कट गया लो एक टूटा और बिखरा दिन
बढ़ गया फिर दर्द का कुछ ऋण !
फिर समन्दर का अहम आहत हुआ
दर्द से दुहरी हुई नदिया
होठ भीं चे स्वर दबे हैं कंठ में
भीगता है बे.जुबाँ तकिया
देह पत्थर हो गई है फिर अहिल्याकी
ठोकरों के चिन्ह हैं अनगिन !!
बढ़गया फिर दर्द का कुछ ऋण !
जिस नजर में चाँदर हता थाक भी
अब उसे बस दाग दिखता है
क्यों विधाता फूल की तकदीर में
ओस लिखकर आग लिखता है
चांदनी का दूधिया रंग होगया नीला
डस गयी संदेह की नागिन !!
बढ़गया फिर दर्द का कुछ ऋण!
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सरिता शर्मा
निवास दिल्ली