सांप्रदायिक दंगे – इस हमाम में सब नंगे हैं *

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sonia-gandhi1,Articles about Communal Violence{ वसीम अकरम त्यागी ** } सांप्रदायिक दंगो को रोकने के लिये रोकने के लिये सरकार प्रथम प्रधानमंत्री के कार्यकाल से ही कदम उठा रही है, मगर वे कदम इतने ठोस हैं कि वे उठ ही नहीं पाते, एक तरफ सरकार सांप्रदायिकता को जहर को मानती है दूसरी और इसे रोकने संबंधी बिल भी पारित नहीं करा पाती. जबकि हम उस अभागे देश की पैदावार हैं जिसकी आजादी की सुबह ही सांप्रदायिक दंगों के साथ हुई थी। हालांकी आजादी के बाद से भारत में पहला दंगा 1961 में जबलपुर में हुआ, तबसे दंगों का सिलसिला अनवरत जारी है. 1980 के दशक में सांप्रदायिक हिंसा में ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी हुई. विभिन्न समुदायों के बीच शांति एवं सौहार्द स्थापित करने की राह में सांप्रदायिक दंगे बहुत बड़ा रोड़ा बन गए हैं. सबसे भयावह थी सिख Articles about Communal Violence , narender modiविरोधी हिंसा (1984), बाबरी कांड के बाद मुंबई में भड़की मुस्लिम विरोधी हिंसा (1992-93) और गुजरात क़त्लेआम (2002). ईसाई विरोधी हिंसा की शुरुआत छुटपुट घटनाओं से हुई, परंतु पास्टर ग्राहम स्टेंस की हत्या (1999) और कंधमाल हिंसा (2008) से यह स्पष्ट हो गया कि मुसलमानों के साथ-साथ ईसाई भी सांप्रदायिक तत्वों के निशाने पर हैं. सांप्रदायिक हिंसा के नासूर से देश को मुक्ति दिलाने के लिए यूपीए सरकार ने एक बिल पेश किया, जो आज तक लटका ही पड़ा है उसे तथाकथित सैक्यूलर पार्टियां पारित ही नहीं करा पाई।
Articles about Communal Violence ,mulayam singh yadav
इन पार्टियों का कहना है कि भाजपा इस बिल का विरोध कर रही है, लेकिन इनकी हिम्मत नहीं हो पाती की उस बिल के लिये संसद में प्रस्ताव लाया जाये ताकी वोटिंग के समय ये तो पता चल सके कि कौन सैक्यूलर है और कौन संप्रदायिक ? क्योंकि अभी तक सांप्रदायिक पार्टी होने का स्टीकर केवल भाजपा, शिवसेना पर लगता रहा है। अगर वोटिंग हो जाय़ेगी तो सबके चेहरे खुद ब खुद ही सामने आ जायेंगे। इस पर कांग्रेस का वह ढुलमुल रवैय्या भी सामने आजायेगा जो वह अल्पसंख्यकों प्रति अपनाती आयी है। अल्पसंख्यकों खास तौर से मुस्लिमों से जुड़ा कोई भी मामला हो कांग्रेस उसे केवल भाजपा के डर से ही ठंडे बस्ते में डालती आई है, और वे सियासी पार्टियां जो अलग अलग राज्यों में मुस्लिम हितेषी होने का कत्थक करती हैं कांग्रेस की इस साजिश को अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन देती रहीं है, क्या बिहार में नितीश मुस्लिम हितेषी होने का नाटक नहीं कर रहे हैं, क्योंकि अगर वे नाटक न करते तो उनकी पार्टी संसद में खामोश न रहती , क्या ये सही नहीं है कि ऐसे मुद्दों पर इस तरह की खामोशी दंगाईयों खास तौर से सांप्रदायिक ताकतों को बढ़ावा देती हैं ? क्या ये संघ परिवार को मजबूत बनाने वाली नरम सांप्रदायिकता नहीं है ? खैर बिल की बातों मसौदे पर एक हल्कि सी नजर डालते हैं जिसकी वजह से हो हल्ला मचा है सामाजिक कार्यकर्ता रामपुनियानी कहते हैं कि इस बिल का लक्ष्य है सुनियोजित एवं सामूहिक हिंसा पर लगाम लगाना. बिल का महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि इसमें उन अधिकारियों की ज़िम्मेदारी तय की गई है, जो लापरवाही के चलते या जानबूझ कर हिंसा को नहीं रोकते. कई बार वे राजनीतिक दबाव के चलते ऐसा करते हैं. डॉ. राय के अनुसार, प्रशासन की मिलीभगत के बग़ैर कोई भी दंगा 48 घंटों से अधिक नहीं चल सकता. बिल में उन राजनीतिज्ञों को कठघरे में खड़ा करने की व्यवस्था है, जिनके इशारे पर और संरक्षण में असामाजिक तत्व सड़कों पर तांडव करते हैं. जो राजनीतिक ताक़तें इस सुनियोजित हिंसा के पीछे होती हैं, उन्हें क़ानून की गिरफ़्त में लाने के लिए भी इस बिल में प्रावधान है. इसमें कमज़ोर समूहों के विरुद्ध घृणा फैलाने और उनका सामाजिक-आर्थिक बहिष्कार करने वालों से निपटने की व्यवस्था भी है.Articles about Communal Violence ,mayavati

यही वजह है कि भाजपा सहित संघ परिवार के बाल-बच्चों को बिल का मसौदा पढ़ते ही सांप क्यों सूंघ गया है. यह बिल उनके हिंदू राष्ट्र के निर्माण के सपने की राह का रोड़ा बन जाएगा. बिल सांप्रदायिक दंगों पर प्रभावी नियंत्रण करने में सहायक सिद्ध होगा. यह एक ऐसे बहुवादी भारत के निर्माण में मदद करेगा, जिसमें सभी समुदायों के लोग इज़्ज़त से जी सकें. ऐसा होना भाजपा को अपने हितों के ख़िला़फ लगता है. बिल इस बात की स्वीकारोक्ति है कि सांप्रदायिक हिंसा हमारी राजनीति को संकीर्णता एवं अराजकता की ओर ले जा रही है और राज्य का कर्तव्य है कि वह हमारी राजनीति की दिशा सकारात्मकता, उदारता एवं सहिष्णुता की ओर मोड़े. राज्य की ज़िम्मेदारी है कि वह सुनिश्चित करे कि हिंसा पीड़ितों का पुनर्वास हो, उन्हें नुक़सान का मुआवज़ा मिले और हिंसा के बाद उनका सामाजिक-आर्थिक बहिष्कार न हो. इस संदर्भ में केंद्र सरकार की भूमिका महत्वपूर्ण है. लेकिन अफसोस वह ही इस पर अपने सहयोगी दलों के साथ ढुलमुल रवैय्या अख्तयार किये है। केवल अकेली भाजपा को हो इसका विरोधी दर्शाकर अगले चुनाव में फिर से अल्पसंख्यकों का वोट हासिल करने के लिये इस तरह का नाटक किया जा रहा है जबकि सांप्रदायिक हिंसा के बाद तमाम सियासी पार्टियों इन हिंसाओं का लाभ अपने अपने हित के लिये करती हैं एक पार्टी दंगे में मारे गये लूटे गये समुदाय के साथ आकर खड़ी हो जाती है और दूसरे गैर सैक्यूलर पार्टी के साथ चले जाते हैं। यानी की दोनों तरह से नुकसान में जनता ही रहती है। अगर इस तरह की सोच से उभरा नहीं गया तो फिर तो सांप्रदायिक दंगा रोधी कानून के अस्तित्व में आने की आस करना अपने आपको धोखे में रखना है।Articles about Communal Violence ,manmohan singh जिसकी एक सबूत यह भी है कि तमाम विरोध के बावजूद एफडीआई, पारित हो जाता है और सिर्फ एक सियासी कथित सांप्रदायिक पार्टी के विरोध की वजह से देश हित समाज हित, में आने वाले बिल को ठंडे बस्ते में डालकर टालकर टाला जा रहा है प्रजातंत्र के नाम पर किस तरह जनता को छला जा रहा है ये अब किसी से छिपा नहीं है। एक तरफ भाजपा दुष्प्रचार कर रही है कि विधेयक में धार्मिक अल्पसंख्यकों द्वारा बहुसंख्यकों के विरुद्ध हिंसा की रोकथाम की व्यवस्था नहीं है. विधेयक का मुख्य लक्ष्य सामूहिक हिंसा को रोकना है, जिसके शिकार अधिकांश मामलों में अल्पसंख्यक होते हैं. पुलिस, नौकरशाही एवं राज्य तंत्र के पूर्वाग्रहों के शिकार भी अल्पसंख्यक होते हैं. ये हर कोई जानता है और वे भी जानते हैं जो इसका विरोध कर रहे हैं, साथ ही वे नरम संप्रदायिक पार्टी भी जानती हैं सैक्यूलर होने का कत्थक करती हैं, लेकिन सबकी अपनी अपनी मजबूरी है किसी की हिंदुत्तवाद की तो किसी वोट बैंक की, अब ऐसे में वे रिक्शा चालक, सब्जी विक्रेता, पान की दुकान लगाने वाले, मजदूरी करने वाले की फिक्र कौन करे ? ये एक बड़ा सवाल देश की सांप्रदायिक हो चुकी व्यवस्था के सामने है जिसका जवाब मौजूदा राजनितिक परिवेश में मिल पाना असंभव सा लग रहा है, अगर यहां पर किसी के द्वारा कहा गया यह वाक्य उधार ले लिया जाये तो कोई अतिश्योक्ती न होगी, कि इस हमाम में सबके सब नंगे हैं, और ढुलमुल रवैय्या अख्तियार किये हुऐ हैं वर्ना क्या मजाल थी कि 65 साल के हो चुके इस लोकतंत्र में 16 हजार से अधिक दंगे हो जाये, और उनकी रोकथाम  के लिये कानून तक न बन पाये।

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वसीम अकरम त्यागी **
युवा पत्रकार

09927972718
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*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC.

1 COMMENT

  1. Kya aap apne aap ko ek Indian , Muslim se pahle mante ho aapki kaum ka mene musalmano ka Pakistan prem dekha h or India k liye nafrat pahle unko to sudharo

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