**साम्राज्यवादी शक्तियों ने क्या जानबूझ कर गद्दाफी को बनाया निशाना?

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*तनवीर जाफ़री

लीबिया को स्वतंत्र लोकतांत्रिक राष्ट्र घोषित किया जा चुका है। पश्चिमी प्रभुत्व वाले विश्व मीडिया के अनुसार इसे एक क्रूर तानाशाह से मुक्त कराया गया है। गत फरवरी से लीबिया में शुरु हुआ जनविद्रोह आंखिरकार आठ महीनों के संघर्ष के बाद पिछले दिनों कर्नल गद्दाफी की मौत पर अपने पहले चरण को पूरा कर चुका है। अब फिर वही प्रशन उठने लगे हैं कि क्या गद्दाफी व उनके परिवार के चंगुल से लीबिया के मुक्त होने के बाद वहां पूरी तरह से अमन, शांति व अवाम की सरकार का वातावरण शीघ्र बन पाएगा या फिर भविष्य में लीबिया का हश्र भी इराक जैसा ही होने की संभावना है? इसमें कोई शक नहीं कि 1969 में लीबिया के राजा इदरीस का तख्‍ता पलटने के बाद मात्र 27 वर्ष की आयु में लीबिया के प्रमुख नेता के रूप में स्वयं को स्थापित करने वाले कर्नल मोअम्‍मार गद्दाफी ने अपने लगभग 40वर्ष के तानाशाह शासन काल के दौरान जमकर मनमानी की। अपने विरोधियों व आलोचकों को कई बार बुरी तरह प्रताड़ित कराया। उनके शासनकाल में कई बार सामूहिक हत्याकांड जैसी घटनाएं उनके विरोधयों के साथ घटीं, कई बार उन्होंने अपने विरोधियों को कुचलने के लिए बड़े ही अमानवीय व क्रूरतापूर्ण आदेश भी दिए। निश्चित रूप से यही कारण था कि लीबियाई नागरिकों के एक बड़े वर्ग में उनके प्रति नंफरत तथा विद्रोह की भावना घर कर गई थी।

टयूनिशिया से शुरु हुए जनविद्रोह ने इसी वर्ष फरवरी में जब लीबिया को भी अपनी चपेट में लिया उस समय भी गद्दांफी ने अपने ही देश के अपने विरोधियों को कुचलने के लिए सैन्यशक्ति का खुला इस्तेमाल करना शुरु कर दिया था। साम्रायवादी शक्तियों को गद्दांफी व उसकी सेना द्वारा जनसंहार किए जाने का यह कदम विश्व में मानवाधिकारों का अब तक का सबसे बड़ा उल्लंघन नार आया। परिणामस्वरूप नाटो की वायुसेना ने लीबिया में सीधा हस्तक्षेप किया और आंखिरकार आठ महीने तक चले इस संघर्ष में जीत नाटो की ही हुई। लीबिया में राजनैतिक काम-काज संभालने के लिए अस्थाई रूप से बनी राष्ट्रीय अंतरिम परिषद् ने देश में अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया तथा शीघ्र ही चुनाव कराए जाने की घोषणा भी कर दी गई। मोटे तौर पर तो यही दिखाई दे रहा है कि एक क्रूर तानाशाह के साथ जो कुछ भी होना चाहिए था लीबिया में वही देखने को मिला। इरांक में सद्दाम हुसैन के शासन के पतन के समय भी लोकतांतित्रक विचारधारा के समर्थकों की ऐसी ही राय थी। परंतु क्या पश्चिमी देशों के विशेषकर अमेरिका के सहयोगी राष्ट्रों को दुनिया के प्रमुख तेल उत्पादक देशों मेंसत्ता पर काबिज वही तानशाह, क्रूर व अमानवीय प्रवृति के तानाशाह नार आते हैं जो अमेरिका या अन्यपश्चिमी देशों की मुट्ठी में रहना पसंद नहीं करते?

दुनिया बार-बार यह प्रश्न उठाती है कि तेल उत्पादक देशों के वे तानाशाह जिनके अमेरिका के साथ मधुर संबंध हैं वहां अमेरिका लोकतंत्र स्थापित करने की बात क्यों नहीं करता? जहां मानवाधिकारों का इस कद्र हनन होता हो कि महिलाओं को घर से बाहर निकलने तक की इजाजत न हो, वे सार्वजनिक कार्यक्रमों व खेलकूद में हिस्सा न ले सकती हों, स्कूल-कॉलेज न जा सकती हों, जहां बादशाह के विरुद्ध आवाज बुलंद करने वालों के मुंह बलपूर्वक बंद कर दिए जाते हों, जहां कभी लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया के दौर से देश की जनता न गुजरी हो वहां आखिर लोकतंत्र स्थापित करने की बात पश्चिमी देशों द्वारा क्यों नहीं की जाती? परंतु यदि इन सब नकारात्मक राजनैतिक परिस्थितियों के बावजूद ऐसे देश अमेरिका के पिट्ठू हों फिर तो ऐसे देशों में इन्हें तानाशाही स्वीकार्य है और यदि यही तानाशाह सद्दाम अथवा गद्दांफी की तरह अमेरिका की आंखों मे आखें डालकर देखने का साहस रखते हों तो गोया दुनिया में इनसे बुरा व क्रूर तानाशाह कोई भी नहीं? इन हालात में स्थानीय विद्रोह को हवा देने में यह पश्चिमी देश देर नहीं लगाते। कम से कम इरांक और लीबिया के हालात तो यही प्रमाणित कर रहे हैं।

पिछले दिनों फरवरी में जब लीबिया में विद्रोह की चिंगारी भड़की तथा गद्दाफी ने अपनी सैन्य शक्ति के द्वारा उस विद्रोह को कुचलने की कोशिश की उस समय भी मैंने एक आलेख गद्दाफी व लीबिया के विषय में लिखा था। मेरे उस आलेख के जवाब में एक ऐसे भारतीय नागरिक ने मुझे विस्तृत पत्र लिखा था जो कई वर्षों तक लीबिया में डॉक्टर की हैसियत से रह चुका थातथा वहां की विकास संबंधी जमीनी हंकींकतों से भलीभांति वांकिंफ था। उसने लीबिया के विकास की विशेषकर सड़क, बिजली,पानी,शिक्षा तथा उद्योग के क्षेत्र में लीबिया की जो हकीकत बयान की वह वास्तव में किसी विकसित राष्ट्र जैसी ही प्रतीत हो रही थी। हां गद्दाफी के क्रूर स्वभाव को लेकर लीबिया की जनता में जरूर गद्दांफी के प्रति विरोध की भावना पनप रही थी। जनता की इस भावना का पहले तो गद्दांफी के स्थानीय राजनैतिक विरोधियों ने लाभ उठाया और बाद में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गद्दांफी से खुश न रहने वाली पश्चिमी तांकतों ने गद्दांफी के विरुद्ध छिड़े विद्रोह को ही अपना मजबूत हथियार बनाकर नाटो की दंखलअंदाजी से गद्दांफी को मौत की दहलीज तक पहुंचा दिया।

गद्दांफी व लीबिया प्रकरण में विश्व मीडिया की भूमिका भी संदिग्ध रही है। इराक व अफगानिस्तान युद्ध की ही तरह लीबिया को भी दुनिया ने पश्चिमी मीडिया की नजरों से ही देखा व समझा है। सी एन एन तथा अन्य कुछ प्रमुख पश्चिमी मीडिया संगठन दुनिया को जो दिखाना व सुनाना चाहते हैं दुनिया वही देखती व सुनती है। इरांक की ही तरह यही लीबिया में भी हुआ है। गद्दांफी द्वारा लीबिया के विकास के लिए किए गए कार्यों को कभी भी विश्व मीडिया ने प्रचारित नहीं किया। जबकि गद्दांफी द्वारा ढाए गए जुल्मो-सितम को कई गुणा बढ़ा-चढ़ा कर हमेशा पेश किया जाता रहा। वर्तमान विद्रोह के हालात में भी गद्दांफी समर्थक सेना द्वारा विद्रोहियों पर किए जा रहे हमलों को कई गुणा बढ़ाकर बताया जा रहा था। परंतु गद्दाफी की मौत होने तक उसके द्वारा लीबिया के विकास के लिए किए गए कामों का इसी मीडिया ने कहीं भी कोई जिक्र नहीं किया है। हां उसकी मौत के बाद अब इस बात पर चिंता व्यक्त करते हुए हिलेरी क्लिंटन भी दिखाई दे रही हैं कि आंखिर गद्दांफी की मौत कैसे हुई व किसने मारा और इसकी जांच की जानी चाहिए वगैरह-वगैरह।

कर्नल गद्दांफी एक अरब-अफ्रीकी कबिलाई मुस्लिम तानाशाह होने के बावजूद एक धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के व्यक्ति थे। कट्टरपंथी व रूढ़ीवादी विचारधारा के वह सख्‍त विरोधी थे। कहने को तो पश्चिमी देश भी दुनिया में ऐसे ही शासक चाहते हैं परंतु शायद अपने पिट्ठू रूढ़ीवादी शासकों को छोड़कर। ऐसे में गद्दाफी के शासन के अंत के बाद अब लीबिया में अभी से इस प्रकार के स्वर बुलंद होने लगे हैं कि यदि आप मुसलमान हैं तो नमाज जरूर पढ़ें। गोया आधुनिकता की राह पर आगे बढ़ता हुआ लीबिया इस सत्ता परिवर्तन के बाद धार्मिक प्रतिबद्धताओं की गिरफ्त में भी आ सकता है। और यदि ऐसा हुआ तो यह रास्ता अफगानिस्तान व पाकिस्तान जैसी मंजिलों की ओर ही आगे बढ़ता है। और यदि लीबिया उस रास्ते पर आगे बढ़ा तो लीबिया का भविष्य क्या होगा इस बात का अभी से अंदाज लगाया जा सकता है। सवाल यह है कि क्या अमेरिका अथवा नाटो देश लीबिया के इन जमीनी हालात से वांकिंफ नहीं हैं। या फिर किसी दूरगामी रणनीति के तहत जानबूझ कर इस सच्चाई से आंखें मूंदे बैठे हैं। दूसरी स्थिति लीबिया में सत्ता संघर्ष की भी पैदा हो सकती है। कर्नल गद्दाफी का अंत तो जरूर हो गया है मगर उस कबीलाई समुदाय का अंत नहीं हुआ जिससे कि गद्दाफी का संबंध था तथा जो लीबिया में अपनी माबूत स्थिति रखते हैं। आने वाले समय में गद्दांफी समर्थंक यह शक्तियां चुनाव में हिस्सा ले सकती हैं तथा सत्ता पर अपने वर्चस्व के लिए सभी हथकंडे अपना सकती हैं। और संभवत: ऐसी स्थिति लीबिया में गृह युद्ध तक को न्यौता दे सकती है।

**Tanveer Jafri ( columnist),

(About the Author)
Author  Tanveer Jafri, Former Member of Haryana Sahitya Academy (Shasi Parishad),is a writer & columnist based in Haryana, India.He is related with hundreds of most popular daily news papers, magazines & portals in India and abroad. Jafri, Almost  writes in the field of communal harmony, world peace, anti communalism, anti terrorism, national integration, national & international politics etc.He is a devoted social activist for world peace, unity, integrity & global brotherhood. Thousands articles of the author have been published in different newspapers, websites & news-portals throughout the world. He is also a recipient of so many awards in the field of Communal Harmony & other social activities.
(Email : tanveerjafriamb@gmail.com )

Tanveer Jafri ( columnist),
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*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC

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