“सबसे बड़े प्रदेश के सबसे छोटे मुख्यमंत्री के सामने बड़ी-बड़ी चुनौतियां”**

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अमलेन्दु उपाध्याय**

  • सबसे बड़े प्रदेश के सबसे छोटे मुख्यमंत्री के सामने बड़ी-बड़ी चुनौतियां
  • यूपी के तख्त-ओ-ताज को संभालना कांटों का ताज पहनना है।
  • परिवार और पार्टी के साथ अन्याय कर एक जिम्मेदार और ईमानदार पिता का हक अदा किया मुलायम ने
  • प्रदेश की कानून व्यवस्था को सुदढ़ रखना बड़ी चुनौती
  • करिश्माई व्यक्तित्व की पहली परीक्षा स्थानीय निकाय चुनाव में
  • चुनना होगा स्वच्छ मंत्रिमंडल और मुख्यमंत्री सचिवालय

आखिर तमाम किंतु परंतु के बावजूद समाजवादी पार्टी के युवराज अखिलेश यादव प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के लिए पार्टी की तरफ से चुन ही लिए गए। उनके नाम का प्रस्ताव पार्टी महासचिव और पार्टी का मुस्लिम चेहरा मौहम्मद आज़म खां ने रखा जिसे तालियों की गड़गड़ाहट से पार्टी विधायकों ने समर्थन दे दिया।
हालांकि चुनाव परिणाम आने के बाद से ही पार्टी में मुख्यमंत्री पद को लेकर सिर फुटौव्वल की स्थिति बन रही थी। बताया जाता है वरिष्ठ नेता शिवपाल सिंह यादव एवं आज़म खां, अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाए जाने का विरोध कर रहे थे। इन नेताओं का तर्क था कि अखिलेश अनुभवहीन हैं और उनके हाथ में पार्टी की बागडोर देकर मुसीबतों का सामना करना पड़ सकता है। लेकिन बताया जाता है कि मुलायम सिंह की इच्छा थी कि उनके आंखों के सामने ही अखिलेश को प्रदेश की बागडोर मिल जाए वरना बाद में क्या हो कहा नहीं जा सकता। इसी को लेकर पार्टी में जबर्दस्त द्वंद था।
बताया जाता है पार्टी की संसदीय बोर्ड की बैठक में अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाए जाने पर मुहर लगने से इसीलिए रह गई कि आज़म खां नाराज़ होकर इस बैठक में नहीं पहुंचे। हालांकि बिना आज़म खां के भी मुलायम, अखिलेश को कमान सौंपने की घोषणा कर सकते थे लेकिन इसमें बहुत बड़ा खतरा था। इस बार बड़ी संख्या में मुस्लिम विधायक चुनकर आए हैं और अगर पार्टी एक बार फिर आज़म खां की बेइज्जती करती तो आने वाले दिनांे में पार्टी को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता।
हालांकि पार्टी के नेताओं का एक बड़ा तबका अखिलेश के ही गुणगान करने में व्यस्त था और उसका कारण समझा जा सकता है। अगर अखिलेश मुख्यमंत्री नहीं बनते तो इन नेताओं के लिए काफी मुश्किलें खड़ी हो सकती थीं। दरअसल आज़म खां की छवि एक कड़क प्रशासक की है और उनके ऊपर आज तक बेईमानी का एक भी आरोप नहीं है। ऐसे में पांच साल से सत्ता की मलाई चखने की प्रतीक्षा कर रहे पार्टी नेताओं के लिए यह किसी वज्रपात से कम नहीं होता अगर आज़म मुख्यमंत्री बन जाते। इसीलिए इस वर्ग ने मुलायम सिंह के सपनों से स्वयं को जोड़ दिया। इस तबके को लगता है कि अखिलेश नौसिखिया हैं इसलिए उन पर पकड़ बनाई जा सकती है।
एक सोची समझी रणनीति के तहत ही इस वर्ग ने आज़म खां का नाम विधानसभा अध्यक्ष के लिए चलाया ताकि आज़म पार्टी की मुख्य धारा की राजनीति से अलग हो जाएं। जाहिर सी बात है कि अगर वे विधानसभा अध्यक्ष बन जाएंगे तो नैतिकता के आधार पर पार्टी की रोजमर्रा की नीतियों और कार्यप्रणाली में दखल नहीं दे पाएंगे। पार्टी का अखिलेशमय तबका यही चाहता है। इसीलिए आज़म खां ने यह चाल भांपकर ही विधानसभा अध्यक्ष बनने से इंकार कर दिया है।
इसी तरह पार्टी का दिल्ली में बैठा नेतृत्व पिछली सरकार में हुई गुंडई के लिए शिवपाल सिंह को बदनाम करने का अभियान चलाता रहा है और इसके लिए मीडिया का बाकायदा सहारा भी लिया जाता रहा है। अब इस आरोप की भी सत्यता सामने आ जाएगी। अगर पिछली सरकार के सारे कुकर्मों का दोष शिवपाल के ऊपर ही है तो इस सरकार में तो यह कुकर्म नहीं होने चाहिएं! ज्यादा नहीं दो महीने मेें ही असलियत सामने आने लगेगी।
जहां तक मुलायम सिंह का सवाल है, युवराज को राजपाट सौंपकर उन्होंने एक जिम्मेदार और ईमानदार पिता का हक अदा किया है। लेकिन यह हक अदा करते समय उन्होंने न केवल पार्टी की नीतियों और सिद्धांतों को तिलांजलि दी है बल्कि जिस परिवारवाद के खिलाफ समाजवाद का नारा देकर राजनीति शुरू की थी उस समाजवाद को उन्होंने शीर्षासन करा ही दिया है, साथ ही अपने परिवार के साथ भी पुत्रमोह में घोर अन्याय कर गए हैं। यदि परिवारवाद ही चलाना था तो भी दावा अखिलेश का नहीं बल्कि शिवपाल का बनता था। क्योंकि शिवपाल ही अब तक उनकी राजनीति की रीढ़ की हड्डी रहे हैं और एक कुशल राजनीतिक प्रबंधक की हैसियत से पार्टी चलाते रहे हैं। मुलायम सिंह के हर संघर्ष के दौर में शिवपाल ने मुलायम की सारी बलाएं अपने ऊपर ले लीं। पिछले पांच साल जब सड़क पर मायावती सरकार की लाठी और घूंसे खाने की बारी आई उस समय भी मैदान में शिवपाल ही थे।
अखिलेश सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं, इसलिए बेहद खुश भी होंगे। लेकिन देश के सबसे बड़े प्रदेश के तख्त-ओ-ताज को संभालना कांटों का ताज पहनना है। खासतौर पर समाजवादी पार्टी के मुख्यमंत्री के लिए। उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वे अपने घाघ नेताओं को कैसे काबू में रख पाते हैं। क्योंकि यही नेतागण पिछली सरकार में मुलायम सिंह की बदनामी और उनके पतन का कारण बने थे। अखिलेश के सामने सबसे बड़ी चुनौती प्रदेश की कानून व्यवस्था को सुदढ़ रखना होगा जिसे उनके नेताओं ने अभी से ध्वस्त करना शुरू कर दिया है। मुख्यमंत्री बनते ही उनकी पहली प्राथमिकता संभल, झांसी, फिरोजाबाद की घटनाओं के लिए जिम्मेदार पार्टी नेताओं को दण्डित करने की है। देखना होगा कि वे ऐसा कर पाते हैं या नहीं? कानून व्यवस्था के मसले पर तो अभी से वे विफल होते नज़र आ रहे हैं। वे ठीक वही भाषा बोल रहे हैं जो पिछले पांच साल तक मायावती बोलती रहीं और अपनी हर नाकामी को पिछली सरकार के मत्थे मढ़ती रहीं। देखना होगा वे इससे परहेज करते हैं या उसी पथ पर आगे बढ़ते हैं।
दूसरी सबसे बड़ी चुनौती उनके सामने मीडिया द्वारा गढ़ी गई अपनी युवा नेता की छवि और करिश्माई व्यक्तित्व को बचाए रखना होगा। चंद महीनों में ही प्रदेश में स्थानीय निकायों के चुनाव होने हैं। 2014 में लोकसभा चुनाव में भी अब पार्टी का प्रदर्शन उनकी चुनौती है। इसमें भी अपने करिश्मे को बचाए रखना उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती है। वरना चुनाव से पहले जो मीडिया राहुल गांधी की छवि का निर्माण कर रहा था और चुनाव के बाद उन्हें जमकर धो रहा है, वही मीडिया उन्हें भी इसी तरह धोने लग जाएगा।
जिस तरीके से सपा सरकार बनने की घोषणा से ही समूचे प्रदेश में सपा कार्यकर्ता सड़कों पर उतर कर कानून अपने हाथों में ले रहे हैं। अगर अखिलेश उन पर काबू नहीं पा सके तो 2014 में परिणाम उल्टे भी हो सकते हैं। उन्हें सबसे पहले जिलों में मिनी मुख्यमंत्री का दर्जा प्राप्त नेताओं के पर कतरने होंगे क्योंकि यही मिनी मुख्यमंत्री उनके लिए सबसे बड़ी मुसीबत बनने वाले हैं।
अखिलेश के सामने एक और बड़ी चुनौती है। यह चुनौती किसी बड़े पहाड़ से कम नहीं है। सपा की सरकार बनते ही इटावा के यादव नौजवान न जाने कौन सी दवा पीने लगते हैं कि पुलिस की भर्ती में एक बड़ा हिस्सा उनके नाम हो जाता है। क्या अखिलेश इस राग द्वेष से ऊपर उठ पाएंगे और देखना यह भी होगा कि थानों में तैनात यादव सिपाहियों के आतंक पर वे कैसे लगाम लगा पाते हैं क्योंकि सपा की पिछली सरकार में ये यादव सिपाही भी पार्टी की बदनामी का बहुत बड़ा कारण रहे।
इसके अलावा उन्हें मुलायम सिंह की छाया से मुक्त होकर अपना स्वच्छ मंत्रिमंडल चुनना होगा। जो कि एक मुश्किल काम है। जिस तरीके से दागदार छवि के नेताओं ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाए जाने की पैरवी की है उससे उन्हें बहुत संभलकर रहने की आवश्यकता है। कई ऐसे नेता हैं जो पिछली सरकार में अमर सिंह के बहुत खास थे और अब वहीं अखिलेश की टीम के कप्तान बन रहे हैं। अगर अखिलेश की टीम में यही लोग शामिल होते हैं तो परिणाम प्रतिकूल ही आने की संभावना ही ज्यादा है। देखना होगा कि उनके मंत्रिमंडल में पुराने असली समाजवादी स्थान पाते हैं या वह अपना लैपटाॅप छाप मंत्रिमंडल चुनते हैं।
इतना ही नहीं उन्हें मुख्यमंत्री सचिवालय में भी काफी फेर बदल करने होंगे। कुछ पुराने घाघ अफसर फिर से सरकार का अपहरण करने का प्रयास करेंगे। अब यह अखिलेश के विवेक पर निर्भर करेगा कि वे पंचम तल पर किन अफसरों को बैठाते हैं। काफी कुछ उनकी छवि इन अफसरों के क्रियाकलापों पर भी निर्भर करेगी।
मुलायम सिंह यादव की छवि एक ऐसे नेता की रही है कि वे जनता से जो कहते हैं वो करते हैं और इस बात को उन्होंने एक बार नहीं अनेकों बार साबित किया है। अखिलेश के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे इस मामले में अपने पिता के पदचिन्हों पर चल पाते हैं या विफल हो जाते हैं। समाजवादी पार्टी ने जो घोषणापत्र जारी किया उस पर मुलायम की छाया कम और अखिलेश की छाया ज्यादा थी। अब उनके सामने चुनौती यही है कि वे किस तरीके से इस घोषणापत्र को लागू करते हैं और अपने पिता की ”जो कहा सो कर दिखाया“ छवि को कहां तक बनाए रख पाते हैं। सरकारी खजाने की हालत काफी नाजुक है, ऐसे में छात्रों को टेबलेट और लैपटाॅप, किसानों को मुफ्त बिजली, युवाओं को बेरोजगारी भत्ता, मोचियों को पक्की दुकानें आदि की व्यवस्था कैसे करते हैं, ये देखना होगा। बहरहाल तमाम शंकाओं और चिंताओं के बावजूद प्रदेश के नए नेतृत्व को इस आशा के साथ शुभकामनाएं कि सारी शंकाएं निर्मूल साबित हों।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक समीक्षक हैं। हस्तक्षेप डाॅट काॅम के संपादक)

अमलेन्दु उपाध्याय
एससीटी लिमिटेड
सी-15, मेरठ रोड इंडस्ट्रियल एरिया
गाजियाबाद
मो0– 9312873760

*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely her own and do not necessarily reflect the views of INVC

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