शहादत की बेजोड़ मिसाल:दास्तान-ए-करबला

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karbla invc news  { तनवीर जाफ़री } वैसे तो त्याग,तपस्या तथा बलिदान की कोई न कोई दास्तान दुनिया के लगभग सभी धर्मों तथा विश्वासों से ज़रूर जुड़ी हुई है। क्योंकि कालांतर में लगभग सभी धर्मों के प्रवर्तकों ने अपने अनुयाईयों को जहां सच्चाई की राह पर चलने की प्रेरणा दी तथा असत्य और ज़ुल्म के विरुद्ध आवाज़ बुलंद करने की शिक्षा दी,वहीं लगभग प्रत्येक दौर में असत्य,हिंसा तथा राक्षसी प्रवृति का अनुसरण करने वाले लोग भी इस संसार में सक्रिय रहे। ज़ाहिर है ऐसे दुष्ट लोगों के ज़ुल्मो-सितम का शिकार उन सद्मार्गी महापुरुषों को ही होना पड़ा। इस्लाम धर्म में भी ऐसी ही एक घटना जिसे दुनिया दास्तान-ए-करबला के नाम से जानती है, इराक के करबला नामक स्थान पर घटित हुई। करबला की दास्तान जहां सच्चाई,त्याग,सहनशक्ति,कर्तव्य,धर्मपरायणता तथा वफादारी की मिसाल पेश करती है वहीं इसी के दूसरे पक्ष में ज़ुल्म,बर्बरता,अधर्म,तथा हैवानियत व सत्ता लोभ का चरमोत्कर्ष नज़र आता है । आज के दौर में दास्तान-ए-करबला को जानने-समझने तथा इसकी प्रासंगिकता पर चिंतन करने की इसलिए और भी ज़रूरत है क्योंकि आज इस्लाम धर्म एक बार फिर संकट के उसी दौर से गुज़र रहा है जैसाकि यज़ीद के शासनकाल में देखा जा रहा था।

आज इराक व सीरिया में सक्रिय तथाकथित स्वयंभू इस्लामी शक्तियां काला लिबास पहनकर व हाथों में काले झंडे लेकर एक बार फिर यज़ीदी शासन काल के ज़ुल्मो-सितम की दास्तान को दोहराती फिर रही हैं। यह लोग महिलाओं के साथ बलात्कार कर रहे हैं। बाज़ारों में महिलाओं की मंडियंा लगाकर उन्हें नीलाम किया जा रहा है। बेगुनाह लोगों के सिर उनके शरीर से काटकर अलग किए जा रहे हैं। गोया दहशत,ज़ुल्म और बर्बरता का वही इतिहास दोहराया जा रहा है जो यज़ीद के शासन काल में यज़ीदी लश्कर द्वारा लिखा जाता था। आज से लगभग 1450 वर्ष पूर्व भी हज़रत मोहम्मद के नवासे हज़रत हुसैन ने यज़ीद जैसे दुष्ट,क्रुर व अत्याचारी सीरियाई शासक को एक इस्लामी राष्ट्र के मुस्लिम बादशाह के रूप में मान्यता देने से इंकार कर दिया था। और आज भी उसी यज़ीदियत की राह पर चलने वाले आईएस को दुनिया का कोई भी देश मान्यता देना तो दूर बल्कि उसकी सभी हिंसक गतिविधियों की घोर निंदा करता दिखाई दे रहा है। लगभग डेढ़ हज़ार वर्ष के लंबे अंतराल में इतना अंतर ज़रूर आ गया है कि उस समय हज़रत इमाम हुसैन ने यज़ीद जैसी मज़बूत व भारी-भरकम सेना अपने पास न होने के बावजूद अपने परिवार के 6 माह के बच्चे अली असगर से लेकर 80 वर्ष के पारिवारिक बुज़ुर्ग मित्र हबीब इबने मज़ाहिर जैसे वफादार साथियों की मात्र 72 लोगों की जांबाज़ टोली के साथ करबला के मैदान में विशाल यज़ीदी लश्कर का सामना करते हुए अपना व अपने साथियों का बलिदान देकर इस्लाम धर्म की रक्षा की थी। यदि हज़रत इमाम हुसैन ने उस समय अपनी कुर्बानी देकर यज़ीद के नापाक मंसूबों पर पानी न फेरा होता तो आज पूरी दुनिया में इस्लाम का वही भयानक रूप होता जो यज़ीदी विचारधारा रखने वाले अबु बकर अल बगदादी के नेतृत्व वाले संगठन आईएस का देखा जा रहा है। आज हुसैन व उन जैसी कुर्बानी की भावना रखने वाले लोग इस दुनिया में नहीं हैं। यही वजह है कि आईएस यज़ीदी अनुसरण कर्ताओं को उनकी ताकत का जवाब ताकत से ही देने का प्रयत्न किया जा रहा है। जिस विशाल यज़ीदी सेना को मात्र 72 लोगों ने अपनी कुर्बानी देकर परास्त कर दिया था तथा उसे नैतिक पतन की उस मंजि़ल तक पहुंचा दिया था कि आज यज़ीद न केवल ज़ुल्मो-सितम,क्रूरता व बर्बरता की एक मिसाल बन चुका है बल्कि आज कोई माता-पिता अपने बच्चे का नाम तक यज़ीद नहीं रखते।

हज़रत इमाम हुसैन ने 10 मोहर्रम यानी रोज़े आशूरा की एक दिन की करबला की लड़ाई में अपनी व अपने परिजनों की कुर्बानी देकर वह इतिहास लिखा जो रहती दुनिया में एक मिसाल के तौर पर याद किया जाता रहेगा। जबकि आज विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति अमेरिका     कई इस्लामी देशों का गठबंधन बनाने के बावजूद आईएस के विरुद्ध ज़मीनी संघर्ष करने से कतरा रही है। वह केवल हवाई हमलों का सहारा लेकर इनका मुकाबला करना चाह रही है और अमेरिकी प्रशासन के मुताबिक आई एस को समाप्त करने में तीन से चार वर्षों तक का समय भी लग सकता है। ज़ाहिर है इस बीच आईएस के काले कारनामे व उनके ज़ुल्मो-सितम की दास्तानें आए दिन लिखी जाती रहेंगी। जबकि हज़रत इमाम हुसैन ने अपने नाना पैगंबर-ए-रसूल हज़रत मोहम्मद व पिता हज़रत अली की प्रेरणा व उनकी शिक्षाओं से प्रेरित होकर तत्कालीन सीरियाई शासक यज़ीद के विरुद्ध अपनी जान देकर तथा अपने 6 माह के बच्चे अली असगर,18 वर्ष के जवान बेटे अली अकबर,भाई हज़रत अब्बास,भतीजे हज़रत कासिम व भांजे औन-ो-मोहम्मद जैसे सहयोगियों की कुर्बानियां देकर दुनिया के उस समय के सबसे बड़े व मज़बूत शासक यज़ीद को धूल चटा दी। उसी समय से यह कहावत प्रचलित हो चली है कि ‘मरो हुसैन की सूरत जियो अली की तरह’। गोया सच्चाई की राह पर चलने वालों को हिंसा,ज़ुल्म,अन्याय तथा अधर्म के विरुद्ध हर हाल में अपनी आवाज़ बुलंद करनी चाहिए। चाहे हाथों में तलवार उठाकर असत्य का नाश कर यह काम किया जाए या फिर अपनी जान की बाज़ी लगाकर अपनी व अपने परिवार के लोगों की कुर्बानियां देकर असत्य व अधर्म का मुकाबला किया जाए।

गौरतलब है कि यज़ीद अपने पिता मुआविया के बाद उत्तराधिकारी के रूप में शाम(आज का सीरिया)के सिंहासन पर बैठ गया। यज़ीद व्यक्तिगत रूप से अत्यंत दुराचारी,दुष्ट,अधर्मी,अत्याचारी तथा अत्यंत दुश्चरित्र व्यक्ति था। हज़रत मोहम्मद के सगे नाती होने के नाते हज़रत इमाम हुसैन, हज़रत मोहम्मद व अपने पिता हज़रत अली के देहांत के बाद इस्लाम धर्म से संबंधित नीतिगत फैसले लेने हेतु अधिकृत थे। उस समय किसी भी इस्लामी देश के शासक को हज़रत इमाम हुसैन द्वारा ही इस्लामी राज्य होने या न होने की मान्यता प्रदान की जाती थी। यज़ीद ने भी गद्दी पर बैठने के बाद हज़रत इमाम हुसैन से उसे इस्लामी राज्य शाम(सीरिया)का राजा स्वीकार करने का निवेदन किया। हज़रत इमाम हुसैन उस समय अपने नाना के शहर मदीने में रहा करते थे तथा वहीं से सभी इस्लामिक गतिविधियों संचालित हुआ करती थीं। यज़ीद के शाम की गद्दी पर बैठते ही पूरी दुनिया में उसके राक्षसी स्वभाव व उसकी दुश्चरित्रता के चर्चे होने लगे। पूरी दुनिया ने इस ओर नज़रें गड़ाकर देखना शुरु कर दिया कि देखें आिखर हज़रत इमाम हुसैन यज़ीद जैसे बदचलन व बदकिरदार बादशाह को एक इस्लामी हुकूमत के बादशाह की हैसियत से मान्यता प्रदान करते हैं अथवा नहीं। यजी़द ने पहले तो हज़रत इमाम हुसैन से वार्ताओं के द्वारा उन्हें अपने पक्ष में समझाने-बुझाने की कोशिश की। उसने अपने कई प्रतिनिधि मदीना भेजे। मगर हज़रत इमाम हुसैन ने प्रत्येक वार्तकार से यज़ीद को शाम का बादशाह तथा एक इस्लामी देश का सरबराह मानने से साफ इंकार कर दिया। उसके पश्चात यज़ीद ने हज़रत इमाम हुसैन को धमकियां देना शुरु कर दिया। उसने हज़रत इमाम हुसैन को कत्ल करने के लिए मदीना पर चढ़ाई करने की धमकी दी।

हज़रत इमाम हुसैन मदीना जैसे पवित्र स्थान पर लड़ाई व खून-खराबा नहीं होने देना चाहते थे। उन्होंने बिना खून-खराबे के बातचीत का समाधान निकालने की अंतिम कोशिश के रूप में अपने एक चचेरे भाई हज़रत मुस्लिम को शाम के दरबार में यज़ीद के पास अपना राजदूत बनाकर भेजा। हज़रत मुस्लिम को अपने ही शहर में यज़ीद के सैनिकों तथा उसके समर्थकों ने बड़ी ही बर्बरता के साथ मार डाला। यह भी विश्व इतिहास की अकेली ऐसी घटना है जबकि किसी वार्ताकार अथवा राजदूत की दूसरे देश के लोगों ने हत्या कर दी हो। इस घटना की खबर मिलते ही हज़रत इमाम हुसैन को यह समझने में देर नहीं लगी कि यज़ीद अब हमारे खून का प्यासा हो चुका है। उन्होंने इस्लाम धर्म की रक्षा का संकल्प कर तथा अपने साथ 72 परिजनों व सहयोगियों का एक छोटा सा दल लेकर मदीना छोडक़र इराक स्थित करबला कूच कर गए। और करबला में फुरात नदी के किनारे अपने तंबू गाड़ दिए। यज़ीद के लश्कर ने अपने सैनिकों से मोहर्रम की सात तारीख को हज़रत हुसैन के तंबू फुरात नदी के किनारे से दूर करवा दिए ताकि इन लोगों को पीने के लिए पानी न मिल सके। यज़ीद के इस आदेश का पालन करने वाले सेनापति जिनका नाम हुर था उन्हें भी यज़ीद का यह आदेश मानवता के विरुद्ध प्रतीत हुआ। और संभवत: इतिहास की यह भी एक अद्भुत घटना है कि वही यज़ीदी सेनापति हुर जिसने 7 मोहर्रम को यज़ीद का पक्ष लेते हुए हज़रत हुसैन के कैंप को फुरात नदी से दूर हटवाया था मात्र दो दिन बाद वही सेनापति हुर अपने बेटे व गुलाम के साथ 9 मोहर्रम की रात में हज़रत इमाम हुसैन से जा मिला और उनसे क्षमा मांग कर उन्हीं की ओर से यज़ीदी सेना के विरुद्ध सपरिवार युद्ध करने की इजाज़त मांगी। हज़रत इमाम हुसैन ने उसे गले लगाकर माफ किया। इतिहास गवाह है कि यज़ीद की सेना के विरुद्ध हज़रत इमाम हुसैन की ओर से युद्ध करते हुए करबला में सबसे पहली शहादत देने वाला वही सेनापति हुर तथा उसका बेटा व उसका गुलाम था। इस प्रकार सुबह से शाम तक की 10 मोहर्रम की मात्र एक दिन की लड़ाई में अपने पूरे परिवार व साथियों को इस्लाम के सिद्धांतों की रक्षा के लिए कुरबान कर हज़रत इमाम हुसैन ने पूरी दुनिया को साफतौर पर यह बता दिया कि इस्लाम ज़ुल्म,बर्बरता,हैवानियत तथा अत्याचार करने अथवा सहने का नहीं बल्कि धैर्य,कुर्बानी देने,सच्चाई की राह पर अपना सर्वस्व न्र्यौछावर कर देने तथा धर्म के पक्ष में अपनी आवाज़ बुलंद करने का नाम है। जब तक संसार कायम रहेगा तथा मानवता सलामत रहेगी तब तक हज़रत इमाम हुसैन व उनक परिजनों की कुर्बानी दुनिया के लिए एक प्रजवल्लित मशाल के रूप में रोशनी देती रहेगी।   तनवीर जाफरी

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columnist and AuthorAuthor Tanveer Jafri, Former Member of Haryana Sahitya Academy (Shasi Parishad),is a writer & columnist based in Haryana, India.He is related with hundreds of most popular daily news papers, magazines & portals in India and abroad. Jafri, Almost writes in the field of communal harmony, world peace, anti communalism, anti terrorism, national integration, national & international politics etc.

 He is a devoted social activist for world peace, unity, integrity & global brotherhood. Thousands articles of the author have been published in different newspapers, websites & news-portals throughout the world. He is also a recipient of so many awards in the field of Communal Harmony & other social activities

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