वर्तमान वैश्विक संकट से एक महत्त्वपूर्ण बात सामने आई है कि यह दुनिया एक नाव है और हम सभी उसमें सवार हैं। शांतिपूर्ण एवं समृध्द भविष्य को हासिल करने की हमारी संभावना हमारे इस एहसास पर निर्भर करती है कि यदि नाव ने यात्रा शुरू की है तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि हम उसके किस हिस्से में हैं। आज हम अपनी नियति को दूसरों की नियति सें अलग नहीं कर सकते और यदि हम अकेले चलने की कोशिश करते हैं तो हम विपदा को न्यौता दे रहे हैं। चाहे कोई देश विशेष के लिए ऊर्जा आत्मनिर्भरता की बात कर रहा हो या फिर अधिक मान्य वैश्विक ऊर्जा सुरक्षा की बात कर रहा हो- यह दोनों के लिए सही जान पड़ता है।
उदाहरणस्वरूप, भारत के विमानन क्षेत्र का विकास ऊर्जा सुरक्षा से जुड़ा है। केवल कुछ महीने पहले ही, तेजी से उभरने वाला भारतीय विमानन क्षेत्र को मंदी का मुँह देखना पड़ा, जबकि वह व्यापक विस्तार की उम्मीद कर रहा था। वैश्विक आर्थिक मंदी ने, मार्च 2008 से विमान ईंधन की लगातार बढती क़ीमत के प्रभाव के चलते किराया महंगा कर दिया, यात्रियों की संख्या काफी घटा दी तथा इस उद्योग की विकास योजना पर बहुत बुरा असर डाला।
इसलिए तेजी से बदलती इस परस्पर निर्भर दुनिया में हम ऊर्जा सुरक्षा यानि ऊर्जा आत्मनिर्भरता के लिए एक-दूसरे पर भरोसा करते हैं, जिसके तहत केवल पर्याप्त मात्रा में ऊर्जा आपूर्ति नहीं बल्कि उचित कीमत पर उत्तम ऊर्जा की आपूर्ति की सुनिश्चितता भी शामिल है। इससे सभी के लिए संपदा सृजन में मदद मिलेगी।
ऊर्जा हमारी अर्थव्यवस्था के लिए जीवनधारा है। उचित कीमत पर उपलब्ध ऊर्जा हमारी प्रतिस्पर्धा तथा जीवन स्तर के लिए केन्द्र बिन्दु है। हमारे समाज की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए ऊर्जा अत्यावश्यक है। पानी के बाद ऊर्जा तथा जलवायु परिवर्तन, वैश्विक सुरक्षा एवं विकास के लिए दो महत्त्वपूर्ण मुद्दे के रूप में उभरे हैं।
नागरिक विमानन के क्षेत्र में चाहे हवाई अड्डों का निर्माण और आधुनिकीकरण हो या नयी एयरलाइन सेवा का आंरभ, सभी भारत की विकास की कहानी पेश करते हैं। यदि भारत के विकास को बनाये रखना है तो ज्यादा व्यापार और यात्रा की आवश्यकता है तथा अधिकाधिक लोग यहां से विदेश जाएं और विदेश से यहां आएं। इसे हासिल करने के लिए ऊर्जा की निर्बाध आपूर्ति आधारित अत्याधुनिक अवसंरचनाएं आवश्यक हैं।
हालांकि भारत में तेल और गैस के भंडार बहुत सीमित हैं, लेकिन उत्खनन के जरिए हमेशा ही नये भंडार की खोज की संभावना बनी रहती है। जिस तरह से स्थिति आगे बढ रही है, उसमें कच्चे तेल के आयात पर होने वाले खर्च से अर्थव्यवस्था पर बहुत बड़ा बोझ आ जाएगा। ऐसे में ऊर्जा की बढती मांग से निबटने के लिए नई रणनीति ढूंढनी होगी।
इसलिए, विकास संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए ऊर्जा आत्मनिर्भरता की नई व्यवस्था की आवश्यकता है। इस व्यवस्था में कई मुद्दों पर ध्यान देना होगा जैसे-
• ऊर्जा की कम खपत वाला विकास
• गैर-पारम्परिक तथा नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों को अधिकाधिक इस्तेमाल ताकि कार्बन उत्सर्जन को कम किया जा सके।
• उत्पादन तथा उपभोग की कार्यकुशलता में सुधार।
ऐसी कोई भी रणनीति समन्वित विकास तथा घरेलू एवं वैश्विक संसाधनों के बुध्दमतापूर्ण इस्तेमाल पर आधारित होनी चाहिए। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में विकसित समेकित ऊर्जा नीति में मौजूदा ऊर्जा संसाधन विस्तार तथा नये एवं उभरते ऊर्जा स्रोतों पर ज्यादा बल दिया गया है। इसलिए, ऊर्जा आपूर्ति और उपलब्धता राष्ट्रीय विकास रणनीति का महत्त्वपूर्ण अंग है।
इस दृष्टि (लक्ष्य) को पाने का मतलब न केवल ऊर्जा मिश्रण विकिसत करना है, बल्कि उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण ऐसे प्रौद्योगिकियों पर बल देना है जो ऊर्जा कुशलता को यथासंभव बढाएं एवं मांग प्रबंधन तथा संरक्षण सुनिश्चित करें। सरकार परमाणु ऊर्जा के विकास के प्रति दृढसंक़ल्प है। जहां तक सौर ऊर्जा का प्रश्न है तो भारत में यह ऊर्जा स्रोत प्रचुर मात्रा में है तथा आने वाले वर्षों में यह प्रमुख ऊर्जा संसाधन हो सकता है। हालांकि सौर ऊर्जा के अधिकाधिक वाणिज्यिक उपयोग के लिए अनुसंधान एवं विकास के क्षेत्र खूब निवेश की आवश्यकता है।
आज मुख्य लक्ष्य है कि एक ऐसे जवाबदेह विकास के लिए काम किया जाए जो आर्थिक विकास का पर्यावरण सुरक्षा के साथ तालमेल सुनिश्चित करे। और इसे पाने के लिए उद्योग जगत को सरकार, गैर सरकारी संगठनों तथा नागरिक समाज के साथ मिलकर बहुत सोच-समझकर योजनाएं बनानी होंगी।
ऊर्जा आत्मनिर्भरता का भविष्य प्रौद्योगिकी में है, चाहे वह तेल, गैस, वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत, उपकरण उद्योग, वाहन या विमान का क्षेत्र हो। प्रौद्योगिकी एक दिशादृष्टि प्रदान करती है तथा इस मार्ग की तीन प्राथमिकताएं हैं-
• अभिनवीकरण के जरिए विविधीकरण
• परस्पर निर्भरता
• मानव संसाधन
हाल में कई तेल उत्पादक कंपनियां अपने आपको ऊर्जा उत्पादक के रूप में ढाल रही हैं। सभी तरह की ऊर्जा के लिए कठोर मार्ग का यह चलन मांग और आपूर्ति की असुरक्षा को आपूर्ति तथा मांग की सुरक्षा में बदलने की ओर एक बड़ा कदम है। नवीकरणीय समेत, कोयला, गैस तेल, पन बिजली तथा परमाणु ऊर्जा यानि ऊर्जा के सभी रूपों पर बल दिया जा रहा है। विश्व में ऊर्जा स्रोतों के लिए प्रतिस्पर्धा है। इस समस्या को केवल प्रौद्योगिकी अनुसंधान एवं विकास, तैनाती एवं स्थानांतरण में सहयोग बढाक़र दूर किया जा सकता है।
भविष्य में ऊर्जा और जलवायु परिवर्तन ऊर्जा कीमतों को बढ़ाने में लगातार महत्त्वपूर्ण कारक बन रहे हैं। वे संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा बढा रहे हैं। वैकल्पिक ऊजाओं में सार्वजनिक एवं निजी निवेश को बढा रहे हैं तथा ऊर्जा मांग, खासकर तेजी से उभर कर भारत जैसी अर्थव्यवस्थाओं में अथक विकास को चुनौती दे रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों का प्रचुर मात्रा में वितरण केवल बाजार शक्तियों तथा वाणिज्यिक हितों पर नहीं छोड़ा जा सकता। अन्यथा उन देशों तक स्वच्छ प्रौद्योगिकियां उपलब्ध नहीं होंगी जिन्हें ऊर्जा की सख्त जरूरत है तथा तेजी से उभर रहे हैं।
हमारे सम्मुख दूसरी चुनौती है कि जलवायु परिवर्तन निरीक्षक विकासशील देशों से ऊर्जा खपत तथा विकास को एक दूसरे को अलग रखने की उम्मीद करते हैं। पर भारत जैसे विकासशील देश एक ऐसी प्रणाली चाहते हैं जो उनकी अर्थव्यवस्था को विशेष स्वरूप देने में मदद करे। एक ऐसा स्वरूप जिसमें विकास तथा गरीबी घटाओ लक्ष्यों को बिना कोई नुकसान पहुंचाये अर्थव्यवस्था उत्सर्जन मुक्त हो। इसके लिए प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में काफी निवेश तथा वैकल्पिक ऊर्जा पहल के लिए धन की व्यवस्था करनी होगी। एक ऐसी वित्तीय प्रणाली स्थापित करनी होगी जो स्वच्छ ऊर्जा परियोजनाओं के लिए धन का प्रबंध कर सके तथा इसी के लिए भारत को वैश्विक सहयोग चाहिए।
अतएव, वैश्विक समुदाय के सम्मुख सबसे बड़ी चुनौती ऊर्जा उत्पादक तथा ऊर्जा उपभोक्ताओं के बीच बेहतर समझ विकसित करना है और इस समझ का आधार यह होना चाहिए कि परस्पर निर्भरता नई वैश्विक ऊर्जा व्यवस्था का केन्द्र होना चाहिए।
तेल, गैस तथा कोयला पर से विश्व की निर्भरता खत्म करने के लिए मेधा तथा प्रौद्योगिकी की दो पीढियां चाहिए। हालांकि नई मांग व्यवस्था, वैकल्पिक एवं नवीकरणीय स्रोत ही अंतत: प्रमुख होंगे। व्यवहार में ‘संचालन का लाइसेंस’ उन लोगों के पास होगी जो स्वच्छ उपकरणों (तेल कोयला और गैस के साथ) की दूसरी पीढी विकसित करेंगे। सबसे बड़ी चुनौती है कि अंतर्राष्ट्रीय मंच तथा ऊर्जा बाजार में कोई बखेड़ा खड़ा किये बगैर सुरक्षित ढंग से कैसे यहां तक पहुंचा जाए।
मानव संसाधन के मोर्चे पर भारत ऊर्जा कर्मियों की अगली पीढी क़ो प्रशिक्षित करके अपना प्रतिस्पर्धात्मक लाभ मजबूत कर सकता है। ऊर्जा उद्योग में कर्मियों की औसत आयु 46-49 वर्ष है यानि अन्य उद्योगों की तुलना में पूरे 10 साल अधिक है। तथा अधिकतर कुशल श्रमिक अगले दशक में सेवानिवृत्त हो जाएंगे। इससे बहुत बड़ा ज्ञान खाई पैदा होगा इसलिए कुशल ऊर्जा श्रमिकों के भंडार के नवीकरण के लिए सामूहिक प्रयास आवश्यक है।
अंतत:, ऊर्जा के उत्पादकों एवं उपभोक्ताओं के सम्मुख परस्पर निर्भरता का ही रास्ता होना चाहिए। जलवायु परिवर्तन तथा ऊर्जा आत्मनिर्भरता के आपस में मिलने से बदलाव की चुनौती हर देशों के सम्मुख है। इससे उबरने का उपाय एक ऐसी समझ है जो हितों के बीच संतुलन कायम करे। एक ऐसा संतुलन जो परस्पर निर्भरता तथा विश्वास पर आधारित है। हमें स्वच्छतर प्रौद्योगिकियों की साझेदारी से साझा विकास की आवश्यकता है। विकसित देशों को विकासशील देशों में स्वच्छ प्रौद्योगिकियों के विकास के लिए धन की व्यवस्थाकर उनके संपोषणीय विकास में योगदान करना चाहिए।
ऊर्जा व्यवसाय की प्रकृति ऐसी है कि हम कल, अगले महीने या अगले साल की बात नहीं कर रहे। विशाल निवेश से भी ग्रीनहाउस गैसों में कमी लाने में दशकों लग जायेंगे, रातोंरात कुछ बदलने वाला नहीं है। लेकिन इससे यह तथ्य बदल नहीं जाता है कि हम अभी भी जिस ऊर्जा का इस्तेमाल कर रहे हैं वह कठिन और अस्थायी है। ऊर्जा आत्मनिर्भरता विभिन्न देशें के बहुपक्षीय समझौते एवं सहयोग तथा वैज्ञानिक समुदाय की प्रतिबध्दता से ही आयेगी। सारे प्रयास सभी के लिए ऊर्जा सुरक्षा के वैश्विक ब्लूप्रिन्ट तैयार करने की दिशा में लक्षित होने चाहिए।
[लेखक प्रफुल्ल पटेल भारत सरकार में नागरिक उड्डयन राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) हैं]
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