोई बाईं ओर से
सारा दिन वह पत्थर
धूप में तपता हुआ
वैसे ही पड़ा रहा
शहर की उस व्यस्त सड़क पर
उसे भी इच्छा हुई कि
कोई तो उसे छुए
कोई तो उसे उठाए
जैसे छुआ जाता है
फूल को या
जैसे उठाया जाता है
मूर्तियों को
किंतु किसी ने उसे
ठोकर भी नहीं मारी
हालाँकि वह एक
बेहद गरम दिन था
किंतु शाम को जब मैं
उसी रास्ते से लौट रहा था
मैंने देखा
पत्थर में से कुछ
रिस रहा था पानी जैसा
हे देव
क्या ऐसा भी होता है
पत्थर भी रोता है ?

                      ———-0———-

                       6. आज का आदमी

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मैं ढाई हाथ का आदमी हूँ
मेरा ढाई मील का ‘ईगो’ है
मेरा ढाई इंच का दिल है
दिल पर ढाई मन का बोझ है

                      ———-0———-

                       7. हाँ , मैं चोर हूँ

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व्यस्तता की दीवार में
सेंध लगा कर
मैं कुछ बहुमूल्य पल
चुरा लेना चाहता हूँ —
क्या पुलिस मुझे पकड़ेगी ?
बीत चुके वर्षों की
बंद अल्मारी में
चोर-चाबी लगा कर
मैं कुछ बहुमूल्य यादें
चुरा लेना चाहता हूँ —
क्या पुलिस मुझे पकड़ेगी ?
‘हलो-हाय’ संस्कृति वाले महानगर
के अजायबघर का ताला तोड़ कर
मैं कुछ सहज अभिवादन
चुरा लेना चाहता हूँ —
क्या पुलिस मुझे पकड़ेगी ?

                      8. एक दिन

————-

एक दिन
मैंने कैलेंडर से कहा —
आज मैं उपलब्ध नहीं हूँ
और अपने मन की करने लगा
एक दिन
मैंने घड़ी से कहा —
आज मैं उपलब्ध नहीं हूँ
और ख़ुद में डूब गया
एक दिन
मैंने पर्स से कहा —
आज मैं उपलब्ध नहीं हूँ
और बाज़ार को अपने सपनों से
निष्कासित कर दिया
एक दिन
मैंने आइने से कहा —
आज मैं उपलब्ध नहीं हूँ
और पूरे दिन मैंने उसकी
शक्ल भी नहीं देखी
एक दिन
मैंने अपनी बनाई
सारी हथकड़ियाँ तोड़ डालीं
अपनी बनाई सारी बेड़ियों से
आज़ाद हो कर जिया मैं
एक दिन

                       ———-०———-

                         9. जब मैं नहीं हूँगा

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जब मैं नहीं हूँगा
तुम मुझे एल्बम की फ़ोटो में
मत ढूँढ़ना
मुझे ढूँढ़ना
आँगन के कोने में उगे
नीम के पेड़ में
जिसकी घनी पत्तियों में
चिड़ियों के घोंसले हैं
मैं हूँगा
सुबह की क्वाँरी हवा में
जिसका सुखद स्पर्श तुम्हें जगा जाएगा
एक नए दिन की
ज़िम्मेदारियाँ निभाने के लिए
तुम मुझे पाओगी
सूर्योदय की लालिमा में
जो तुम्हारे अंतर्मन के
हर अँधेरे कोने को
रोशन कर देगी
मैं तुम्हें मिलूँगा
खेत में काम करते
किसान के हल में
जो बीज को नया जीवन देने के लिए
उर्वर ज़मीन तैयार कर रहा होगा
मैं मौजूद रहूँगा
गर्भवती घटाओं में
जो अपना सारा जल उड़ेल कर
सूखी-प्यासी धरती को
तृप्त कर रही होंगी …
जब मैं नहीं हूँगा
तुम मुझे अपनी
स्मृतियों के चल-चित्र में
मत ढूँढ़ना
जिसे तुम पहचानती थी
उस देह की केंचुली उतार कर
मैं कब का जा चुका हूँगा
किंतु यदि हृदय से ढूँढ़ोगी तो
पाओगी तुम मुझे फिर से
धूप , हवा , पानी , मिट्टी और
हरियाली के रास्ते ही
कई अलग रूपों में

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                         10. हाँ , मैं प्यार करता हूँ

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ओ प्रिये
मैं तुम्हारी आँखों में बसे
दूर कहीं के
गुमसुम खोयेपन से
प्यार करता हूँ
मैं घाव पर पड़ी
पपड़ी-सी
तुम्हारी उदास मुस्कान से
प्यार करता हूँ
मैं उन लमहों से प्यार करता हूँ
जब बंद कमरे की खुली खिड़की से
हम दोनो इकट्ठे-अकेले
अपने हिस्से का आकाश नाप रहे होते हैं
हाँ , मैं उन अनाम पलों से भी
प्यार करता हूँ जब
तुम्हारे अंक में अपना मुँह छिपाए
ख़ालीपन से ग्रस्त मैं
किसी अबूझ लिपि के
टूटे हुए अक्षर-सा
बिखरता महसूस करता हूँ
जबकि तुम
नहींपन के किनारों में उलझी हुई
यहीं कहीं की होते हुए भी
कहीं नहीं की लगती हो

                      ————०————-

Sushant-supriy-poemsपरिचय – :

सुशांत सुप्रिय

कवि , कथाकार व अनुवादक

शिक्षा: अमृतसर ( पंजाब ) व दिल्ली में ।
प्रकाशित कृतियाँ : हत्यारे , हे राम, दलदल ( कथा-संग्रह ) ,एक बूँद यह भी , इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं (काव्य-संग्रह),सम्मान :  भाषा विभाग ( पंजाब ) तथा प्रकाशन विभाग ( भारत सरकार ) द्वारा

रचनाएँ पुरस्कृत ।
# कमलेश्वर – कथाबिंब कथा प्रतियोगिता ( मुंबई ) में लगातार दो वर्ष प्रथम
पुरस्कार व् अन्य प्राप्तियाँ -:
कई कहानियाँ व कविताएँ अंग्रेज़ी , उर्दू , पंजाबी , उड़िया , असमिया , मराठी , कन्नड़ व मलयालम आदि भाषाओं में अनूदित व प्रकाशित ,  कहानियाँ कुछ राज्यों के कक्षा सात व नौ के हिंदी पाठ्यक्रम में शामिल ,  कविताएँ पुणे वि.वि. के बी.ए. ( द्वितीय वर्ष ) के पाठ्य-क्रम में शामिल ,   कहानियों पर आगरा वि.वि. , कुरुक्षेत्र वि.वि. व गुरु नानक देव वि.वि.,अमृतसर के हिंदी विभागों में शोधकर्ताओं द्वारा शोध-कार्य ।   अनुवाद की पुस्तक ” विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ ” प्रकाशनाधीन ,  अंग्रेज़ी व पंजाबी में भी लेखन व प्रकाशन , अंग्रेज़ी में काव्य-संग्रह ” इन गाँधीज़ कंट्री ” प्रकाशित । अंग्रेज़ी कथा-संग्रह ” द फ़िफ़्थ डायरेक्शन ” प्रकाशनाधीन ।

# सम्पर्क : मो – 8512070086 ,  ई-मेल: sushant1968@gmail.com

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