सांप्रदायिक हिंसा विरोधी कानून का औचित्य

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unnamed{ तनवीर जाफरी  }
सांप्रदायिक हिंसा विरोधी विधेयक संसद में लाने तथा इसे संसद में पास कराकर कानून की शक्ल दिए जाने की कवायद हालांकि सन् 2005 से चल रही है। परंतु मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी द्वारा इस बिल का विरोध किए जाने के चलते इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था। पिछले दिनों मुज़्ज़$फरनगर व आसपास के क्षेत्रों में फैली सांप्रदायिक हिंसा व दंगों के बाद एक बार फिर न केवल इस विधेयक को संसद में मंज़ूूरी हेतु लाए जाने का दबाव सरकार पर बढऩे लगा तथा संयुक्त प्रगतिशील सरकार इस विषय पर गंभीर नज़र आने लगी। परिणामस्वरूप पिछले दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुई केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में इस विधेयक को संसद में पेश किए जाने की मंज़ूरी दे दी गई। हालांकि भारतीय जनता पार्टी द्वारा इस बिल के कई बिंदुओं पर आपत्ति उठाए जाने के बाद इसके कई प्रावधानों में फेरबदल व संशोधन भी किए जा चुके हैं। विपक्ष को आपत्तिजनक नज़र आने वाले कई प्रावधान इस विधेयक से हटा भी दिए गए हैं। इसके बावजूद भाजपाModi_Rajna का कहना है कि इस विधेयक के $कानून की शक्ल अ$िख्तयार करने के बाद देश में सांप्रदायिकता नियंत्रित होने के बजाए और बढ़ेगी तथा इससे समाज में ध्रुवीकरण हो सकता है। जबकि कांग्रेस पार्टी देश में अब तक हुए सांप्रदायिक दंगों की जांच-पड़ताल तथा उससे संबंधित रिपोर्ट के अध्ययन के बाद इस विधेयक को संसद में पारित कराया जाना ज़रूरी समझती है। सवाल यह है कि क्या देश के सभी राजनैतिक दलों को सांप्रदायिकता पर नियंत्रण करने तथा इसे रोकने व इसके लिए जि़म्मेदार लोगों को सज़ा दिलाए जाने के लिए प्रतिबद्ध नहीं होना चाहिए? क्या भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में कलंक रूपी सांप्रदायिकता को समाप्त किया जाना ज़रूरी नहीं है?
सांप्रदायिक हिंसा विरोधी विधेयक में जहां अन्य और कई प्रकार के बिंदु तथा प्रावधान हैं वहीं इसमें केंद्र व राज्य स्तर पर सांप्रदायिक सौहाद्र्र,न्याय तथा मुआवज़ा प्राधिकरण बनाने का भी प्रस्ताव है। इस प्राधिकरण अथवा अथॉरिटी को सिविल कोड के अधिकार प्राप्त होंगे। इस प्राधिकरण(अथॉरिटी) के पास दंगों की, दंगा प्रभावित क्षेत्रों व दंगा पीडि़तों अथवा दंगा स्थल की जांच के लिए अपनी टीम होगी। सांप्रदायिक हिंसा की रोकथाम के लिए केंद्र अथवा राज्य सरकार किसी भी एजेंसी की मदद ले सकेंगे। यह अथॉरिटी अथवा प्राधिकरण सांप्रदायिक हिंसा की जांच हेतु उच्च न्यायालय के किसी न्यायधीश की a3d6adabe6fca942d18f85d86e59544fअगुवाई में जांच कराए जाने का आदेश भी दे सकती है। प्रस्तावित विधेयक में हिंसा से प्रभावित व पीडि़त लोगों को जल्द से जल्द मुआवज़ा दिए जाने की भी व्यवस्था है। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने विपक्ष की आपत्ति के बाद जिन प्रावधानों में परिवर्तन किया है उन बदले हुए प्रावधानों के मुताबि$क केंद्र अब राज्य के $कानून व्यवस्था संबंधी मामलों में सीधे तौर पर द$खल नहीं दे पाएगा। अब संशोधित विधेयक के अनुसार केंद्र सरकार राज्य के कहने के बाद ही अर्धसैनिक बलों को भेज सकेगा। और इन सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान जिसका उल्लेख इस विधेयक में किया गया है वह यह है कि  सांप्रदायिक दंगों व हिंसा के लिए ब्यूरोक्रेसी की जि़म्मेदारी को और अधिक सुनिश्चित किया जाना। अर्थात् यदि कोई उच्चाधिकारी अपनी जि़म्मेदारियों का सही तरी$के से निर्वहन नहीं कर पाता तो उसके विरुद्ध $कानूनी कार्रवाई की जाएगी।
हमारे देश में सांप्रदायिक व लक्षित दंगों व ऐसी हिंसा का इतिहास का$फी पुराना है। देश में पहली संाप्रदायिक हिंसा 1892 में हुई थी। उस समय से लेकर अब तक कश्मीर से कन्याकुमारी तक होने वाली सांप्रदायिक हिंसा में यही देखा जा रहा है कि प्राय: अल्पसंख्यक समाज के लोगों को बहुसंख्य समाज के लोगों की हिंसा का सामना करना पड़ता है। यह भी देखा जाता है कि ऐसे दंगों में कई आलाधिकारी अपनी पक्षपात पूर्ण तथा पूर्वाग्रही भूमिका अदा करते हैं। और इन सबसे अ$फसोसनाक बात यह है कि इन दंगों में विभिन्न दलों से संबंध रखने वाले राजनेता तथाा सत्तारूढ़ सरकारें अपने राजनैतिक न$फे-नु$कसान को मद्देनज़र रखते हुए प्रशासन को व आलाधिकारियों को निर्देश जारी22rahul-gandhi11 करते हैं तथा अपनी सोच व नीति के अनुसार अधिकारियों को दंगों व दंगाईयों से निपटने का निर्देश देते हैं। परिणामस्वरूप कश्मीर में जब अल्पसंख्यक कश्मीरी पंडितों पर ज़ुल्म ढाए जाते हैं तो वहां का राज्य प्रशासन व प्रशासनिक अधिकारी तथा पुलिस बहुसंख्यकों के तुष्टिकरण तथा उनके भयवश दंगाईयों व हिंसा फैलाने वालों के विरुद्ध स$ख्त कार्रवाई नहीं कर पाते। और इसी का परिणाम है कि आज लाखों कश्मीरी पंडित अपनी जन्मस्थली को छोडक़र अन्य स्थानों पर अभी तक शरणार्थी बनने को मजबूर हैं और अभी तक उनका पुनर्वास नहीं हो पा रहा है। ऐसी ही स्थिति 1984 में भी उस समय पैदा हुई थी जबकि देश के राज्यों में सिख विरोधी दंगे भडक़ उठे थे। इन दंगों में भी राजनेताओं व प्रशासन की मिलीभगत का $खमियाज़ा अल्पसंख्यक सिख समुदाय का भुगतना पड़ा था। और ऐसी ही स्थिति मुस्लिम समुदाय के लोगों के साथ अक्सर बनती रहती है। गुजरात के 2002 के दंगे हों या 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद देश में हुई सांप्रदायिक हिंसा अथवा मुरादाबाद,मेरठ,इलाहाबाद तथा भागलपुर जैसी जगहों पर होने वाले दंगे या फिर उड़ीसा के कंधमाल में इसाई समुदाय के विरुद्ध भडक़ी हिंसा अथवा आसाम में अल्पसंख्यंकों को निशाना बनाया जाना,इन सभी जगहों पर बहुसंख्य लोगों के तांडव तथा इसमें प्रशासन की मिलीभगत अथवा चुप्पी को सा$फतौर पर देखा जा सकता है।
09TH_UDDHAV_THACKER_918800eऐसे में क्या यह ज़रूरी नहीं कि देश के संविधान में उल्लिखित प्रावधानों के मद्देनज़र हम अपने देश में रहने वाले अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को संरक्षण देने तथा उनके जान व माल की हि$फाज़त सुनिश्चित करने के उपाय करें? एक और ज़रूरी सवाल यहां यह भी है कि जब कभी देश में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा तथा उनके अधिकारों या संरक्षण की बात की जाती है तो केवल भारतीय जनता पार्टी तथा उसके सहयोगी संगठनों को ही सबसे अधिक कष्ट क्यों होता है? भारतीय जनता पार्टी की इस विधेयक को लेकर तथाकथित चिंताएं क्या इस ओर इशारा नहीं करतीं कि भाजपा देश में रह रहे अल्पसंख्यकों को सुरक्षा व संरक्षण प्रदान करने में कोई दिलचस्पी नहीं रखती? और ऐसी ही स्थिति पक्षपातपूर्ण तथा पूर्वाग्रही स्थिति कही जाती है। क्या यह भाजपा के सांप्रदायिक चरित्र का प्रमाण नहीं है? क्या कारण है कि अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में जिस भाजपा के साथ 24 राजनैतिक दल वाजपेयी के नेतृत्व वाले गठबंधन में शामिल थे आज दो दलों के सिवा कोई भी उनके साथ नहीं है? आ$िखर क्यों? भाजपा के नेता प्रतिदिन कई-कई बार इस बात को दोहराते रहते हैं कि देश में सबसे अधिक दंगे कांग्रेस के शासनकाल में हुए इसलिए कांग्रेस पार्टी को सांप्रदायिक तथा अल्पसंख्यक विरोधी पार्टी समझा जाना चाहिए। परंतु भाजपाई यह आंकड़ा कभी पेश नहीं करते कि देश में कहीं भी होने वाले सांप्रदायिक दंगों में अथवा सांप्रदायिक हिंसा में सबसे अधिक गिर$फ्तारियां किस पार्टी व किस संगठन के लोगों की होती हैं? माया कोडनानी जैसी दंगाई महिला जोकि आज जेल में आजीवन कारावास की सज़ा भुगत रही है उसे 2002 के गुजरात दंगों में शामिल होने तथा सामूहिक हत्याकांड करवाने हेतु पुरस्कार स्वरूप मंत्री पद कौन सी पार्टी की सरकार देती है? यहां तक कि अभी पिछले दिनों मुज़्ज़$फरनगर में सांप्रदायिक हिंसा फैलाने में आरोपित भाजपा के दो विधायकों को आगरा में किस पार्टी ने सम्मानित किया? कितना हास्यासपद विषय है कि देश की धर्मनिरपेक्षता तथा भारतीय संविधान की धज्जियां उड़ाने वाले लोग तथा दल आज सांप्रदायिक हिंसा विरोधी विधेयक को लेकर यह आपत्ति दर्ज करते सुनाई दे रहे हैं कि इस $कानून से देश का संघीय ढांचा बिखर जाएगा। 6 दिसंबर के गुनहगारों तथा गुजरात दंगों को क्रिया की प्रतिक्रया बताए जाने वालों तथा दंगाईयों को पुरस्कृत व सम्मानित करने वालों पर ऐसी बातें $कतई शोभा नहीं देती।
मुझे याद है कि एक बार महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अब्दुल रहमान अंतुले ने मुझसे वार्तालाप के दौरान स्पष्ट रूप से यह बात कही थी कि सांप्रदायिक हिंसा अथवा दंगों को रोकना अथवा न होने देना पुलिस एवं प्रशासन के बाएं हाथ का खेल है। उन्होंने बताया था कि मुख्यमंत्री बनते ही सर्वप्रथम उन्होंने पूरे महाराष्ट्र राज्य के जि़लाधिकारियों व पुलिस अधीक्षकों को प्रथम निर्देश यही दिया था कि राज्य में कहीं सांप्रदायिक हिंसा अथवा दंगे नहीं होने चाहिएं। और यदि हुए तो स्थानीय अधिकारी इसके दोषी होंगे। परिणामस्वरूप अंतुले के शासनकाल में राज्य में एक भी दंगा नहीं हुआ। वास्तव में कोई भी जि़म्मेदार अधिकारी मात्र दो-चार घंटों में ही बड़ी से बड़ी हिंसा को नियंत्रित कर सकता है। पंरतु दरअसल प्रशासन के लोग अपने राजनैतिक आ$काओं की मजऱ्ी व उसके निर्देश एवं उनकी $खुशी के लिए काम करना बेहतर समझते हैं। आज आप किसी भी पूर्व अथवा वर्तमान ईमानदार अधिकारी से बात करें तो वह यही कहता मिलेगा कि दंगे भडक़ने तथा फैलने से लेकर इसके अनियंत्रित रहने तक में नेताओं की ही प्रमुख M_Id_53269_A_R_Antulayभूमिका होती है। और यदि नेता इनमें द$खल न दें तो सांप्रदायिक हिंसा शुरु ही नहीं हो सकती। आज गुजरात में तमाम अधिकारी या तो जेल की सला$खों के पीछे हैं या फिर अपनी सा$फगोई व कर्तव्यनिष्ठा का परिणाम भुगतते हुए निलंबित हैं अथवा मु$कद्दमों का सामना कर रहे हैं। यह सब राजनैतिक द$खलअंदाज़ी तथा पक्षपातपूर्ण शासकीय रवैयों का ही परिणाम है। वास्तव में ऐसी स्थितियां संघीय ढांचे के लिए $खतरा हैं न कि सांप्रदायिक हिंसा विरोधी $कानून। लिहाज़ा देश में अमन-चैन व भाईचारा $कायम रखने के लिए इस विधेयक को $कानून की शक्ल देना बेहद ज़रूरी है न कि इस विधेयक को लेकर भी लोगों का गुमराह करना व सांप्रदायिकता की राजनीति करना।

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Tanveer-Jafri11**Tanveer Jafri ( columnist),(About the Author) Author Tanveer Jafri, Former Member of Haryana Sahitya Academy (Shasi Parishad),is a writer & columnist based in Haryana, India.He is related with hundreds of most popular daily news papers, magazines & portals in India and abroad. Jafri, Almost writes in the field of communal harmony, world peace, anti communalism, anti terrorism, national integration, national & international politics etc. He is a devoted social activist for world peace, unity, integrity & global brotherhood. Thousands articles of the author have been published in different newspapers, websites & news-portals throughout the world. He is also a recipient of so many awards in the field of Communal Harmony & other social activities.

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*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC.

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