साम्प्रदायिक सौहार्द : भारत को फिर आगे बढ़ाएगा

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– तनवीर जाफ़री –

                                           
पिछले दिनों दिल्ली में फैली सुनियोजत हिंसा में अब तक मरने वालों की संख्या 53 बताई जा रही है। 600 से अधिक दर्ज की गयी प्राथमिक सूचना रिपोर्ट्स से यह समझा जा सकता है किकितने बड़े पैमाने पर हिंसा को अंजाम दिया गया। दंगों के अनेक हृदय विदारक क़िस्से सुने जा रहे हैं। कुल मिलाकर दिल्ली हिंसा की तुलना 1984 के सिख विरोधी दंगों तथा 2002 के गुजरात नरसंहार से की जा रही है। दिल्ली हिंसा में बाहर से लाए गए प्रशिक्षित सशस्त्र गुंडों ने अपने चेहरे हेलमेट या कपड़ों से छुपाकर दिल्ली के एक बड़े इलाक़े को ऐसा बना दिया जैसा कि वहां किसी विदेशी सेना ने आक्रमण किया हो। दंगों में पहली बार पुलिस की मौजूदगी में दंगाइयों द्वारा बंदूक़ों,राइफ़लों व पिस्टल आदि पारम्परिक शास्त्रों का भी जमकर प्रयोग किया गया। दिल्ली के उप मुख्य मंत्री मनीष सिसोदिया के अनुसार दिल्ली हिंसा के दौरान 79 घर जलाए गए और 327 दुकानें जला कर राख कर दी गयी हैं।

सैकड़ों कारों व अन्य वाहनों को भी आग के हवाले किया गया। गोकुलपुरी की तो पूरी टायर बाज़ार ही फूँक दी गयी।मुसलमान हों या हिन्दू, जिनके घरों के चिराग़ बुझे हैं उनकी परिजनों की तो दुनिया ही अँधेरी हो चुकी है। एक बुज़र्ग महिला सिर्फ़ इस लिया ज़िंदा जलकर मर गयी क्योंकि वह इतनी कमज़ोर व असहाय थी कि अपनी जान बचाने के लिए अपने जलते मकान से बाहर नहीं निकल सकी। इसके अलावा और तमाम ऐसी बातें हैं जो हिंसा के सुनियोजित विस्तृत घिनौने रूप को दर्शाती हैं। धर्म के रास्ते पर चलने वाला कोई भी हिन्दू,मुसलमान,सिख या ईसाई लाखों लोगों की रोज़ी रोटी छीनने वाले लोगों को, मकानों व दुकानों को जलाने वाले इंसानियत के दुश्मनों को, अमन पसंद दिल्ली के वातावरण को जलती लाशों के धुएं से कलंकित करने वालों को मस्जिद,मंदिर,दरगाह और किसी भी धर्म के धर्मग्रन्थ को क्षति पहुँचाने वालों को न हिन्दू स्वीकार करेगा न ही मुसलमान। किसी का धर्म इस तरह के अमानवीय कृत्यों में संलिप्तता या इसकी साज़िश रचने की इजाज़त नहीं देता।

यदि यह मान लिया जाए कि धर्म विशेष के लोगों से नफ़रत के चलते उनके धर्मस्थान जला दिए गए मगर  उस स्कूल का क्या क़ुसूर था जहाँ सभी धर्मों के बच्चे शिक्षा ग्रहण कर अपना भविष्य संवारते थे ? दिल्ली के उत्तर पूर्वी क्षेत्र के बृजपुरी इलाक़े में स्थित एक निजी स्कूल अब बच्चों की जाली व टूटी हुई बेंचों व डेस्कों तथा पुस्तकालय की जली किताबों का मलवा बन चुका है। ‘अरूण मोर्डन सीनियर सेकेंडरी’ नामक यह स्कूल 32 साल पुराना है। जिस समय  स्कूल में दंगाईयों का तांडव हुआ उस समय स्कूल परिसर में बच्चे मौजूद नहीं थे । कल्पना कीजिये कि यदि उस समय स्कूल में बच्चे होते तो कितना भयावह दृश्य सामने आता ? स्कूल के संचालक भीष्म शर्मा के मुताबिक़ दंगाईयों ने 70 लाख रुपये मूल्य की तो केवल पुस्तकें ही जला डालीं। स्कूल का 30वर्षों का रिकार्ड भी जलकर राख हो गया। एक यही स्कूल नहीं बल्कि ख़बरों के मुताबिक़ दंगाइयों ने अरूण मॉडर्न सीनियर सेकेंडरी स्कूल के अतरिक्त डीपीआर स्कूल, राजधानी पब्लिक स्कूल आदि पर भी आक्रमण किया। यहाँ भी दंगाइयों भवन को क्षति पहुँचाने के साथ साथ पुस्तकालयों को भी आग के हवाले कर दिया।
                                           
आख़िर अतिवादियों को धर्म के वास्तविक,उदारवादी व मानवतावादी स्वरूप से तथा इसी के साथ साथ शिक्षा से ही इतनी नफ़रत क्यों होती है? स्वयं अनपढ़ रहने व अपनी जहालत पर ही ‘गर्व’ करने वाले तालिबानी भी तो नहीं चाहते कि समाज शिक्षित बने ? आख़िर यह कौन सी विश्वव्यापी कट्टरपंथी साम्प्रदायिक शक्तियां हैं जो शिक्षा के द्वीप प्रज्ज्वलित करने के बजाए दुनिया को अन्धविश्वास,दक़ियानूसी सोच,रूढ़ीवादिता के साथ साथ ख़ूंरेज़ी,क़त्ल-ए-आम,हिंसा व आगज़नी के घनघोर अँधेरे में ही धकेलना चाह रही हैं ? यदि 2001 में अफ़ग़ानिस्तान के बामियान प्रान्त में शांति दूत महात्मा बुध की मूर्तियां को तालिबानी आतंकियों द्वारा नष्ट किया गया या पाकिस्तान,सीरिया व इराक़ सहित कई देशों में मस्जिदों,दरगाहों,चर्चों,मंदिरों व गुरद्वारों आदि को नष्ट किया गया या उनपर हमला किया गया तो उसे  कभी भी किसी भी सभ्य समाज ने उचित नहीं ठहराया। याद कीजिये शिक्षा के ही प्रचार प्रसार में लगी मात्र 14 वर्ष की आयु की अफ़ग़ानिस्तानी बालिका मलाला यूसुफ़ज़ई को अक्टूबर 2012 में, इन्हीं अनपढ़ तालिबानों ने सिर्फ़ इसलिए गोली मारी थी कि वह उदारवादी सोच की बालिका थी तथा अफ़ग़ानिस्तान में शिक्षा का उजाला फैलाना चाहती थी। उसके इसी साहस के लिए मलाला को तो नोबल पुरस्कार मिला जबकि तालिबानों को लानत मलामत,बदनामी और रुस्वाई के सिवा कुछ भी हासिल नहीं हुआ। ज़रा सोचिये कि तालिबानों में और दिल्ली में हिंसा का ताण्डव करने वालों में आख़िर क्या अंतर है ? ऐसा तो नहीं हो सकता कि अफ़ग़ानिस्तान में स्कूल व धर्मस्थान ध्वस्त करने वालों को तो तालिबानी राक्षस या मानवता का दुश्मन कहा जाए और भारत में वैसी ही कार्रवाई अंजाम देने वालों को ‘धर्म योद्धा’,राष्ट्रभक्त,भारतीय संस्कृति का रक्षक या राष्ट्र नायक ? मंदिर और मस्जिद तो फिर भी हिन्दुओं या मुसलमानों के कहे जा सकते हैं परन्तु शिक्षा के मंदिर रुपी स्कूल में तो सभी के बच्चों को शिक्षा मिलती है ?
                                         
दिल्ली हिंसा में चाहे कोई हिन्दू मरा हो या मुसलमान आख़िरकार ख़ून तो इंसानियत का ही हुआ है। फिर इंसानों और इंसानियत का ख़ून बहाने वालों को हिन्दू या मुसलमान कैसे मान लिया जाए ?और यदि कोई भी व्यक्ति या संगठन किसी भी हिन्दू या मुसलमान दंगाई के साथ खड़ा दिखाई देता है तो वह भी हिंसा का ही पैरोकार है। बहरहाल इस देश ने अनेक साम्प्रदायिक दंगे देखे हैं। सुनियोजित व सत्ता संरक्षित नरसंहार भी देखे हैं उन सबके बावजूद यह देश पहले भी आगे बढ़ता रहा है। ज़ाहिर सी बात है आग लगाने वालों की वजह से नहीं बल्कि आग बुझाने वालों की वजह से। मारने वालों की वजह से नहीं बल्कि बचाने वालों की वजह से। घर जलाने वालों के कारण नहीं बल्कि पनाह देने वालों के बल पर। निश्चित रूप से मानवता तथा सद्भाव के बल पर कश्मीर और अयोध्या तो क्या हम बड़ी से बड़ी समस्याओं पर क़ाबू पा सकते हैं। गाठ दिनों इसकी ताज़ी मिसाल भी दिल्ली के दंगों से ही निकलकर आई है। सिख समुदाय के लोगों ने जिस तरह दिल्ली में हिंसा पीड़ित लोगों की मदद की, उन्हें पनाह दी तथा उनके लिए लंगर चलाया उसका एहसान चुकाने की ग़रज़ से दिल्ली से दो सौ किलोमीटर दूर सहारनपुर में मुसलमानों ने एक गुरद्वारे की ज़मीन के दस साल पुराने विवाद को समाप्त किया तथा मुसलमानों ने विवादित ज़मीन से अपना दावा वापिस ले लिया। यह सिखों द्वारा दिल्ली में प्रदर्शित सद्भाव का ही नतीजा था। आज एक बार फिर मैं पूरे विश्वास तथा अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर यह कहना चाहूंगा कि भारत का अधिकांश हिन्दू,मुस्लिम सिख,व ईसाई समाज उदारवादी भी है राष्ट्रभक्त भी। विशेषकर देश के अधिकांश हिन्दू समुदाय भी उदारवादी व धर्मनिरपेक्ष है। परन्तु शातिर राजनीतिज्ञों द्वारा धार्मिक भावनाओं को भड़का कर सत्ता द्वारा इस्तेमाल में लाए जाने वाले वह युवा जो जाने अनजाने में अपने भविष्य को चौपट कर रहे हैं वे यदि नानक,रहीम,रसखान,जायसी,फ़रीद,बुल्लेशाह व ख़ुसरो,शिवाजी दाराशिकोह जैसे अनेक लोगों के इतिहास उनकी सोच व फ़िक्र को पढ़ें तो उनकी समझ में यह आसानी से आ जाएगा कि उन्हें भारत की वास्तविक आत्मा से दूर किया जा रहा है और यह भी कि भारतवर्ष में धर्म निरपेक्षता की जड़ें न सिर्फ़ कितनी गहरी हैं बल्कि इन साम्प्रदायिक शक्तियों के वजूद से भी कितनी पुरानी हैं।

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About the Author

Tanveer Jafri

Columnist and Author

Tanveer Jafri, Former Member of Haryana Sahitya Academy (Shasi Parishad),is a writer & columnist based in Haryana, India.He is related with hundreds of most popular daily news papers, magazines & portals in India and abroad. Jafri, Almost writes in the field of communal harmony, world peace, anti communalism, anti terrorism, national integration, national & international politics etc.

He is a devoted social activist for world peace, unity, integrity & global brotherhood. Thousands articles of the author have been published in different newspapers, websites & news-portals throughout the world. He is also recipient of so many awards in the field of Communal Harmony & other social activities.

Contact – : Email – tjafri1@gmail.com 

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