शुभेन्दु शेखर के दिल से : झील का पीपल

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1656280_10202754816047436_419795522_nअजब सी ज़िन्दगी है तुम्हारी ….. एक शान्त सी मीठे पानी की झील की तरह …..तुम्हारा ये सौम्य सौन्दर्य किसी को भी विवश कर देता है तुम्हारे क़रीब आने को…. तुम्हारा ये श्रृंगार ईश्वर ने ही तुम्हें दिया है …… अजब सी मिठास …. स्वच्छ निर्मल …. उपर से कितनी शान्त पर भीतर तो तुममें भी हलचल है …. तुम्हारी गहराइयों की भी एक अलग दुनियाँ है जिसे कोई देख नहीं पाया, छू नहीं पाया, महसूस नहीं कर पाया अबतक !!
कोई भी तुम्हारे नज़दीक़ आ कर खुद को तुममें देख लेता है ….. अपनी छवि तुम्हारे अन्दर पा कर खुद को खुशकिस्मत समझता है … तुम्हारे अनुपम सौन्दर्य में अपनी छवि को देख लेना और ये मान बैठना कि तुमनें इसे अपनी गहराइयों में उकेर लिया है …. ये भावना हर किसी को रोमांचित कर देती है…. कितनी सुखद अनूभूति है ये !!
ऋतु परिवर्तित होता है …. तेज़ हवाएँ चलती है…. तुम्हारी सतह के उपर भी हलचल मचती है …. वो छवि धीरे धीरे सतह से धुलने लगती है और विलुप्त हो जाती है ….वो व्यक्ति अपनी छवि अब तुम्हारे अन्दर न पा कर परेशान हो जाता है ….. ईश्वर को कोसता है क्यों मौसम अनुकूल न रहा …. तुम्हें भी कोसता है कि मौसम की ज़रा सी मार पर तुम संयत क्यों नहीं रही …. पल दो पल को प्रतीक्षा भी करता है कि तुम फिर से शान्त हो जाओ और अपने अन्दर फिर उसकी छवि गढ़ लो …. पर ऐसा नहीं होता …. तेज़ हवाओं से वो व्यक्ति भी असंयमित हो जाता है …. धीरज खो बैठता है, खुद को भी सुरक्षित करने की भावना घर करने लगती है …. बुझे मन से ही, विवश हो कर तुमसे दूर चला जाता है!!
पर तुम्हारे बहुत क़रीब एक पीपल का पेड़ है …. वो भी वर्षों से तुम्हारे अन्दर अपनी छवि देखता आया है …. तुम्हें अपना मानता आया है …. पर फ़र्क़ है …. ये पीपल न फलता है न फूलता है ….शायद उतना जीवन्त भी नहीं …. पर इसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता …. जब भी किसी व्यक्ति की छवि तुम अपने अन्दर बनाती हो ये सिहर उठता है …. जार जार रोता है… जानती हो कई क्षण ऐसे भी आऐ जब उस व्यक्ति ने इसी पीपल के नीचे बैठ कर तुममें खुद को देखा था ….. समझ सकती हो इस जड़ वृक्ष की पीड़ा? इस पीपल ने तुम्हारे अन्दर अपनी छवि के साथ जब उस व्यक्ति के प्रतिबिम्ब को भी देखा तो कलेजा फट गया था उसका ….
जब कभी हवाएँ चलती हैं, तुम्हारे अन्दर अपनी छवि को धुलता देख ये भी विचलित होता है पर जब तुम बाहर तक अशान्त होती दिखती हो तो ये अपने अस्तित्व के टुकड़ों…. पत्तों, डालियों को खुद से काट कर तुम तक पहुँचाता है …. तुम्हें ये प्रदर्शित करने की कोशिश करता है कि मेरा सर्वस्व तुम्हारा है …. मेरी छवि तुममें मुझे दिखे या न दिखे पर फिर भी मैं प्रतीक्षा में हूँ …. ये अटल विश्वास अपने अन्दर बसाए हुऐ है कि ऋतु तो बदलेगा ही और फिर ये तुम्हारे अन्दर खुद को पाऐगा ही !!
इसने बरसों से तुम्हें अपने अन्दर जीया है, ये मान बैठा है कि तुम्हारा सामीप्य ही इसकी प्राणवायु है!! इसने इन गुज़रे दशकों में तुम्हारी गहराइयों में भी झाँका है …. इसे पता है कि जिस व्यक्ति की छवि तुम्हारी सतह से धुली थी वो अब भी तुम्हारे तल में बैठी है …. इसे ज्ञात है कि मन में बनी कोई भी छवि कभी धुलती ही नहीं हाँ कभी से बाहर से नज़र आती है तो कभी बहुत अन्दर तक जा बैठती है!! कभी कभी से मायूस हो जाता है कि तुम्हारे तल में जहाँ इसके अस्तित्व के टुकड़े पड़े हैं वहीं किसी और की छवि भी है ….. पर फिर भी तुममें इसकी जान बसती है!! ये काल चक्र की नियती भी जानता है …. एक दिन ऐसा आएगा जब इसकी जड़ें अशक्त होंगीं …. तब शायद ये विपरीत मौसम में हवा के तेज़ वेग को सह नहीं सकेगा …. पर फ़र्क़ है …. विपरीत समय में वो व्यक्ति तुमसे दूर चला गया था …. जबकि ये अपने सर्वस्व अस्तित्व के साथ तुममें जा गिरेगा …. तब तुम इसे अपनी सतह पर भी नहीं रख पाओगी …. से सीधे तुम्हारे कल तक जा धँसेगा ….. इसके जीवन का प्रारब्ध यही है और इसके समस्त अस्तित्व को स्वीकारना …. तुम्हारा प्रारब्ध भी यही है !!
जब ये पीपल तुम्हें अपने किनारे न नज़र आऐ तब अपने अन्दर देखना …. ये वहीं मिलेगा तुम्हें!! …..
हाँ ये झील तुम हो मैंने शुरू में ही कह दिया था ……, पर जानती हो वो पीपल कौन है ??? ….मैं !!!!!

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परिचय – :

 शुभेन्दु शेखर
रांची , झारखंड .कोई भी साहित्यकार – सृजनकार अपने मन्तव्य को पाठकों तक पहुँचाने के लिए साहित्य की विविध विधाओं को चुनता है। कविता, कहानी, नाटक, निबन्ध, उपन्यास आदि के रूप में वह अपने भाव एवं विचार को संप्रेषित करता है। लेकिन रचनाकार चाहे जिस विधा को चुने अपने कथ्य को संप्रेषित करने के लिए वह अपनी अलग शैली चुनता है। भाषा तो केवल उपादान है शैली एक अलग पहचान है। ऐसे ही श्री शुभेन्दु शेखर जी की एक अपनी ही विशिष्ट – शैली है , भाव-पूर्ण और छायावाद का पुट लिए इनका लेखन ठंडी – हवा सा सुखद अहसास है l

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