संजय कुमार गिरि की कविता – सोने के परिंदे

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सोने के परिंदे

ख्वाहिशों के बंधन से ,
मुक्त कौन हो सका है ?
जिस “परिंदे की आजादी” को ?
वो* भी कुछ न कर सके |
उस “सोने के परिंदे ” की आज़ादी
एक मीठा भ्रम हे ये ,
स्वतंत्र हो कर भी क्या मिला ?
जब मन में लाखो तंत्र है .
एक मुठ्ठी आनाज की खातिर
कोई फंसी पे चढ़ रहा ,
भूख से व्याकुल परिवार
देखो कैसे मर रहा …
और वे कहते हें कि..
देश तरक्की कर रहा ….
ऐसी तरक्की हमारे किस काम की
जहाँ राजनीति खेली जाए
नाम ले के श्री राम की ,

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sanjay kumar giri
संजय कुमार गिरि

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