वीडियो गेम तथा हिंसात्मक फिल्मों से बच्चे हिंसा की सीख ग्रहण कर रहे हैं

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**डा0 जगदीश गांधी
इन दिनों `वीडियो गेम´ के प्रति बच्चों की दीवानगी बढ़ती जा रही है। एक रिपोर्ट के अनुसार 82 प्रतिशत से अधिक किशोर हर हफ्ते औसतन 14 से 16 घंटे कंप्यूटर, वेब पोर्टल आदि पर गेम खेलने पर खर्च करते हैं। इनमें से 84 प्रतिशत बच्चों की दिलचस्पी मारधाड़ वाले गेम की ओर होती है। साथ ही हिंसात्मक तथा सेक्स से भरी फिल्में भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। स्क्रीन पर मारधाड़ मचाते किरदार बच्चों के नाजुक मन-मस्तिष्क पर असर डालते हैं। ऑडियो-विजिल माध्यम बच्चे के कोमल मस्तिष्क को आतंक फैलाने के लिए उकसाते हैं। लगभग सभी यंत्र चलित खेलों के हीरो गोलीबारी या भयंकर मार पिटाई के जरिए उन लोगों को राह से
हटाने में लगे रहते हैं जो उनके मिशन में रूकावट बनते हैं। यह हिंसात्मक द्वंद्व बच्चों के मन-मस्तिष्क में खीझ और गुस्सा भर देता है। वीडियो गेम तथा हिंसात्मक-सेक्स से भरी फिल्मों के कारण बच्चों के कोमल मस्तिष्क की सकारात्मकता नष्ट होने लगती है। छोटी उम्र से ही बच्चे नकारात्मकता, तनाव व अवसाद का शिकार होने लगते हैं।
 बच्चे के मस्तिष्क, मन तथा आत्मा को कठोरता से बचाना चाहिए
आरंभ में `समय काटने के लिए वीडियो खेलों का सहारा, धीरे-धीरे लत बन जाती है, और यही लत मनोविकार में बदल जाती है। वीडियो गेम्स बच्चों को सीधे तौर पर हिंसा के जरिए अपने लक्ष्य को प्राप्त करने का संदेश देते हैं। इसी से प्रभावित होकर बच्चे वीडियो `खेलों´ तथा गंदी फिल्मों के मायावी संसार को असल जीवन में भी लागू करने लगते हैं। पर्दे पर खेले जाने वाले ये हिंसात्मक खेल प्रतिकारक आनंद देते हैं।
बच्चों में बढ़ती अपराध वृत्ति स्वस्थ समाज के निर्माण में बड़ी बाधा है
कुछ समय पहले दिल्ली के मैक्स हैल्थ केयर, मनोरोग विभाग के प्रमुख डॉ. समीर पारिख ने बच्चों में बढ़ती अपराध वृत्ति पर एक सर्वेक्षण किया था। उनकी रिपोर्ट में कहा गया है कि हिंसात्मक फिल्में देखने के कारण बच्चों में हथियार रखने की प्रवृत्ति बढ़ी है। रिपोर्ट बताती है कि 14 से 17 वर्ष के किशोर हिंसात्मक वीडियो गेम खेलने तथा फिल्में देखने के शौकीन हो गए हैं। अमेरिका में हाल में हुए एक
अध्ययन के मुताबिक जिन बच्चों को कम उम्र में प्रताड़ित किया जाता है उसके बाद जीवन भर इस प्रताड़ना का गहरा असर देखने को मिलता है। समाज में देखें तो बच्चों में आपराधिक प्रवृत्ति के लिए एक तो उनके साथ किया गया क्रूर तथा उपेक्षापूर्ण व्यवहार जिम्मेदार है, तो दूसरी तरफ हमारे पूरे परिवेश तथा सामाजिक वातावरण में गहरे पैठे गैर-बराबरीपूर्ण आपसी रिश्ते तथा परत दर परत बैठी हिंसा की मनोवृत्ति जिम्मेदार है।
हम कैसा समाज अपने बच्चों के लिए छोड़कर जाना चाहते हैं
नन्हें बच्चे `वीडियो गेम´ में क्यों इतनी अधिक रूचि ले रहे हैंर्षोर्षो इसका सीधा सा उत्तर है, `बच्चों का अथाह अकेलापन´। दौड़ती-भागती जिंदगी और भौतिक सुखों तथा वस्तुओं की असीम चाह में, आज हर अभिभावक दिन रात की सीमाओं को लांघकर काम में जुटे हैं और अपने द्वारा दिए `अकेलेपन´ को भरने के लिए वह बच्चों के हाथों में `वीडियो गेम्स´ थमा देते हैं। अमेरिका और ब्रिटेन में बच्चों को खेलने-कूदने के लिए प्रोत्साहित करने के मकसद से पिछले दो दशकों से `प्लेडे´ मनाया जा रहा है। `खेलकूद´ बच्चों के शारीरिक, भावनात्मक, मानसिक, शैक्षणिक और बौद्धिक विकास के लिए ही जरूरी नहीं है, बल्कि उनमें सामाजिकता और व्यवहारगत कुशलता
विकसित करने में भी इसकी भूमिका है। बच्चों में योग, आसन, खेलकूद का लोप मौजूदा समय की बड़ी चुनौती है। इस दिशा में समाज के शुभचिंतकों को गंभीरता से सोचना होगा कि हम कैसा समाज अपने बच्चों के लिए छोड़कर जाना चाहते हैं।
 सृजनात्मक तथा कलात्मक कार्यों में प्रतिभाग करने के लिए बच्चों को प्रेरित करें
भारत में बच्चों में खेलों के प्रति रूचि पैदा करने के लिए कोई खास नीति नहीं है। ब्रिटेन ने 1991 में ही बच्चों के अधिकारों के बारे में संयुक्त राष्ट्र समझौते को अपना लिया था। जिसमें `प्ले डे कैंपेन´ भी शामिल था, जिसके तहत बच्चों के लिए खेलों को अनिवार्य किया गया और यह सुनिश्चित किया गया कि ब्रिटेन में सभी बच्चे खेलों में हिस्सा लें। इस बारे में संयुक्त राष्ट्र का जो घोषणा पत्र है वह केवल पारंपरिक खेलों को ही शामिल नहीं करता बल्कि इसमें `प्ले´ से मतलब बच्चों के ऐसे समय से है जिसमें वे आराम करें, खेलें, अपने रूचि की सृजनात्मक और कलात्मक गतिविधियों में समय बिताएं। हमारे देश को भी ऐसी ही नीति की जरूरत है।
घर की चारदीवारी के अंदर भी बच्चा अब सुरक्षित नहीं है
आज घर-घर में केबिल/डिश टी0वी0 हेड मास्टर की तरह लगे हैं। टी0वी0 तथा इंटरनेट की पहुंच अब बच्चों के पढ़ाई के कमरे तथा बेडरूम तक हो गई है। प्रतिदिन टी0वी0, इंटरनेट तथा सिनेमा के माध्यम से सेक्स, हिंसा, अपराध, लूटपाट, निराशा, अवसाद तथा तनाव से भरे कार्यक्रम दिखाए जा रहे हैं। बच्चे इन कार्यक्रमों से अपराध, सेक्स, हिंसा, लूटपाट आदि के रास्तों पर चलने की गलत सीख ग्रहण कर रहे हैं।
आइए, बच्चों की पवित्रता, कोमलता तथा निष्कपटता को बचाने का अभियान चलाए

बच्चे बडे निष्कपट होते हैं। परमात्मा की पवित्रता और निश्छलता यदि कहीं है तो उसे बच्चों में स्पष्टत: देखा जा सकता है। बच्चे के मस्तिष्क, मन और आत्मा को कठोरता से बचाना हमारी प्रमुखता होनी चाहिए। निर्मल तथा कोमल भावना ही बच्चों के अंत:करण की भाषा है, जिसके माध्यम से ईश्वरानुभूति सहज ही की जा सकती है। आधुनिक युग में सर्वाधिक अजूबा मानव शिशु को ही माना जा सकता है। घर में माता-पिता तथा स्कूल में टीचर्स बच्चों की सृजनात्मकता को नष्ट करने वाले वीडियो गेम से दूर रखने की आत्मीयतापूर्ण सीख तथा जागरूकता बरते।
 बच्चे ही हमारी असली पूंजी हैं
जैसे-जैसे बच्चा बढ़ता है उसी तरह हमारी जिम्मेदारी भी उसके प्रति बढ़ती है। अत: हमें भी बच्चे की मानसिक विकास के अनुरूप बदलना चाहिए। यदि आप अपने बच्चे को बाल्यावस्था में संस्कार-व्यवहार को विकसित होने के लिए स्वस्थ वातावरण नहीं देते हैं तो युवावस्था में गुणों के अभाव में उसे जीवन की परीक्षा में सफल होने में कठिनाई होती है। अभिभावक उस समय उसके आस-पास नहीं होते हैं। गुणों को विकसित करने की सबसे अच्छी अवस्था बचपन की होती है।
बालक की स्वतंत्रता का सम्मान करें
कई अभिभावक अज्ञानतावश अपने बच्चों को स्वतंत्रता के प्रति कड़ा रूख अपनाते हैं। यह मानव स्वभाव की एक सच्चाई है कि मनुष्य दूसरे की अपेक्षा स्वयं से नियंत्रित होने में ज्यादा सहजता महसूस करता है। बालक को एक स्वतंत्र इकाई के रूप में विकसित होने के अवसर देने से उनके अंदर स्वयं को आदेश देने की भावना का विकास होता है। बालक में गुणों को अपनाने का स्वभाव विकसित कर देने से वह आत्मानुशासित बनता है।
च्चों को आध्याित्मक रूप से शक्तिशाली बनाएं
आज के युग में बच्चों पर निवेश करने की सबसे अच्छी चीज है उनके हृदय में विश्व एकता तथा पारिवारिक एकता के अच्छे संस्कारों का बीजारोपण करना। एक बालक का निर्माण सारे विश्व को बेहतर बनाने की एक शुरूआत है। मानवता की सेवा करने वाले हाथ उतने ही धन्य होते हैं जितने परमात्मा की प्रार्थना करने वाले होंठ। परमात्मा का नाम ही मेरा आरोग्य तथा उसका स्मरण ही मेरी औषधि है। हे मेरे ईश्वर हे मेरे परमेश्वर मेरे हृदय को निर्मल कर मेरी आत्मा में तू अपनी खुशियों का संचार कर। तू मुझको राह दिखाता तू है मेरा आश्रयदाता। अब शोकाकुल नहीं रहूंगा मैं आनिंदत व्यक्ति बनूगा। प्रभु हमारा सबसे अच्छा मित्र है। उस शक्तिशाली के प्रति पूरी
तरह समर्पण ही जीवन की सफलता का रहस्य है। साथ ही आध्याित्मक रूप से भी शक्तिशाली बनने का फल है।
 आधुनिक विद्यालय का सामाजिक उत्तरदायित्व
आधुनिक जागरूक विद्यालय का सामाजिक उत्तरदायित्व है कि वह सुंदर, स्वस्थ, समृद्ध, आनिंदत एवं सशक्त समाज के निर्माण के लिए समाज के प्रकाश का केंद्र बने। बच्चों को परिवार, स्कूल तथा समाज रूपी तीन विद्यालयों के क्लासरूम में बाल्यावस्था से ही (1) उद्देश्यपूर्ण भौतिक, सामाजिक और आध्याित्मक ज्ञान की संतुलित शिक्षा दे, (2) धर्म के वास्तविक उद्देश्य अर्थात एकता के महत्व से परिचित कराए तथा (3) कानून और न्याय पर चलने से संबंधित मौलिक सिद्धांतों का बचपन से ही छात्रों को ज्ञान कराए तथा उन पर चलने का अभ्यास कराए।
लेखक ,
**डा0 जगदीश गांधी,

**Dr Jagdish Gandhi
Founder Manager, City Montessori School* (CMS)
Founder, World Movement for World Unity Education
Founder, World Movement for the Rights of the Children
Convenor, International Conference of Chief Justices of the World on
Article 51 of the Constitution of India
Head Office: 12, Station Road, Lucknow INDIA
Mobiles: 9415015030, 9336666636

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