संजय कुमार गिरि की कविता जालिम

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वह आज कुछ चुप -चाप सी लग रही थी ,
आई और आकर बेठ गई थी ,
पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ था ,
वह आई नहीं कि शोर मचा था ,
फिर आज जाने किया बात हो गई .
वह आकर ऐसे केसे बेठ गई ,
कुछ डरी-सी ,कुछ सहमी हुई थी ,
वह ऐसे कभी शांत नहीं हुई थी ,
बैचेनी मुझे सताए जा रही थी.
कि अचानक वह गिर पड़ी थी ,
और कुछ देर तड्पी फिर शांत हो गई थी ,
नजदीक जाने पर पता चला कि ,
उसकी एक टांग ज़ख़्मी हुई थी,
इसने उस ‘ज़ालिम’ का क्या बिगाड़ा था ,
जिसने आज इस ‘गौरेया’को मारा था,
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-‘संजय कुमार गिरि’
9871021856

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