साहित्य में बढ़ती मठाधीशी और बयानबाजी

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{ अतुल मिश्र } विडम्बना, विक्षोभ और वेदना – कदाचित् ये तीनों शब्द प्रस्तुत सन्दर्भ के लिए कमतर ही प्रतीत होते हैं। ’सहितस्य भाव साहित्यम्’ की संवेदना को साध्य मानने वाला हिन्दी साहित्य , सम्प्रति अपने वाडÛमय में निरन्तर विस्तारित होते हुए ’मठाधीशी और बयानबाजी’ के कारण सुर्खियों में बना हुआ है। हिन्दी साहित्य अपने अस्तित्वकाल से ही समन्वयवादी रहा है और यदि मूर्धन्य आलोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में कहा जाय तो ’’ विरूद्धों का सामंजस्य’’ हिन्दी साहित्य की सर्वतोप्रमुख विशेषता है। हिन्दी साहित्य में विश्लेषणवादी प्रवृत्तियों के साथ ही संश्लेषणवादी चेष्टायें भी प्रमुखता से मुखरित हुई हैं। सामंजस्य और सहिष्णुता की डोर ने साहित्य को एक विराट धागे से सदैव बाँधे रखा है।

परिवर्तित होती परिस्थितियों के सापेक्ष जीवन का प्रत्येक पक्ष और शास्त्र भी परिवर्तित हुआ है। उदारीकरण व भूमंडलीकरण के युग में भौतिकवाद ने अत्यन्त तीव्रता से अपने पाँव पसारे हैं। इस सम्पूर्ण प्रभाव से हिन्दी साहित्य भी अछूता नहीं रहा है। साहित्य की किसी भी कालावधि में साम्यवाद ही प्रभुत्वपूर्ण रहा है। कालान्तर में दक्षिणपंथ या यूँ कहा जाय गैर-साम्यवाद ने भी साहित्य में अपनी जड़े जमाई इस बीच मध्यममार्गी साहित्य भी यत्र-तत्र मुखरित हुआ। इतना ही नहीं राजनैतिक प्रभामंडल ने हिन्दी साहित्य को कई साँचांें व खानों में विभाजित किया। परिणामस्वरूप सम्प्रति इधर कुछ वर्षो में हिन्दी साहित्य गुटबाजी, मठाधीशी  व स्तरहीन बयानबाजी से जूझ रहा है।
ज्ञानपीठ पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार की फेलोशिप (वृृत्ति) की प्राप्ति अथवा सरकारी अनुदान पर किताबों के प्रकाशन, लेखों रचनाओं , कविताओं के चयन आदि सभी सम्बद्ध पक्ष मठाधीशी और गुटबाजी के शिकार हो रहे हैं। स्वयं को मठाधीश करने की पुरजोर कोशिश में ताबड़तोड़ बयानों के गोले दागे जा रहे हैं।

तत्कालीन विवाद भारतीय ज्ञानपीठ से जुड़ा हुआ है। युवा लेखक गौरव सोलंकी ने भारतीय ज्ञानपीठ को एक पत्र लिखकर प्रतिष्ठित ’नवलेखन पुरस्कार’ ठुकरा दिया और अपनी दो किताबों ’सौ साल फिदा’ और ’सूरज कितना कम’ के प्रकाशन – अधिकार ज्ञानपीठ से वापस ले लिया। अपने इस निर्णय के पीछे गौरव ने दो प्रमुख कारणों का हवाला दिया है। पहला, वरिष्ठ साहित्यकारों द्वारा अनुशंसित व प्रशंसित उनके कहानी संग्रह को ज्ञानपीठ के पदाधिकारियों द्वारा ’अश्लील’ की संज्ञा देकर प्रकाशित करने से मना करना और दूसरा, इस मसले पर आवश्यक सवाल – जवाब करने पर ज्ञानपीठ के ट्रस्टी और उच्चाधिकारियों द्वारा उन्हें अपमानित करना। गौरव सोलंकी और ज्ञानपीठ के मध्य हुए इस विवाद ने साहित्य के ढोंग की पोल को खोलने का काम किया। इस मुद्दे पर प्रख्यात कथाकार उदय प्रकाश का कहना था, ’’गौरव सोलंकी ने तो आवाज उठाई, उनकी सोचिए जो चुप रहे और हाशिए के भी बाहर धकेल दिए गए।’’

विगत कुछ वर्षों से ज्ञानपीठ ’विवादों का पीठ’ बन गया है। अगस्त 2010 में ’नया ज्ञानोदय’ में महात्मा गाँधी अन्तराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति व पूर्व वरिष्ठ पुलिस अधिकारी विभूति नारायण राय का एक साक्षात्कार छपा था जिसमें वार्ता के दौरान राय ने कहा था – ’’लेखिकाओं में होड़ लगी है, यह साबित करने की कि उनसे बड़ी ’छिनाल’ कोई नहीं है।’’ उन्होनें लेखिकाओं के लिए ’निम्फोमेंनियेक कुतिया’ अर्थात अनियंत्रित वासनापूर्ण इच्छा से युक्त कुतिया जैसे निहायत स्तरहीन शब्दों का भी प्रयोग किया था। इस प्रकरण को लेकर पूरे भारतवर्ष में साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों महिला संगठनों ने जबरजस्त विरोध प्रदर्शन किया। भारतीय ज्ञानपीठ के कार्यालय से लेकर शास्त्री भवन, दिल्ली तक लेखक और पत्रकार सड़क पर उतर गये। उस समय साहित्यकारों ने तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल और मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल से भी मुलाकात की, कुलपति वीएन राय व ज्ञानपीठ के तत्कालीन अध्यक्ष रवीन्द्र कालिया को उनके पदों से हटाने की माँग की गई। इतना ही नहीं वरिष्ठ साहित्यकार कृष्ण बलदेव वैद्य, गिरिराज किशोर और प्रभात रंजन ने विरोधस्वरूप अपनी किताबें ज्ञानपीठ से वापस ले ली थी। वर्धा स्थित स्थानीय न्यायालय ने कालिया और राय आदि को महिलाओं के अपमान के लिए नोटिस भी जारी किया था। प्रख्यातसमीक्षक नामवर सिंह ने तो वर्धा विश्वविद्यालय के किसी भी कार्यक्रम में शिरकत न करने की धमकी तक दे डाली।

ज्ञानपीठ के इस साहित्यिक घमासान के अतिरिक्त मठाधीशी और अनर्गल प्रलाप हिन्दी साहित्य को निरन्तर अहित पहुँचा रहे हैं। विशेष रूप से पुरूष साहित्यकारों द्वारा महिलाओं के प्रति व्यक्त किये अतार्किक न स्वरहीन व्यक्तव्यों ने साहित्य जगत को मजाक बनाकर रख दिया गया है। साहित्य जगत के कथित पुरोधाओं की इस प्रकार की संलिप्तता क्षोभपूर्ण विस्मय को ही जन्म देती है। कुछ समय पूर्व इस प्रकार का घटिया बयान हंस के सम्पादक व नामचीन कहानीकार राजेन्द्र यादव के द्वारा भी दिया गया था। राजेन्द्र यादव ने कहा था, ’औरतों के शरीर केवल दो हिस्से होते हैं – कमर के ऊपर और कमर के नीचे।’’ यादव जी के इस बयान पर भी पूरे साहित्य जगत में जबरजस्त विवाद और बखेड़ा पैदा हो गया था। वृद्धिजीवियों और साहित्यकारों ने राजेन्द्र यादव के घर धरना – प्रदर्शन और घेराव किया। दरअसल उनका यह बयान उनकी कुंठा और घबराहट को व्यक्त करता हैं क्योंकि उन्हें अपनी पत्नी मन्नु भंडारी, जो हिन्दी साहित्य में कनिष्ठकाग्रण्य रचनाकारोें में से एक मानी जाती हैं, की तत्कालीन बढ़ती लोकप्रियता और महत्ता से स्वयं की जमीन खिसकने का खतरा महसूस हो रहा था। उस समय कुछ बड़ी महिला साहित्यकर्मियों ने राजेन्द्र यादव के इस बयान को उकनी ’बुढ़भस व मर्दवादी अहं’ से प्रेरित बयान की संज्ञा दी।

वस्तुतः हिन्दी साहित्य में हाल के कुछ वर्षों में लोकप्रियता के पायदान पर चढ़ने के लिए और ’नेम-फेम’ हासिल करने के लिए बेतुके बयान देने से लेकर बेतुके क्रिया – कलाप करने की गतिविधियाँ तेजी से बढ़ी हैं। अभी अधिक दिन नहीं हुए जब ’हिन्दी साहित्य में दलित विमर्श’ को लेकर विवादास्पद स्थिति पैदा हो गई थी। दिल्ली में दलित हितों के कुछ कथित स्वयंभू पुरोधा रचनाकार एकत्रित हुये और एक स्वर से घोषणा कर दी कि ’दलित साहित्य की प्रामणिक रचना दलित साहित्यकारों द्वारा ही हो सकती हैं।’ इस आधार पर उन्होंनें उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द, महा प्राण निराला और मुक्तिबोध आदि की दलित संवेदनाओं से सरोकार रखने वाली रचनाओं और साहित्य को एकदम एक सिरे से खारिज कर दिया। हालाँकि उनके इस बयान को ही साहित्य जगत ने एक सिरे से खारिज कर दिया। इस परिप्रेक्ष्य में एक दिलचस्प घटना की चर्चा किए बिना बात अधूरी ही प्रतीत होगी। हुआ यूँ कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय से परास्नातक (हिन्दी) के अंतिम वर्ष के सामध्य, मैनें स्वयं एक विचित्र व विरोधाभाषी संक्षिप्त घटनापूर्ण चर्चा से साक्षात्कार किया। विश्वविद्यालय के डॉं0 रामकुमार वर्मा उद्यान के समीप से गुजर रहे विभाग के युवा प्रवक्ता डॉं0 भूरेलाल, जो दलित  हितों के चिंतको में गिने जाते हैं, को एक छात्र ने अत्यन्त विनम्रता से प्रणाम करते हुए चरण स्पर्श किया, इस पर डॉं0 साहब तपाक से बोल पड़े कि इस प्रकार के अभिवादन में ’’ लिसलिसापन’’ नजर आता है इसलिए आगे से ऐसा नहीं। दरअसल इस ’’ लिसलिसापन से उनका तात्पर्य कुलनवर्गीय संस्कारों से युक्त अंह की ओर था। अब भला प्रवक्ता महोदय को कौन समझाय कि उन्हें प्रत्येक कार्य में अभिजात्यवर्गीय मानसिकता की बू क्यों आती हैं ? क्या हमें अभिवादन ने नए तौर – तरीके को इजाद की आवश्यकता है ?
सारतः इस प्रकार के विवादों, अस्तरीय व्यक्तव्यों गुटबाजी से हिन्दी साहित्य का कदापि भला नहीं होने वाला है। साहित्य को महज साहित्य ही रहने दिया जाय तलवारों की म्यानों में बदलने की किचिंत भी आवश्यकता नहीं है। इसी से साहित्य का भला संभव है।

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atul mishraअतुल मिश्र 
इलाहाबाद
(यूएनओ फेलोशिप प्राप्तकर्ता)
संपर्क – 0950603336

*Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely her own and do not necessarily reflect the views of INVC.   

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