साहित्य व शिष्टता से दूर होती पत्रकारिता*

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journalistsनिर्मल रानी**
आधुनिकता के वर्तमान दौर में परिवर्तन की एक व्यापक बयार चलती देखी जा रही है। खान-पान, पहनावा,रहन-सहन,सोच-फिक्र, शिष्टाचार, पढ़ाई-लिखाई, रिश्ते-नाते, अच्छे-बुरे की परिभाषा आदि सबकुछ परिवर्तित होते देखा जा रहा है। ज़ाहिर है पत्रकारिता जैसा जि़म्मेदारीभरा पेश भी इस परिवर्तन से अछूता नहीं है। परंतु परिवर्तन के इस दौर में तमाम क्षेत्रों में जहां सकारात्मक परिवर्तन देखे जा रहे हैं वहीं पत्रकारिता के क्षेत्र में तमाम आधुनिकता व सकारात्मकता आने के बावजूद कुछ ऐसे परिवर्तन दर्ज किए जा रहे हैं जो न केवल पत्रकारिता जैसे जि़म्मेदाराना पेशे को रुसवा व बदनाम कर रहे हैं बल्कि हमारे देश के अदब, साहित्य तथा शिष्टाचार की प्राचीन रिवायत पर भी आघात पहुंचा रहे हैं।

रेडियो तथा प्रारंभिक दौर के टेलीविज़न की यदि हम बात करें तो हमें कुछ आवाज़ें ऐसी याद आएंगी जो शायद आज भी श्रोताओं के कानों में गूंजती होंगी। यानी कमलेश्वर,देवकीनंदन पांडे, अशोक वाजपेयी,अमीन सयानी, जसदेव सिंह, जे बी रमन,शम्मी नारंग जैसे कार्यक्रम प्रस्तोताओं की आकर्षक,सुरीली,प्रभावशाली तथा दमदार आवाज़। इनके बोलने में या कार्यक्रम के प्रस्तुतीकरण के अंदाज़ में न केवल प्रस्तुत की जाने वाली सामग्री के प्रति इनकी गहरी समझ व सूझबूझ होती थी बल्कि इनके मुंह से निकलने वाले एक-एक शब्द साहित्य व शब्दोच्चारण की कसौटी पर पूरी तरह खरे उतरते थे। और होना भी ऐसा ही चाहिए क्योंकि रेडियो व टीवी जैसे संचार माध्यमों का प्रस्तोता समाज पर विशेषकर युवा पीढ़ी पर साहित्य संबंधी अपना पूरा प्रभाव छोड़ता है। यहां तक कि तमाम दर्शक व श्रोता प्रस्तोता द्वारा कही गई बातों या उसके द्वारा बोले गए शब्दों को दलीलों के तौर पर पेश करते हैं।

अब आईए आज के युग की ग्लैमर भरी पत्रकारिता के ‘सुपर-डुपर’ पत्रकारों की खबर लें। आज की टीवी प्रधान पत्रकारिता के क्षेत्र में एक प्रसिद्ध नाम है दीपक चौरसिया का। इन्होंने अपनी विशेष आवाज़ और अंदाज़ के द्वारा स्वयं को का$फी चर्चित चेहरा बना लिया है। टेलीविज़न की दुनिया में भारत में पहला निजी चैनल जिसने कि 24 घंटे लगातार समाचार प्रसारण का चलन शुरु किया वह था आज तक। इसी चैनल के माध्यम से देश की पत्रकारिता में दीपक चौरसिया अवतरित हुए।

अपनी बोल्ड अंदाज़ वाली तेज़-तर्रार छवि के साथ दीपक चौरसिया आज तक से प्रसिद्धि प्राप्त करने के बाद स्टार न्यूज़ होते हुए इन दिनों इंडिया न्यूज़ नामक एक चैनल में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। निश्चित रूप से देश में तमाम लोग ऐसे भी हैं जो दीपक चौरसिया व उन जैसे कुछ अन्य पत्रकारों,एंकर्स या कार्यक्रम प्रस्तोताओं की आवाज़ और अंदाज़ को सराहते होंगे। परंतु हकीकत तो यह है कि इनके जैसे पत्रकार कार्यक्रम के प्रस्तुतीकरण की अपने अंदाज़,अपने भौतिक व्यक्तित्व,दिखावा तथा बात का बतंगड़ बनाने जैसी शैली पर अधिक विश्वास करते हैं। परिणामस्वरूप आज की पत्रकारिता ऐसे लोगों के हाथों में जाने से साहित्य व शिष्टता से दूर होती दिखाई देने लगी है। देश की सभी हिंदी फ़िल्मों ,गीतों, $गज़लों आदि के माध्यम से हमारे देश की आम जनता तक हिंदी साहित्य ने कितना पांव पसारा है। परंतु बड़े आश्चर्य की बात है कि इस माध्यम का प्रभाव आम लोगों पर तो संभवतः का$फी हद तक पड़ा जबकि दीपक चौरसिया जैसे वरिष्ठ, प्रतिष्ठित, ग्लैमरयुक्त पत्रकार इन सकारात्मक साहित्यिक प्रभावों से अछूते रह गए।
दीपक चौरसिया का जो लहजा व उच्चारण है उसका परीक्षण यदि बीबीसी, आकाशवाणी या दूरदर्शन जैसे समाचार संस्थानों में करवाया जाए जो संभवतः उन्हें दस में से एक नंबर भी प्राप्त नहीं होगा। इसका कारण है उनका गलत शब्दोच्चारण तथा उनका बनावटी तेवर व लहजा। जहां तक शब्दोच्चारण का प्रश्न है तो इसकी एक बिंदी के हेरफेर से या बिंदी के लगने या न लगने से शब्द के अर्थ ही बदल जाते हैं। मिसाल के तौर पर इन दिनों संभवत: सबसे अधिक दिखाए जाने वाले कमर्शियल विज्ञापनों में एक सीमेंट कंपनी का विज्ञापन दिखाया जा रहा है। जिसमें एक वाक्य बोला जाता है वह है जंग निरोधक सीमेंट। अब इन शब्दों में जंग यानी जो शब्द बार-बार टीवी पर बोला जा रहा है उसका अर्थ युद्ध से है।

जबकि विज्ञापनदाता का म$कसद लोहे या सरिया पर लगने वाले ज़ंग यानी स्टेन से है। यानी जब हम ज के नीचे बिंदी लगाएंगे तभी ज़ शब्द उच्चारित हो सकेगा। इसे और स्पष्ट करने के लिए यदि हम रोमन अंग्रेज़ी में लिखें तो छ्वह्वठ्ठद्द शब्द छ्व से शुरु होगा जबकि ज़ंर्ग शब्द से प्रारंभ होगा। इसी प्रकार सैकड़ों या हज़ारों $गलतियां सुबह से शाम तक दीपक चौरसिया जैसे महान पत्रकार के मुंह से बरसती रहती हैं। पिछले दिनों टीम अन्ना व केजरीवाल के बीच के मतभेदों पर आधारित एक मैराथन कार्यक्रम अपने नए टीवी चैनल पर चौरसिया जी प्रस्तुत कर रहे थे। हालांकि उनके आपत्तिजनक लहजे व उच्चारण के चलते मुझे उनका कार्यक्रम सुनने में कोई दिलचस्पी नहीं रहती परंतु उस दिन मैंने केवल यह देखने के लिए इनके द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रम को सुना कि देखें कई वर्षों टेलीविज़न की पत्रकारिता करते-करते चौरसिया के लहजे में कुछ परिवर्तन आया या नहीं। परंतु मुझे ऐसा महसूस हुआ कि या तो वे शब्दोच्चारण ठीक करने में दिलचस्पी ही नहीं लेना चाहते या फिर अपने शब्दोच्चारण को ही सही समझते हैं। या शायद गलती से वे यह मान बैठे हैं कि उनकी आवाज़ और अंदाज़ का जादू उच्चारण और साहित्य पर भारी पड़ जाएगा। परंतु ऐसा नहीं है। साहित्य, शिष्टता, सही शब्दोच्चारण का चोली-दामन का साथ है और पत्रकारिता के लिए तो खासतौर पर यह एक बहुमूल्य आभूषण के समान है।

बहरहाल, उस मैराथन कार्यक्रम में बड़ी मुश्किल से मुझसे दीपक जी का लहजा 15-20 मिनट तक ही सुना गया और इस दौरान वे राज़ी शब्द को राजी, आख़िर को आखिर,अन्ना हज़ारे को अन्ना हजारे, गलत को गलत, मंजि़ल को मंजिल चीज़ों को चीजों, वज़न को वजन, क़रीबी को करीबी,हज़ार को हज्जार $खुद को खुद बताते नज़र आए।

अब उपरोक्त शब्दों में उदाहरण के तौर पर राज़ शब्द को ही ले लीजिए। यदि आप ‘रहस्य’ के संदर्भ में राज़ शब्द का इस्तेमाल करना चाहते हैं तो ज अक्षर के नीचे बिंदी लगानी ही पड़ेगी। यानी क्र्र्र्रं (रोमन में ) उच्चारित करना पड़ेगा। और यदि बिना बिंदी लगाए राज़ लिखने की कोशिश की गई तो वह ‘राज़’ के बजाए राज शब्द बन जाएगा और इस राज का मतलब रहस्य नहीं बल्कि हुकूमत या सत्ता माना जाएगा। इसी प्रकार खुदा शब्द है। जिसे गॉड या ईश्वर के अर्थ में इस्तेमाल किया जाता है। अब यदि आपको ईश्वर,भगवान या गॉड वाले ख़ुदा का जि़क्र करना है तो आपको ख शब्द के नीचे बिंदी अवश्य लगानी पड़ेगी तभी वह $खुदा कहलाएगा। और यदि आपने यहां बिंदी का उपयोग नहीं किया तो यह खुदा के बजाए खुदा पढ़ा जाएगा। और इसका अर्थ गड्ढा खुदा जैसे वाक्य के संदर्भ में लिया जाएगा। इस प्रकार की सैकड़ों गलतियां दीपक चौरसिया व उन जैसे दो-चार और वरिष्ठ पत्रकार जिनके पत्रकारिता संबंधी ज्ञान पर कोई संदेह नहीं आमतौर पर करते ही रहते हैं।

खासतौर पर दीपक चौरसिया के विषय में इस समय एक बात लिखना और प्रासंगिक है इन दिनों जस्टिस मार्कडेंय काटजू के एक साक्षात्कार के दौरान एक-दूसरे द्वारा बरता गया व्यवहार उनके वर्तमान चैनल पर चर्चा का विषय बना हुआ है। इस साक्षात्कार की यदि पूरी रिकॉर्डिंग देखी जाए तो अपने-आप श्रोता व दर्शक इस निर्णय पर पहुंच जाएंगे कि जब कोई पत्रकार अपनी सीमाओं को लांघने तथा जबरन दूसरे के मुंह से अपनी मर्ज़ी की बातें उगलवाने या फिर अपने मीडिया संस्थान के लिए ब्रेकिंग न्यूज़ की तलाश करने का अनैतिक कार्य करता है तो उसे कितना अपमानित होना पड़ सकता है। फिर आप इसे अपना ही अपमान मानिए पत्रकारिता के अपमान की संज्ञा क्यों देते हैं? याद कीजिए ऐसे ही एक ऊटपटांग प्रश्र करने पर स्टार न्यूज़ चैनल में साक्षात्कार के दौरान राखी सावंत ने बात-बात में अपनी मुट्ठी में चौरसिया के बालों को पकडक़र झिंझोड़ दिया था। न जाने यह पत्रकारिता की शैली है या पत्रकारिता की दीपक चौरसिया शैली?

लिहाज़ा ऐसे जि़म्मेदार पत्रकारों ,कार्यक्रम प्रस्तोताओं,व एंकर को यह भलीभांति ध्यान रखना चाहिए कि उनके मुंह से निकले हुए एक-एक शब्द व उनके अंदाज़ दर्शकों व श्रोताओं द्वारा ग्रहण किए जा रहे हैं। जो कुछ वे बोल रहे हैं या जिस अंदाज़ में उसे प्रस्तुत कर रहे हैं उसी को हमारा समाज साहित्य व शिष्टता के पैमानों पर तौलता है तथा उसकी मिसालें पेश करता है। हालांकि ऐसे पत्रकार साहित्य व उच्चारण की समझ रखने वाले लोगों की नज़रों से तो बिल्कुल बच नहीं पाते परंतु अपने $गलत उच्चारण व बेतुके प्रस्तुतीकरण के द्वारा युवाओं की नई नस्ल पर अपना दुष्प्रभाव ज़रूर छोड़ते हैं। अतः ऐसे पत्रकारों को पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना ज्ञान बढ़ाने से पहले अपना साहित्यिक ज्ञान ज़रूर बढ़ाना चाहिए। खासतौर पर शब्दोच्चारण के क्षेत्र में तो अवश्य पूरा नियंत्रण होना चाहिए। अन्यथा जिस प्रकार दीपक चौरसिया संभवतः विरासत में प्राप्त अपने गलत शब्दोच्चारण को ढोते आ रहे हैं उसी प्रकार उनसे प्रभावित होने वाली युवा पीढ़ी भी भविष्य में उन्हीं का अनुसरण करती रहेगी।

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Nirmal Rani*निर्मल रानी
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं.Nirmal Rani (Writer)
1622/11 Mahavir Nagar
Ambala City 134002 Haryana
phone-09729229728

*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely her own and do not necessarily reflect the views of INVC.

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