शिक्षा के ‘मंदिरों’ में जारी है लूट का सिलसिला

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right to educationनिर्मल रानी**,,
हमारे देश के संविधान निर्माताओं ने शिक्षा का प्रचार व प्रसार करने के लिए भारतीय संविधान में इस बात की व्यवस्था की थी कि शिक्षा को बढ़ावा देने के उद्देश्य से कोई भी भाारतीय नागरिक शिक्षण संस्थान खोल सकता है। ज़ाहिर है बड़ी जनसंख्या वाले इस देश में सरकार द्वारा इतने बड़े पैमाने पर राजकीय स्तर पर पर्याप्त शिक्षण संस्थान खोल पाना संभव नहीं। यही वजह है कि आज देश में बेसिक शिक्षा से लेकर उच्च,उच्चतम व तकनीकी शिक्षा प्रदान करने वाली अधिकांश संस्थाएं निजी स्तर पर अथवा संस्थागत तौर पर संचालित की जा रही हैं। तमाम निजी संस्थानों द्वारा इनके संचालन हेतु कार्य समितियां गठित की गई हैं। यहां यह बताने की ज़रूरत नहीं कि देश के सभी निजी संस्थान व संस्थाएं राजकीय स्तर पर संचालित संस्थाओं व संस्थानों से कहीं अधिक शिक्षा शुल्क व अन्य प्रकार के तमाम शुल्क वसूलते रहते हैं। हालांकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि हमारे देश में शिक्षा को बढ़ावा देने में तथा भारतीय समाज को साक्षर बनाने में निजी विद्यालयों व महाविद्यालयों का बहुत बड़ा योगदान है। इसमें भी कोई संदेह नहीं कि इस समय देश में तमाम नामी-गिरामी व प्रतिष्ठा प्राप्त शिक्षण संस्थाएं व संचालन समितियां ऐसी भी हैं जिनकी स्थापना उनके सम्मानित संस्थापकों द्वारा इसी उद्देश्य से की गई थी ताकि हमारा समाज पूर्णरूप से शिक्षित हो सके तथा देश मज़बूत व समृद्ध हो सके।

परंतु समय बीतने के साथ-साथ ऐसा प्रतीत होता है कि इन निजी संस्थानों ने शिक्षा के प्रचार व प्रसार के अपने मुख्य उद्देश्य को किनारे रखकर इसे छात्रों के अभिभावकों से मनमाने तरीके से पैसे वसूलने का एक ज़रिया मात्र बना रखा है। इतना ही नहीं बल्कि शिक्षण संस्थान शुरु किए जाने की भारतीय संविधान में मिली छूट का भी इतना अधिक नाजायज़ फायदा उठाया जा रहा है कि तमाम निजी स्कूल संचालक इसे महज़ एक धन वर्षा करने वाले कारोबार की तरह देखने लगे हैं। परिणामस्वरूप व्यापारी प्रवृति के ऐसे तमाम लोग स्कूल व कॉलेज खोलकर बैठ गए हैं। और अपनी मजऱ्ी से, बिना कोई रसीद दिए हुए अभिभावकों से धड़ल्ले से जब और जितने चाहें पैसे वसूल कर रहे हैं। और दूसरी तरफ अभिभावकगण किसी निजी स्कूल के चंगुल में फंसने के बाद अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य की लालच में मनमाने तरीके से लुटने को भी मजबूर हैं। और कई बार ऐसा भी देखा गया है कि लुटने की सहनशक्ति समाप्त होने पर यही अभिभावक लुटेरे प्रवृति के स्कूल संचालकों के विरुद्ध सडक़ों पर भी उतरने को बाध्य हो जाते हैं। भले ही उन्हें अपने नौनिहालों के भविष्य को भी खतरे में क्यों न डालना पड़े। परंतु आमतौर पर यही होता है कि अभिभावकगण अपने बच्चों काभविष्य खराब होने के डर से चुपचाप निजी स्कूलों के संचालकों की हर बात मानते रहते हैं तथा उनके द्वारा मांगी जाने वाली तरह-तरह की धनराशि समय-समय पर देते भी रहते हैं। और अभिभावकों की यही मजबूरी व इस मजबूरी के चलते उनकी खामोशी व्यवसायिक प्रवृति वाले निजी स्कूल संचालकों के हौसले और बढ़ाती है।

पिछले दिनों शिक्षा के ‘मंदिरों’ में हो रही लूट से तंग अभिभावकों का गुस्सा अंबाला शहर के सेंट जोजेफ स्कूल नामक एक निजी शिक्षण संस्था पर उस समय फूट पड़ा जबकि स्कूल की ओर से बच्चों को बेचे जा रहे एक कंपनी विशेष के मंहगे जूते खरीदने हेतु बाध्य किया गया। चार सौ रुपये कीमत के जूते बच्चों के हाथों एक हज़ार रुपये मूल्य में न केवल बेचे गए बल्कि स्वयं स्कूल प्रिंसीपल व संचालिका द्वारा प्रत्येक कक्षा में स्वयं जाकर उस जूते को अपने हाथों में लेकर बच्चों को जूते की विशेषता के विषय में लंबा-चौड़ा भाषण भी पिलाया गया। अफसोस की बात तो यह है कि जब अभिभावकों द्वारा स्कूल प्रशासन की इस हरकत को गलत व नाजायज़ ठहराते हुए उसके विरुद्ध तीन दिनों तक लगातार धरना-प्रदर्शन व सडक़ें जाम करने जैसे विरोध प्रदर्शन किए गए, उसके जवाब में स्कूल संचालक व स्वयंभू प्रधानाचार्या द्वारा यह जवाब दिया गया कि यदि अभिभावकों की जेब हमारे स्कूल में अपने बच्चे की पढ़ाई कराने की इजाज़त नहीं देती तो वे अपने बच्चों को यहां क्यों भर्ती कराते हैं, किसी और सस्ते स्कूल में क्यों नहीं पढ़ाते? यह था शिक्षा के ‘मंदिर‘ की मुखिया का स्कूल में जूते बेचने की सफाई में दिया जाने वाला स्पष्टीकरण या उनका अपना पक्ष। उपरोक्त निजी स्कूल हालंाकि ज़्यादा पुराना नहीं है तथा एक निजी बिल्डिंग में एक निजी परिवार द्वारा संचालित किया जा रहा है। परंतु उसकी फीस अन्य मध्यम दर्जे के निजी स्कूलों से अधिक है। उसके बावजूद तमाम अभिभावक खासतौर पर जो इस स्कूल के आसपास की कॉलोनियों में रहते हैं, अपने घरों के करीब होने की गरज़ से अपने बच्चों का दािखला यहां करा देते हैं। और इस प्रकार जब ऐसे स्कूलों को कु छ प्रसिद्धि प्राप्त हो जाती है तो संचालक यह समझ बैठता है कि चूंकि अब उसकी ‘दुकान’ चल पड़ी है इसलिए वह अपने ग्राहकों से जब, जैसे और जिस नाम पर जितने चाहे पैसे वसूल सकता है।

भारत सरकार तथा राज्य सरकारें भी भारतीय समाज को साक्षर करने के लिए तरह-तरह की योजनाएं लागू कर रही हैं। यहां तक कि प्रौढ़ शिक्षा व शिक्षा के अधिकार जैसा कार्यक्रम भी चलाया जा रहा है जिसमें कि उम्रदराज़ लोगों सहित सभी नागरिकों को शिक्षित करने का प्रयास किया जा रहा है। निजी स्कूलों में भी गरीब बच्चों को शिक्षा देने हेतु उनका कोटा निर्धारित कर दिया गया है। हरियाणा में निजी स्कूल संचालित करने के लिए कई कड़ी शर्तें भी लागू की जा चुकी हैं। परंतु निजी शिक्षण संस्थाओं द्वारा अभिभावकों को लूटने पर शायद कोई पाबंदी नहीं है, न ही इसके लिए कोई कारगर क़ानून बनाया गया है। तमाम निजी स्कूल मनमाने तरीके से प्रत्येक वर्ष 25 से लेकर 30 प्रतिशत तक फीस बढ़ा रहे हैं। एक कक्षा में पास होने के बाद बच्चा जब अगली कक्षा में जाता है तो भी उसे अपने ही स्कूल में उसी प्रकार प्रत्येक वर्ष रजिस्ट्रेशन करवाना पड़ता है जैसे कि नवांगतुक बच्चों का कराया जाता है। गोया प्रत्येक वर्ष रजिस्ट्रेशन फीस के नाम पर लूट का लाईसेंस। बच्चों के अभिभावकों की हैसियत का अंदाज़ा लगाकर अपने निजीभवन के निर्माण के लिए निर्धारित ‘डेवल्पमेंट फ़ंड’ के नाम पर उनसे मनमजऱ्ी के पैसे वसूलना और गरीब व मध्यम वर्ग के अभिभावकों से भी डेवेल्पमेंट के नाम पर ठगी करना। इसके अतिरिक्त टर्म फीस,ऐक्टिविटी फीस, एडमिशन फीस, लैब फीस, कंप्यूटर फीस, खेल-कूद शुल्क, मनोरंजन शुल्क, पिकनिक शुल्क, मेला व सांस्कृतिक आयोजन फीस और तमाम चीज़ों के नाम पर अभिभावकों की जेबें ढीली की जाती रहती है। इसके अतिरिक्त तमाम स्कूल बच्चों को किताबें,कापियां, बैग यहां तक कि यूनीफार्म भी अपने स्कूल से ही खरीदने के लिए बाध्य करते हैं। और हद तो अब यह हो गई कि स्कूल में बच्चों को जूते भी खरीदने के लिए मजबूर किया जाने लगा है। जिस स्कूल में प्रधानाचार्या द्वारा जूते बेचने की घटना घटी है,अभिभावाकों के अनुसार इस स्कूल में गत वर्ष पांचवीं कक्षा की फीस 5100 रुपये मासिक थी जोकि इस बार बढ़ाकर 7850 रुपये कर दी गई है। सोचा जा सकता है कि स्कूल के मालिकों द्वारा धन उगाही के लिए किस प्रकार की मनमानी की जा रही है। यही वजह है कि सेंट जोज़ेफ स्कूल अंबाल का मामला अब तीन दिवसीय धरने प्रदर्शन के बाद उपायुक्त अंबाला व शिक्षा अधिकारी तक पहुंच गया है तथा उच्चाधिकारियों द्वारा मामले में दखल दिया जा रहा है।
उपरोक्त स्कूल की खुलेआम लूट से तंग अभिभावकों ने यहां तक धमकी दे डाली है कि यदि उनकी समस्याओं का समाधान नहीं हुआ व उनके साथ होने वाली लूट का सिलसिला बंद न हुआ तो वे भूख-हड़ताल पर भी जा सकते हैं। अभिभावकों ने तो अन्य सभी स्कूलों के उन अभिभावकों को भी सहयोग देने का मन बनाया है जो दूसरे ‘दुकानदारी’ करने वाले स्कूल संचालकों से दुखी व परेशान हैं। अपनी समस्याओं का समाधान न होने की स्थिति में इन अभिभावकों ने स्कूल का सत्र न चलने देने की धमकी भी दे डाली है। इस प्रकार की अनियंत्रित लूट-खसोट का सिलसिला केवल निजी स्कूलों ही नहीं बल्कि निजी महाविद्यालयों व निजी विश्वविद्यालयों द्वारा भी चलाया जा रहा है। परिणामस्वरूप बच्चों का कैरियर बने या न बने परंतु ऐसे व्यापारी प्रवृति के शिक्षण संस्थान संचालकों की जेबें ज़रूर भरती जा रही हैें। इन के भवन चाहे वह स्कूल-कॉलेज की इमारत हो या इनकी अपनी रिहाईशगाह इनमें खूब तरक्की दिखाई दे रही है।

सवाल यह है कि शिक्षा को व्यवसाय बनाने का सिलसिला क्या यूं ही चलता रहेगा? चंद धनलोभी स्कूल व कॉलेज संचालक लाखों अभिभावकों को मंहगाई के इस दौर में अपनी मनमजऱ्ी से जब और जैसे चाहें चूना लगाते रहेंगे? ऐसे स्कूल व कॉलेज संचालक सिर्फ अभिभावकों का ही शोषण नहीं करते बल्कि अपने शिक्षक व अन्य स्टाफ की तनख्वाह में भी बड़ी हेराफेरी करते हैं। यानी हस्ताक्षर तो अधिक मासिक आय पर कराए जाते हैं जबकि तनख्वाह कम देते हैं। सरकार को ऐसी मनमानी पर तत्काल रोक लगानी चाहिए तथा समय-समय पर पारदर्शी रूप से इनकी निगरानी करते रहना चाहिए। अन्यथा अभिभावकों का कभी-कभार फूटने वाला यह गुस्सा नियमित रूप से प्रकट होने वाले गुस्से का रूप भी धारण कर सकता है। और अभिभावकों, छात्रों व स्कूल प्रबंधकों के मध्य दरार स्थायी रूप से पैदा हो सकती है। और ऐसी तनावपूर्ण स्थिति न केवल बच्चों के भविष्य को बल्कि देश के भविष्य को भी प्रभावित कर सकती है।

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Nirmal Rani**निर्मल रानी

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं.

Nirmal Rani (Writer)
1622/11 Mahavir Nagar
Ambala City 134002 Haryana
phone-09729229728

*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely her own and do not necessarily reflect the views of INVC.

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