साईं बाबा की लोकप्रियता और तालिबानी फरमान- आस्था लहूलुहान

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sai{ निर्मल रानी } भय-भूख और भ्रष्टाचार से जूझने वाला हमारा देश भारतवर्ष इन दिनों अपनी मूल समस्याओं से निपटने के बजाए फिऱक़ापरस्ती,धार्मिक उन्माद तथा धार्मिक आस्था जैसे व्यक्तिगत् विषयों पर होने वाले हमलों से जूझ रहा है। धार्मिक आस्था एवं विश्वास के संदर्भ में जिस भारतवर्ष को दुनिया का सबसे लचीला,व उदारवादी देश समझा जाता था,आस्था और विश्वास के विषय पर उसी देश पर अब तालिबानी छाया का संकट मंडराने लगा है। भारतवर्ष में जहां कि हज़ारों लेाग स्वयं को संत,गुरू अथवा भगवान का स्वरूप बताकर अपने अनुयाईयों से अपनी पूजा करवाते आ रहे हैं वहीं शिरडी के साईं बाबा की बढ़ती लोकप्रियता तथा उनके प्रति आम लोगों का बढ़ता विश्वास दूसरे संतों के लिए संभवत: ईष्र्या का विषय बन चुका है। शिरडी वाले साईं बाबा के कराड़ों भक्तों को संत समाज द्वारा यह निर्देश दिया जा रहा है कि उन्हें साईं राम,भगवान,संत अथवा गुरु आदि कहने से बाज़ आएं। इतना ही नहीं जिन मंदिरों में साईं बाबा की मूर्तियां स्थापित की गई हैं उन मूर्तियों को भी मंदिरों से हटाने का फरमान संतों द्वारा जारी कर दिया गया है। सवाल यह है कि क्या अब लोगों की व्यक्तिगत् आस्था तथा धार्मिक विश्वास जैसे बेहद निजी विषयों तथा लोगों की भावनाओं से सीधेतौर पर जुड़े  मामलों पर भी दूसरे लोगों का अधिकार होने जा रहा है? किसे मानना है,कैसे मानना है,क्या मानना है तथा कितना मानना है यह बातें अब स्वतंत्र रूप से स्वयं कोई व्यक्ति नहीं बल्कि संत समाज तय करेगा? और यदि ऐसा ही है फिर आिखर संतों के ऐसे फरमानों तथा तालिबानी फरमानों के बीच अंतर ही क्या है?

गौरतलब है कि शिरडी वाले साईं बाबा जिन्हें कि मुस्लिम परिवार का फकीर बताया जा रहा है उन्होंने अपना सारा जीवन प्रेम,सद्भाव,त्याग और तपस्या में व्यतीत किया। शिरडी के स्थानीय लोगों ने उनके कई चमत्कारों के भी दर्शन किए हैं। सबका मालिक एक है का आराधना सूत्र देने वाले साईं बाबा अपने साथ सभी धर्मों व समुदायों के लोगों को रखते थे। अपने जीवन में उन्होंने भी तमाम कष्ट सहे तथा लोगों के विरोध का सामना किया। परंतु अपनी फकीरी की धुन में मस्त साईं बाबा प्रेम व सद्भाव के रास्ते पर पूरा जीवन चलते रहे। जैसाकि हमेशा होता आया है,साईं बाबा की कद्र भी लोगों को उनके परलोक सिधारने के बाद हुई। उनके देहावसान के बाद उनके अनुयाईयों की संख्या निरंतर बढ़ती गई। आज स्थिति यह है कि केवल भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के कई देशों में साईं मंदिर बन चुके हैं। और उनके आस्थावानों की संख्या भी करोड़ों में पहुंच गई है। इतना ही नहीं बल्कि दान तथा चढ़ावा आदि के क्षेत्र में भी शिरडी का साईं मंदिर देश के अन्य प्रसिद्ध मंदिरों की तुलना में नए कीर्तिमान बना रहा है। साईं बाबा की भक्ति में डूबे उनके भक्त साईं बाबा को कभी भगवान का दर्जा दे रहे हैं तो कभी उन्हें साईं राम के नाम से संबोधित करने लग जाते हैं। कोई उन्हें महान संत समझ रहा है तो कोई उन्हें गुरू अथवा देवता का दर्जा दे रहा है।

परंतु देश के हिंदू संत समाज को साईं बाबा की इस कद्र बढ़ती लोकप्रियता कतई पसंद नहीं। हिंदू समाज के एक बड़े वर्ग द्वारा जिसमें कि शंकराचार्य भी शामिल हैं साईं भक्तों को निर्देश दिया जा रहा है कि वे उन्हें संत,देवता,गुरु अथवा भगवान के रूप में हरगिज़ न मानें। जिन मंदिरों में साईं बाबा की मूर्तियां स्थापित की गई हैं उन्हें मंदिरों से हटा दिया जाए। इतना ही नहीं बल्कि साईं भक्तों का साई बाबा से मोह भंग करने के लिए उनपर व्यक्तिगत् हमले भी किए जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि साईं बाबा मुसलमान थे। अल्लाह को मानते थे तथा मांसाहारी थे। साईं बाबा पर हिंदू संत समाज द्वारा उठने वाली उंगलियों से ज़ाहिर है साईं भक्त बेहद निराश व दु:खी हैं। दूसरी ओर साईं भक्त इस प्रकार के हस्तक्षेप को लोगों की निजी आस्था, विश्वास तथा श्रद्धा पर आक्रमण मान रहे हैं। ऐसे में सवाल यह है कि क्या हिंदू संत समाज को यह अधिकार प्राप्त है कि वह किसी की धार्मिक आस्था या विश्वास जैसे अत्यंत निजी मामलों में दखलअंदाज़ी करे? क्या इन संतों को यह हक है कि वे साईं बाबा अथवा अन्य आराध्य संतों,देवताओं या भगवानों की आलोचना कर अथवा निंदा कर उनके भक्तों की भावनाओं को आहत करें?

इस विषय पर चिंतन करने से पूर्व हमें शिरडी वाले साईं बाबा की तुलना आज के उन संतों से करने की भी ज़रूरत है जो साईं बाबा की साधुता,उनके त्याग व तपस्या पर उंगली उठा रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि साईं बाबा ने अपने वास्तविक त्याग,महानता,तपस्या,सादगी भरे रहन-सहन,मोह-माया का त्याग,सद्भाव, सर्वधर्म व सामाजिक एकता जैसी बातों से दुनिया के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत किया। न तो वे अपने अनुयाईयों व भक्तों से धन-संपत्ति की इच्छा अथवा मांग करते थे। न ही सोने-चांदी के सिंहासन की इच्छा रखते थे। न ही अहंकार स्वरूप लोगों से अपने चरण छूने अथवा अपनी पूजा करवाने की लालसा रखते थे। वे धार्मिक विषयों पर भी किसी विशेष धर्म के प्रति पूर्वाग्रही नहीं थे। गोया कहा जा सकता है कि उनमें प्रत्येक वह विशेषता थी जोकि एक वास्तविक संत में होनी चाहिए। उनका अपना जीवन चरित्र ऐसा था जिसपर साधू-संत व फकीर जैसे शब्द भी स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर सकते हैं। अब ठीक इसके विपरीत इसी भारतीय समाज में उन तथाकथित संतों,गुरुओं व स्वयंभू भगवानों पर भी नज़र डालिए। कहने को तो ऐसे लोग स्वयं को साधू महात्मा तथा भगवान का प्रतिनिधि यहां तक कि कई तो अपने-आप को भगवान का अवतार बताने से भी नहीं हिचकिचाते। तन पर बेशकीमती कपड़े, सोने व चांदी के सिंहासन, शानदार िकलारूपी भवनों में निवास, सेवादारों की लंबी कतार,मुंह से हर समय निकलती अहंकार व गुस्से की भाषा,हर समय माया मोह का सिलसिला, अपनी संपत्ति व जायदाद का निरंतर विस्तार, अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए मुकद्दमेबाजि़यां तथा ज़मीन-जायदाद हड़पने के खेल,अपने भक्तों को अपने चित्र देकर उन्हें भगवान के चित्रों या मूर्तियों के साथ मंदिरों में स्थापित कराने की उनकी लालसा, यही तो है हमारे स्वयंभू संतों का वास्तविक रूप? और तो और अब तो इन्हीें में से कई कथित संतों ने अपना नाम बलात्कारियों व अय्याशों की सूची में भी दर्ज करा लिया है। और ऐसे ही कथित संतों की वजह से पूरे के  पूरे संत समाज का सिर नीचे हुआ है।

परंतु बड़े आश्चर्य का विषय है कि संत समाज द्वारा ऐसे दुश्चरित्र,पाखंडी,धनलोभी तथा स्वयं को भगवान कहलाने की गहन इच्छा रखने वाले तथाकथित संतों का तो इस हद तक विरोध नहीं किया गया जबकि साईं बाबा जैसे उस आदर्श संत फकीर को अपने निशाने पर लिया गया जो न केवल संत समाज के लिए बल्कि भारत वर्ष तथा मानवता के लिए भी एक आदर्श प्रस्तुत करते हैं। उनपर मांसाहाराी हेाने का भी आरोप लगाया जा रहा है। जबकि हिंदू धर्म में भी बड़े पैमाने पर न केवल मांसाहार प्रचलित है बल्कि कई हिंदू धर्मस्थलों पर पशुओं की बलि भी हिंदू धर्म के अनुयाईयों द्वारा ही चढ़ाई जाती है। जहां तक साईं बाबा को मुसलमान के रूप में प्रचारित करने का विषय है तो हिंदू संत समाज स्वयं इस बात को स्वीकार करता है कि साधू वेश में आने के बाद किसी व्यक्ति का कोई धर्म अथवा जाति नहीं रह जाती। गोया साधू मात्र साधू तथा इंसान भर होता है। निश्चित रूप से साईं बाबा का व्यक्तित्व ऐसा ही था। भले ही वे मुस्लिम परिवार में पैदा हुए हों। परंतु उन्होंने केवल मुसलमानों या इस्लाम धर्म के कल्याण मात्र के लिए कोई काम नहीं किया। यदि ऐसा होता तो वे इस्लाम धर्म के धर्मगुरू के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त करते। परंतु उन्होंने समस्त मानवजाति को ‘सब का मालिक एक है’ का वह मंत्र दिया जिससे किसी भी धर्म का कोई भी व्यक्ति इंकार नहीं कर सकता। उन्होंने अपने त्याग,तपस्या व सादगी से मानव जाति के समक्ष विशेषकर आज के आधुनिक साधू-संतों व फकीरों के सामने एक आदर्श पेश किया।

ऐसे में बजाए इसके कि उस महान फकीर को देश का साधू समाज अपने लिए एक आदर्श संत के रूप में स्वीकार करे उल्टे उनकी निंदा करना या उनकी बढ़ती लोकप्रियता से घबराकर उनके चरित्र तथा जीवनशैली पर उंगलियां उठाना कतई उचित नहीं। साईं बाबा हिंदू परिवार में जन्मे थे या मुस्लिम परिवार में,किसी संत या फकीर के लिए यह बात बेमानी भी है और इस बात के अभी कोई पुख्ता सुबूत भी हासिल नहीं हैं। परंतु संत कबीर,ख्वाज़ा मोईनोदीन चिश्ती व निज़ामुद्दीन औलिया,बाबा फरीद व बुलेशाह जैसे अनेक संत तो प्रमाणिक रूप से मुसिलम परिवारों में ही पैदा हुए। परंतु इन संतों की वाणी,इनके त्याग,इनके द्वारा मानवजाति को प्रेम व सद्भाव के पक्ष में दिए गए उपदेशों ने सभी धर्मों व समुदायों के बीच इनके अनुयायी पैदा कर दिए हैं। लिहाज़ा यह कहा जा सकता है कि कोई भी वास्तविक साधू अथवा संत या फकीर किसी भी धर्म व जाति के साथ कोई पूर्वाग्रह नहीं रख सकता। वास्तविक संत अथवा फकीर मानवता के समक्ष अपनी कारगुज़ारियों के दम पर ही आदर्श पेश करता है। ऐसे संतों के विरुद्ध किसी भी प्रकार का तालिबानी फरामान जारी करने से इनके भक्तों की आसथा लहूलुहान होना स्वाभाविक है।

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nirmal raniनिर्मल रानी

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं.

Nirmal Rani 1622/11 Mahavir Nagar Ambala City134002 Haryana phone-09729229728

 

 

*Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely her own and do not necessarily reflect the views of INVC.

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