सीमा पर तनाव के मध्य भारत-पाक को ‘नोबल’

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kmnbl{  तनवीर जाफ़री }  शांति का नोबल एक बार फिर भारत के खाते में आ गया है। पिछले दिनों विश्व के सबसे प्रतिष्ठित व सर्वोच्च समझे जाने वाले नोबल शांति पुरस्कार से भारत व पाकिस्तान के दो व्यक्तियों कैलाश सत्यार्थी तथा मलाला युसुफज़ई को संयुक्त रूप से अलंकृत किया गया। बड़े ही आश्चर्य की बात है कि जिस समय भारत व पाक के पक्ष में नोबल शांति पुरस्कार की घोषणा की जा रही थी ठीक उसी समय भारत व पाकिस्तान अपने-अपने देशों की नियंत्रण रेखा पर तथा कई सीमाओं पर एक-दूसरे के विरुद्ध अंधाधुंध गोलियां बरसा रहे थे। गोया ज़बरदस्त अशांति और तनाव के वातावरण के मध्य इन्हीं दोनों देशों के सामाजिक कार्यकर्ताओं को विश्व के सर्वोच्च शांति पुरस्कार से नवाज़ा जाना न केवल दोनों देशों की जनता के लिए बल्कि वहां के हुक्मरानों तथा नीति निर्धारकों के लिए भी एक सबक पेश करता है। कैलाश सत्यार्थी व मलाला युसुफ ज़ई को नोबल शांति पुरस्कार से अलंकृत किए जाने का एक दु:खद पहलू भी है। वह यह कि बजाए इसके कि दोनों देशों में अपने-अपने इन सामाजिक कार्यकर्ताओं का निर्विवादित रूप से स्वागत किया जाता तथा उनकी हौसला अफज़ाई की जाती ठीक इसके विपरीत जहां भारत में कैलाश सत्याथर््ी के विषय में नाना प्रकार की नकारात्मक बातें की जाने लगीं,नोबल प्राप्त करने से पूर्व की उनकी कारगुज़ारियों तथा उनकी प्रसिद्धि पर सवाल उठाए जाने लगे, उनकी विचारधारा को लेकर तरह-तरह की बातें की जाने लगी यहां तक कि कैलाश सत्यार्थी को नोबल शांति पुरस्कार मिलने पर नोबल पुरस्कार हेतु गठिात चयन समिति द्वारा निर्धारित मापदंडों पर ही सवाल खड़ा किया जाने लगा,ठीक उसी प्रकार पाकिस्तान में मलाला युसुफज़ई द्वारा इस पुरस्कार के हासिल करने पर तरह-तरह की नुक्ताचीनी की जाने लगी। यहां तक कि दो वर्ष पूर्व उस पर हमला करने वालों ने उसे नास्तिकों का एजेंट तक कह डाला। ज़ाहिर है भारत व पाकिस्तान चूंकि कल तक एक ही देश,संसकृति व सभ्यता के देश के रूप में जाने जाते थे। लिहाज़ा मात्र सीमाएं बदल जाने से उनकी मानसिकता अब भी नहीं बदली। भारत की ही तरह पाकिस्तान में भी नकारात्मक सोच रखने वाले तथा निरर्थक विवाद खड़ा करने वाले आम लोगों की संख्या पर्याप्त मात्रा में है जैसाकि कैलाश सत्यार्थी तथा मलाला युसुफज़ई को नोबल पुरस्कार प्राप्ति के बाद होती आलोचना से साफ नज़र भी आ रहा है।

कैलाश सत्यार्थी देश के एक ऐसे सामाजिक कार्यकर्ता का नाम है जिसने अपना पूरा जीवन बाल मज़दूरों तथा बंधुआ मज़दूरों की मुक्ति के लिए समर्पित कर दिया। यह अपनी जगह सही है कि उनके ेद्वारा किए जाने वाले रचनात्मक कार्यों को समाचार पत्रों व टीवी चैनलस द्वारा उतना प्रचारित नहीं किया गया जितना कि स्वामी अग्रिवेश या इन जैसे और दूसरे सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ किया जाता रहा है। परंतु उनकी कारगुज़ारियों के आंकड़े तथा रिकॉर्ड यह बताते हैं कि उन्होंने बंधुआ मज़दूरों को मुक्त कराने हेतु गोया अपना पूरा जीवन ही समर्पित कर दिया हो। कैलाश सत्यार्थी के विषय में यह पढक़र और भी आश्चर्य हुआ कि बंधुआ मज़दूरों को मुक्त कराने की प्रेरणा उन्हें पैगंबर हज़रत मोहम्मद से प्राप्त हुई। गौरतलब है कि जिस समय पैगंबर हज़रत मोहम्मद इस्लाम के प्रवर्तक के रूप में इस्लाम का प्रचार कर रहे थे उसी दौर में अरब की धरती पर गुलामी की प्रथा अत्यधिक प्रचलित थी। कोई भी धनवान,सामर्थवान अथवा बलवान व्यक्ति किसी गरीब परिवार से उसके बालक अथवा बालिका,पुरुष अथवा महिला किसी को भी आजीवन खरीद लेता था और उससे जानवरों की तरह काम कराता था। कई दुष्ट स्वामी ऐसे भी होते थे जो अपने इन गुलामों को भूखा भी रखते थे तथा शारीरिक कष्ट भी देते थे। जब हज़रत मोहम्मद ने इस्लाम धर्म का प्रचार-प्रसार शुरु किया तो उन्हें गुलामी तथा दास्ता प्रथा, मानवता के प्रति सबसे बड़ा अत्याचार दिखाई दी। उन्होंने गुलामों को मुक्त कराने हेतु बाकायदा इस्लाम के कानून में प्रावधान रखा। हज़रत मोहम्मद ने ऐसे इस्लामी कानून बनाए जिसमें किसी व्यक्ति को अपने गुनाह से मुक्ति पाने के लिए अपने गुलाम को आज़ाद करना अनिवार्य होता था। हज़रत मोहम्मद द्वारा बनाया गया यह कानून बाद में इस्लामी शरिया कानून का भी हिस्सा बना तथा उनके उत्तराधिकारी हज़रत अली व अन्य सहाबियों ने भी आगे चलकर इस कानून का अनुसरण किया।

कैलाश सत्यार्थी को नोबल शांति पुरस्कार मिलना तथा हज़रत मोहम्मद का उनके लिए प्रेरणा स्त्रोत होना भी अपने-आप में एक बहुत बड़ा विषय है। खासतौर पर उन लोगों के लिए जो एक-दूसरे के धर्म,धर्मगुरुओं तथा धार्मिक ग्रंथों में अंतर करते हें तथा उनके मध्य रेखाएं खींचते हैं। जबकि वास्तव में अच्छी बात हमेशा अच्छी ही होती है। अच्छी बातों की प्रेरणा किसी से भी ली जा सकती है। यह कोईज़रूरी  नहीं कि हिंदुओं के प्रेरक केवल हिंदुओं के देवी-देवता हों और मुसलमानों को केवल मुस्लिम पैगंबरों व पीर-फकीर से ही सद्मार्ग पर चलने का सबक मिले। भगवान राम,गुरुनानक,हज़रत ईसा मसीह,हज़रत मोहम्मद व भगवान महावीर जैसे महापुरुषों द्वारा दिखाए गए सद्मार्गों से किसी भी धर्म अथवा विश्वास रखने वाला कोई भी व्यक्ति इंकार नहीं कर सकता। और यदि वह ऐसा करता है तो निश्चित रूप से वह कट्टरपंथी है,पूर्वाग्रही है तथा मानवता के पक्ष में इन महापुरुषों द्वारा दिए गए संदेशों को वृहद् रूप से स्वीकार कर पाने में असमर्थ है। नि:संदेह कैलाश सत्यार्थी ने हज़रत मोहम्मद से प्रेरणा प्राप्त कर इंसानों को गुलामी की ज़ंजीरों से मुक्त कराने का जो अभियान छेड़ा है उस से समस्त मानवजाति को खासतौर पर हज़रत मोहम्मद के अनुयाईयों को भी सबक लेने की ज़रूरत है। यानी केवल हज़रत मोहम्मद के नाम की माला जपने से या स्वयं को उनका बहुत बड़ा उपासक अथवा पैरोकार बताने मात्र से कोई शख्स बहुत बड़ा इस्लामपरस्त अथवा जन्नती नहीं हो जाता बल्कि उसे महापुरुषों द्वारा बताए गए रास्तों पर चलने की भी ज़रूरत है।

इसी प्रकार मलाला युसुफज़ई जिसे कि पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमांत क्षेत्र स्वात के इलाके में कट्टरपंथी तालिबानों द्वारा जान से मारने की कोशिश की गई थी उसे नोबल शांति पुरस्कार दिए जाने का विरोध भी यही सब कहकर किया जा रहा है कि उससे भी अधिक अच्छा काम करने वाले लोग पाकिस्तान में मौजूद हैं। एक वर्ग यह कहकर आलोचना कर रहा है कि मलाला को नोबल शांति पुरस्कार देना तालिबानों के विरुद्ध अमेरिकी चाल का हिस्सा है। जो कट्टरपंथी तत्व मुस्लिम लड़कियों की पढ़ाई के पक्षधर नहीं वे भी मलाला को पुरस्कृत किए जाने का विरोध कर रहे हैं। अकल के इन दुश्मनों को यह नज़र नहीं आता कि मलाला ने अपने ऊपर हुए हमले से पहले ही मात्र 12 साल की उम्र मे बीबीसी लंदन के लिए घाटी के बच्चों के विषय में तथा उनकी शिक्षा,उनकी ज़रूरतों,उनकी पढ़ाईतथा उनके हौसलों के बारे में जो रिपोर्टिंग शुरु की थी उसी ने दुष्ट तालिबानों को दहला कर रख दिया था। और जब एक पत्रकार के रूप में मलाला उन्हें अपने रास्ते का रोड़ा नज़र आने लगी तथा उन्हें लगा कि मलाला की वजह से उनकी हकीकत दुनिया के सामने आ रही है और इसके चलते उन्हें रुसवाई व बदनामी का सामना करना पड़ रहा है तो निर्दयी तालिबानों ने उस बच्ची को गोलियों से छलनी कर दिया। यह तो आधुनिक चिकित्सा विज्ञान तथा मलाला की अपनी सहनशक्ति थी जिसने उसे जि़ंदा रखा। इतने बड़े हादसे के बावजूद आज भी वही बच्ची अपने उसी मिशन पर जुटी हुई है। आज भी वह अपने समाज में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के कमज़ोर व दबे-कुचले तबके के लिए खासतौर पर लड़कियों के लिए शिक्षा को ही उस समाज के उबरने का सबसे ज़रूरी साधन समझती है। तथा इसी शिक्षा के प्रचार व प्रसार क ेलिए कार्य कर रही है। इस्लाम में भी हज़रत फातिमा ने मुस्लिम महिलाओं को शिक्षित किए जाने पर विशेष बल दिया था। आज यदि हम मुस्लिम जगत पर नज़र डालें तो हमें स्पष्ट रूप से यह नज़र आएगा कि जहां का मुसलमान शिक्षित है वहीं समृद्धि तथा आत्मनिर्भरता भी है। और जहां-जहां शिक्षा का अंधेरा व्याप्त है वहीं कट्टरपंथ तथा अंधविश्वास व अराजकता यहां तक कि आतंकवाद का भी बोलबाला है।

लिहाज़ा दोनों ही देशों के नागरिकों को खुले दिल से कैलाश सत्यार्थी तथा मलाला युसुफज़ई का सर्वसम्मत रूप से स्वागत करना चाहिए। बल्कि भारत व पाक सीमा पर चल रहे वर्तमान तनावपूर्ण वातावरण के मध्य मैं तो यहां तक कहूंगा कि कैलाश सत्यार्थी के स्वागत समारोह पाकिस्तान में जगह-जगह आयोजित किए जाने चाहिए तथा मलाला युसुफज़ई का भारत में जगह-जगह स्वागत किया जाना चाहिए। और इनकी आलोचना करने के बजाए इस सर्वोच्च पुरस्कार के निहितार्थको समझना चाहिए।

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Tanveer JafriTanveer Jafri

columnist and AuthorAuthor Tanveer Jafri, Former Member of Haryana Sahitya Academy (Shasi Parishad),is a writer & columnist based in Haryana, India.He is related with hundreds of most popular daily news papers, magazines & portals in India and abroad. Jafri, Almost writes in the field of communal harmony, world peace, anti communalism, anti terrorism, national integration, national & international politics etc. He is a devoted social activist for world peace, unity, integrity & global brotherhood. Thousands articles of the author have been published in different newspapers, websites & news-portals throughout the world. He is also a recipient of so many awards in the field of Communal Harmony & other social activities

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