सांप्रदायिक और लक्षित हिंसा विरोधी कानून क्यों?

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communalism{ निर्मल रानी ** }
भारत ही नहीं लगभग पूरा विश्व कभी न कभी सांप्रदायिक, जातीय,भाषाई अथवा वर्गवाद संबंधी हिंसा का शिकार होता रहा है। और यह सिलसिला अभी तक जारी है। पूरे विश्व में घटने वाली इस प्रकार की वर्ग भेदपूर्ण हिंसक घटनाओं में प्राय: यह देखा गया है कि अधिकांशत: बहुसंख्य समुदाय अथवा वर्ग से संबंध रखने वाले लोगों द्वारा ही अल्पसंख्यक समाज अथवा समुदाय के लोगों को जान व माल का नु$कसान पहुंचाया जाता रहा है। इतना ही नहीं बल्कि ऐसी घटनाओं में यह भी देखा गया है कि आमतौर पर सरकार व प्रशासन भी प्राय: हिंसक बहुसंख्य समाज के विरुद्ध किसी प्रकार की स$ख्त कार्रवाई करने अथवा ऐसी हिंसा को रोकने में नाकाम दिखाई दिया। उदाहरण के तौर पर पड़ोसी देशों पाकिस्तान व बंगलादेश में रहने वाले हिंदू,सिख,शिया व अहमदिया,इसाई व बौद्ध धर्म के अनुयाईयों को समय-समय पर वहां के बहुसंख्यक कट्टरपंथी मुसलमानों की हिंसा का शिकार होना पड़ता है। पाक सरकार इसे रोकने में असहाय दिखाई देती है। पिछले दिनों बर्मा से समाचार प्राप्त हुए कि किस प्रकार बहुसंख्य बौद्धों द्वारा वहां के रोहंगिया मुस्लिम समुदाय के लोगों को हिंसा का शिकार बनाया गया। श्रीलंका,अ$फ$गानिस्तान तथा कई अमेरिकी व अफ्ऱीकी देश इसी प्रकार की हिंसा का शिकार रह चुके हैं जिसमें कि स्थानीय बहुसंख्यकों द्वारा वहां के अल्पसंख्यकों पर ज़ुल्म ढाए गए और सरकार व प्रशासन या तो बहुसंख्य समाज के पक्ष में खड़ा दिखाई दिया या फिर मूकदर्शक बना रहकर स्थानीय अल्पसंख्यकों को ज़ुल्म सहने के लिए मजबूर देखता रहा।
हमारा देश भी कभी-कभी ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं से रूबरू होता रहा है। कभी कश्मीर घाटी के बहुसंख्य मुस्लिम समाज तथा अलगाववादी शक्तियों की हिंसा का निशाना घाटी के अल्पसंख्यक हिंदुओं व सिखों को बनना पड़ता है तो कभी कई पूर्वाेत्तर राज्यों में बहुसंख्य इसाई व इनसे संबद्ध आतंकी स्थानीय अल्पसंख्यक हिंदू समाज को अपनी हिंसा का शिकार बनाते हैं। कभी उड़ीसा के कंधमाल जैसी घटना में बहुसंख्य हिंदू समुदाय द्वारा अल्पसंख्यक ईसाईयों को जान व माल की भारी क्षति पहुंचाई जाती है तो कभी  दिल्ली सहित देश के कई स्थानों पर 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों के दौरान बहुसंख्य हिंदू समुदाय द्वारा अल्पसंख्यक सिखों को निशाना बनाया जाता है। कभी गुजरात,भागलपुर,मेरठ व मलियाना जैसी सांप्रदायिक हिंसक घटनाओं में अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय के लोग बहुसंख्य समाज से संबंध रखने वाले सांप्रदायिक लोगों की हिंसा का शिकार होते दिखाई देते हैं। उपरोक्त सभी सांप्रदायिक दंगों अथवा सांप्रदायिक हिंसा में एक बात सा$फतौर पर देखी गई है कि प्रशासन की ओर से या तो इस हिंसा से निपटने की ईमानदाराना कोशिश नहीं की जाती या फिर परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से प्रशासन स्वयं ऐसी हिंसा को अपनी मूक सहमति प्रदान करता है। परिणामस्वरूप दंगाई हिंसा का ऐसा तांडव दिखाते हैं गोया सरकार,पुलिस अथवा प्रशासन नाम की कोई चीज़ ही न हो और सडक़ों पर केवल दंगाईयों का ही राज हो। कश्मीर,पंजाब,गुजरात,दिल्ली(सिख नरसंहार),उड़ीसा से लेकर पूर्वोत्तर तक यह नज़ारा देखा जाता रहा है।
प्रश्र यह है कि यदि इस प्रकार के सांप्रदायिक हिंसापूर्ण तांडव को रोकने के उपाय किए जाएं तो इसमें आ$िखर क्या हर्ज है? कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद द्वारा इस विषय पर एक विधेयक की रूपरेखा तैयार की गई है जिसे सांप्रदायिक और लक्षित हिंसा विधेयक का नाम दिया गया है। अपने 2004 के चुनाव घोषणा पत्र में कांग्रेस पार्टी ने देश के धार्मिक,जातीय,अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजातिय व भाषाई अल्पसंख्यकों पर होने वाले ज़ुल्म को रोकने के लिए $कानून बनाने का वादा किया था। उसी के तहत इस विधेयक का मसौदा देश के जाने-माने विधि विशेषज्ञों व सामाजिक कार्यकर्ताओं के सुझावों,सहमति व सलाह के साथ तैयार किया गया है। परंतु लगता है इस विधेयक को भी अमन,शांति तथा न्याय का प्रतीक बनाने के बजाए उलटे सांप्रदायिकता तथा वैमनस्य फैलाने का माध्यम बनाया जा रहा है। इस विधेयक के विरोध में भारतीय जनता पार्टी तथा संघ परिवार के संगठन जहां खुलकर सामने हैं वहीं आरजेडी,तृणमूल कांग्रेस तथा एआईएडीएमके व अकाली दल,शिवसेना जैसे राजनैतिक संगठन भी सोनिया गांधी द्वारा तैयार कराए गए इस विधेयक का विरोध कर रहे हैं। संघ परिवार व भाजपा इस विधेयक के विरुद्ध इस प्रकार का प्रचार कर रहे हैं कि ‘यह विधेयक देश के प्रशासन व संघीय ढांचे के बिल्कुल विपरीत है। इस $कानून के तहत यदि कोई अल्पसंख्यक किसी बहुसंख्यक के विरुद्ध कोई आरोप लगाता है तो यह मान लिया जाएगा कि यह आरोप सत्य है और उसे जेल भेज दिया जाएगा।’ आरजेडी व तृणमूल कांग्रेस जैसे दलों का मत है कि ‘यदि यह विधेयक पारित हुआ तो देश बंट जाएगा। यह दिलों को बांटने वाला $कानून है व देश की एकता व अखंडता के लिए $खतरा भी है।’ कुछ प्रशासनिक अधिकारी भी इस विधेयक की यह कहते हुए आलोचना कर रहे हैं कि ‘ऐसा $कानून अधिकारियों व पुलिस कर्मियों को सामान्य डयूटी निभाने में अवरोधक का काम करेगा।’
विधेयक की इन आलोचनाओं के मध्य सबसे बड़ा प्रश्र यह है कि किसी भी धर्म व जाति के व्यक्ति के जान व माल को सांप्रदायिक हिंसा से बचाना ज़रूरी है अथवा नहीं? क्या यह तथ्यपूर्ण सत्य नहीं है कि प्राय: अलपसंख्यक समाज ही बहुसंख्यक समाज द्वारा हिंसा का शिकार बनाया जाता है? ऐसे विधेयक को कुछ उचित संशोधनों के साथ पारित कराए जाने के लिए देश के सभी राजनैतिक दलों को ईमानदारी से एकजुट होना चाहिए अथवा इस विधेयक को भी सांप्रदायिकता फैलाने का हथियार बना लेना चाहिए? जैसा कि कोशिश भी की जा रही है। पूर्व में हुईराष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़,कर्नटक,हिमाचल प्रदेश,उत्तराखंड,तमिलनाडू,बिहार तथा पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्रियों द्वारा इस विधेयक का विरोध किया जा चुका है। यूपीए सरकार भी इस प्रस्तावित विधेयक के व्यापक विरोध से घबराई हुई नज़र आ रही है। अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री रहमान $खां ने पिछले दिनों यह कहा था कि संसद के शीतकालीन सत्र में यह विधेयक पेश किया जा सकता है। परंतु गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे का कहना है कि वे इस विषय पर पु$ख्ता तौर पर कुछ नहीं कह सकते। गोया  यूपीए सरकार स्वयं ही अपने ही विधेयक को $कानून की शक्ल देने से या तो कतराने लगी है या फिर घबरा रही है। परंतु इन सबके बीच इस विधेयक को पारित करने हेतु राष्ट्रीय स्तर पर बुद्धिजीवी वर्ग का दबाव केंद्र सरकार पर बढ़ता जा रहा है।
गत् 23 व 24 नवंबर को देश के प्रमुख राजनैतिक नगर इलाहाबाद में इस विषय पर 14 संगठनों के सहयोग से दो दिवसीय कार्यक्रम आयोजित हुआ जिसमें रैली,सेमिनार,जनसभा व गोष्ठी आदि के माध्यम से सांप्रदायिक और लक्षित हिंसा (न्याय और क्षतिपूर्ति तक पहुंच)विरोधी $कानून 2011 बिना किसी देरी के संसद के शीत सत्र में पारित कराए जाने का सरकार पर दबाव डाला गया। देश के जाने-माने विधिवेत्ता न्यायमूर्ति पीवी सावंत पूर्व न्यायधीश सर्वाेच्च न्यायालय,न्यायमूर्ति हुस्बत सुरेश पूर्व जज मुंबई उच्च न्यायालय,जस्टिस $फ$खरूद्दीन पूर्व जज मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट तथा जस्टिस बीजी कल्से पाटिल पूर्व जज मुंबई उच्च न्यायालय आदि का इस आयोजन को समर्थन व सहयोग प्राप्त था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता सैयद $फरमान अली न$कवी के संयोजकत्व में आयोजित इस कार्यक्रम में पीयूसीएल,आज़ादी बचाओ आंदोलन, अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ, इंस्टीच्यूट $फॉर सोशल डेमोक्रेसी, अखिल भारतीय एससीएसटी परिसंघ,ह्यूमैन राईटस लॉ नेटवर्क, अवामी कौंसिल $फार पीस एंड डेमोक्रेसी, इतिहास बौद्ध मंच,सोशलिस्ट इनिशियेटिव, जागृत समाज,$गरीबी संघर्ष मोर्चा, समानांतर, शहरी $गरीब संघर्ष मोर्चा तथा जोश ऐंड $िफराक़ लिटरेरी सोसाईटी जैसे सामाजिक व साहित्यिक संगठन इस आयोजन में प्रमुख सहभागी थे। वहीं देश की जानी-मानी हस्तियों जैसे तीस्ता सीतलवाड़ सामाजिक कार्यकर्ता, आर बी श्रीकुमार पूर्व डीजीपी गुजरात, लेखक अली जावेद, 1984 सिख विरोधी दंगों के प्रमुख वकील एच एस फुलका, $फादर सैंड्रिक प्रकाश, डीपी त्रिपाठी राज्यसभा सदस्य, अपूर्व नंदा, सुमन गुप्ता, प्रोफेसर इर$फान अली, आलोक राय, ललित जोशी(इतिहासकार), पत्रकार एसएमए काज़मी, शीतला सिंह, डा०एस एल हरदेनिया, लाल बहादुर वर्मा,कमल कृष्ण राय, डा० गिारीश वर्मा, रवि किरण जैन तथा एस डी जेएस प्रसाद जैसे बुद्धिजीवियों द्वारा इलाहाबाद में आयोजित दो दिवसीय आयोजन के माध्यम से केंद्र सरकार पर यह दबाव डाला गया कि वह संसद के शीतकालीन सत्र में राज्य सभा में इस विधेयक को अविलंब पारित कराए। कार्यक्रम संयोजक $फरमान अली न$कवी के अनुसार विधेयक के समर्थन में उपराष्ट्रपति को एक लाख नागरिकों द्वारा लिखा गया पत्र भेजा जाएगा तथा सभी सांसदों से इस विधेयक पर सहयोग देने के लिए संपर्क स्थापित किया जाएगा। इसकी शुरुआत इलाहाबाद के सांसद रेवती रमण सिंह से मुला$कात कर उन्हें विधेयक के समर्थन में ज्ञापन सौंपकर की जा चुकी है। निश्चित रूप से देश को ऐसे $कानून की स$ख्त ज़रूरत है जो देश के किसी भी क्षेत्र में रहने वाले किसी भी धर्म, जाति व भाषा से संबद्ध अल्पसंख्यक समाज के लोगों को किसी भी बहुसंख्य समाज की हिंसा से बचा सके। ऐसे विधेयक पर राजनीति करने के बजाए इस का समर्थन किया जाना चाहिए ।

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communalism,niramal rani **निर्मल रानी

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं.

Nirmal Rani (Writer ) 1622/11 Mahavir Nagar Ambala City 134002 Haryana Phone-09729229728

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*Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely her own and do not necessarily reflect the views of INVC.

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