नित्यानन्द गायेन टिप्पणी : सरोज सिंह की कविता की भाषा बहुत सरल है। इनकी कविताओं में एक स्त्री का दर्द और संवेदनाओं को आसानी से समझ सकते हैं। “चीख ” और “बिसुखी गईया” कवितायेँ इसका उदाहरण हैं। इनकी कविताओं का भूगोल बहुत बड़ा है।
सरोज सिंह की पांच कविताएँ
1.प्रतिध्वनित स्वर
प्रतीक्षा की शिला पर
खड़ी हो बारम्बार
पुकारती रही तुम्हे
वेदना की घाटियों से
विरह स्वर का लौटना
नियति है किन्तु,
तुम ,उन स्वरों को
शब्दों में पिरो कर
काव्य से …..
महाकाव्य रचते रहे
मैं मूक होती गयी
और तुम्हारी कवितायें वाचाल
मैं अब भी अबोध सी
खड़ी हूँ उसी शिला पर
कि कभी तो
प्रतिध्वनित स्वर
मेरे मौन को
मुखरित करने
पुन: आवेंगे !!!.
2.उसे मारो
चाहते हो गर
सियासत की सांस
बदस्तूर चलती रहे
तो उसे मारो
तल्ख़ अल्फाजों से
उसे लानत भेजो
उसपर जुमले कसो
उसकी कमर तोड़ो
उसकी रीढ़ तोड़ो
ताकि वो
सदा के लिए
मुख़ालिफ़ हवाओं में
तनकर खड़ा होना
और सर बुलंद किये
चलते रहना
भूल जाए
गर वो कुछ दिन और
तन कर सीधा चला
तो बरसो का खड़ा किया
सियासी महल
नेस्तनाबूद हो सकता है !!
3.”चीख़ “
आज हम सभी के रगों में हैं, च्यूंटीयां रेंगती
मगर कोई ….कहीं जुम्बिश नहीं होती
ख़ामोशी है कि भीतर ही भीतर काटती है
बेचारगी भी भीतर, दीमक सी चाटती है
और ज़ुबानों की मुंडेरों से
आवाज़ें वापिस हलक़ में लौट जातीं हैं
इंसानों की बस्ती है या के
ज़िंदा क़ब्रिस्तान में कब्रें दम साधे पड़ी हैं ?
जी चाहता है के ….
इस नज़्म की मिटटी से इक गुल्लक बनाऊं
और उसमे …..
वो जो कोने में सिमटी सिसकती है
नहीं जानती यहाँ सभी के जज़्बात सोये हैं
मैं उसकी सिसकियाँ भर लूं
वो जो दर्द से बेज़ार कराहता है
नहीं जनता इस मक़तल में कोई मरहम नहीं रखता
मैं उसकी कराहटें भर लूँ
वे जो कानों में फुसफुसाते हैं
नहीं जानते यहाँ सब बहरे हैं
मैं उनकी फुसफुसाहटें भर लूँ
उनके पेट जो भूख से ऐंठतें हैं
नहीं जानते यहाँ पेटभरना रईसों का शौक़ है
मैं उनकी ऐठन भर लूँ
ज़ाहिर सी बात है
गुल्लक में ये मुख्तलिफ़ आवाज़ें मिलकर
चीख़ में तब्दील होगी
4.बिसुखी गईया
दूध की नदी जब
शिराओं में सूखने लगती है
और थन उसके सिकुड़ने लगते हैं
तब वो बेदखल हो जाती है
अपने ही परिवार से
वृद्धाश्रम ……………
अभी बना नहीं है उसके वास्ते
तभी तो ……वो मनहूस सी
गली मोहल्ले भटकते हुए
चर जाती है ….कूड़े में पड़े
बासी अख़बार की
मनहूस ख़बरों को
और फिर ….
जीवन के चौराहे पर
बैठ जुगाली करते
खो जाती है
अपने स्वर्णिम अतीत में
जहाँ उसका गाभिन होना
रम्भाना, बियाना
एक उत्सव था !
याद आती है उसे
वो बूढी मलकाइन
जो अब नहीं रही ….
जिसकी आँखों में
उसकी पूंछ पकड़
वैतरणी पार करने की लालसा थी
याद करती है
अपनी पुरखिनो को
जिनकी पीठ पर बांसुरी बजा
सांवरे ने ब्रम्हांड डुला दिया था
जुगाली के बंद होते ही
वर्तमान उसे ….
देह व्यापार के लिए
कत्लगाह का रास्ता दिखाता है
वो इससे भय खाए
इसके पहले ही
कोई खीजते हुए
उसकी पसलियों में कुहनी मार
“परे हट” कहते हुए
चौराहे से हांक देता है
5.न्याय की देवी
सदियों से चला आ रहा
कौरव-पांडव का झगड़ा
अभी निबटा नहीं है
निर्णय कौन करे ?
यह दौर कृष्ण रहित कलयुग का है
खेत और ज़मीन के विवाद में
ज़मीन खुद फैसला नहीं करती
कि वो किसके हक़ और हद में है
क्यूंकि वो गूंगी है
ठीक उसी तरह, जिस तरह
कानून की देवी अंधी है
जिसे उन्मुक्त आकाश से धरकर
तंग कमरे में क़ैद कर लिया गया है
छल व मुअत्तली के माहौल में
वो पली बढ़ी
भूलभुलैया वाले इन गलियारों से
पलायन, असंभव है ….
और वैसे भी स्थापित मूर्तियाँ
स्वमेव हिल भी नहीं सकती
आँखों पर पट्टी बंधी है
देख नहीं सकती
वो बस हाथों में तराजू लिए
तोल-मोल के बोल सकती है
ऐसी भाषा जिसे …
उस मंदिर का मुख्य पुजारी ही
समझ व बोल सकता है
सामने बैठे याचक समझे न समझे
स्वीकारना उनकी मज़बूरी है
टूटहे पटरियों वाले ब्रिंच पर
प्रतीक्षारत बैठे देहों की
बुझी आँखों में उम्मीदें
जगी झूलती रहती हैं
भीतर कमरे में जज उबासियाँ लेता है
बाहर, वकील……….
केस व दलीलों की
कलम-घिसाई में व्यस्त है
क्लर्क और चपरासी
मंदिर के पंडो की तरह
प्रवेश द्वार पर हाथ फैलाये
सिर्फ चुने हुए लोगों को
भीतर जाने को रास्ता देतें है
तारीख के साथ
देह भी बदल जाती है
पर हाथों में अर्जी वही रहती है
कानून के मंदिर के बाहर
सच और झूठ वाली ….
स्याह और सफ़ेद नदियों का संगम है
जहाँ रोज जने कितनी
उम्मीदों की अस्थियाँ विसर्जित होती हैं
उन गलियारों में ….
न जाने कितनी भटकती आत्माएं
चमगादड़ों सी उलटी लटकी ,
न्याय की गुहार करती
अपने पुत्र, पौत्र के हाथों में ,
प्रतीक्षारत पिंड को
निरीह निहारती रहती हैं
इस न्याय के मंदिर में
प्रतीक्षा की घंटी बदस्तूर
और कर्कष बजते रहने पर
“न्याय की अंधी देवी” का
बहरा होना भी लाज़िम है !!
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प्रस्तुति :
नित्यानन्द गायेन
Assitant Editor
International News and Views Corporation
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सरोज सिंह
नैनीताल से भूगोल विषय से स्नातकोत्तर एवं बीएड !! गाज़ियाबाद (सीआईएसऍफ़)”के परिवार कल्याणकेंद्र की सयुंक्त सचिव के तौर पर कार्यरत ! हिंदी व भोजपुरी भाषा में लेखन व बँगला कविताओं का अनुवाद
स्त्री होकर सवाल करती है” (बोधिप्रकाशन) ,”सुनो समय जो कहता है ” काव्य संग्रह और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ एवं आलेख प्रकाशित हैं ! निजी काव्य संग्रह(तुम तो आकाश हो) प्रकाशनाधीन !
निवास : गाज़ियाबाद
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बेहतरीन कवितायें…..सरोज को पढना सदा सुखद है..
ढेरों शुभकामनाएं…
सरोज की कविताएँ ..हमारे आसपास की विसंगतियों से हमें रूबरू कराती हैं ..शब्दों का पैनापन हमारी सोई चेतना को झकझोर कर जगा जाता है .भविष्य इन्हीं का है इस उम्मीद के प्रति मैं दृढंनिश्चयी हूँ .
मन को छूती कवितायेँ..!
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