वर्गीय विभाजन को बनाए रखने वाले साँस्कृतिक हथियार के रूप में अंग्रेजी व्यवस्था

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” भारतीय समाज में अंग्रेजी सिर्फ भाषा नहीं, वर्गीय विभाजन को बनाए रखने का व्यवस्था-जनित साँस्कृतिक हथियार भी है ।


यह लेख इसी बात को उजागर करता है “

{ अश्विनी कुमार } भगत सिंह ने कहा था, “मुझे विश्वास है कि आने वाले 15-20 सालों में ये गोरे मेरे देश को छोड़ कर जाएंगे। पर मुझे डर है कि आज जिन पदों पर ये ‘गोरे अंग्रेज’ विराजमान हैं, उस पर यदि ‘काले अंग्रेज’ विराजमान हो जाएंगे तो हमारी लड़ाई और भी कठिन हो जाएगी।” भगत सिंह की इस घोषणा के लगभग 17 साल बाद ‘गोरे अंग्रेज’  तो चले गये। पर जाते जाते वे सत्ता ‘मैकाले के मानस पुत्रों’ अर्थात ‘काले अंग्रेजों’ को सौंप गये। फिर क्या था, सरकार बदली, झंडा बदला, रंगाई-पुताई के साथ राज-व्यवस्था को भी नया रंग रूप मिला, पर राजसत्ता का ढाँचा नहीं बदला। जी हाँ! राजसत्ता का स्वरूप वही का वही रहा। एक तरीका जिसके माध्यम से तीन लाख अंग्रेज तीस-चालीस करोड़ अविभाजित हिन्दुस्तानियों को नियंत्रित करते थे। यह तंत्र ही विरासत के रूप में काले अंग्रेजों को प्राप्त हुआ। अंग्रेजों के समय से ही भारतीय समाज में अंग्रेजीयत का वर्चस्व अंग्रेजों द्वारा राजसत्ता में सहयोग के लिए पैदा किये के सहभागी दलाल वर्ग का सांस्कृतिक वर्चस्व रहा है । 200 साल के अंग्रेजों के राज में, अंग्रेजीदां वर्ग ही भारतीय समाज में उच्च एलिट वर्ग के रूप में स्थापित हुआ । यह वर्ग ही सत्ता के हर शीर्ष पर काब़ीज भी हुआ और सत्ता 1947 में हुए हस्तांतरण के बाद भी शीर्ष पर ही बना रहा है । स्पष्ट है, झंडा बदला पर डंडा वही का वही रहा । भारतीय समाज में अंग्रेजी इस वर्ग की ही भाषा है । अंग्रेजीयत का वर्चस्व इस वर्ग का ही राजनैतिक, आर्थिक एवं साँस्कृतिक वर्चस्व भी है । अंग्रेजी, वर्चस्व के हथियार के रूप में राजनैतिक. आर्थिक एवं ज्ञान की सत्ता को इस देश की 3% आबादी तक समेटे रखती है । अतः यह अंग्रेज़ीयत का सिस्टम ही भ्रष्टाचार, गैर-बराबरी और शोषण की व्यवस्था का मूल कारण है ।

अभी हाल ही में उठे विवाद का केन्द्र सिविल सेवा चयन हेतु ली जाने वाली सी-सैट की परीक्षा है । पर 2011 से सी-सैट  लागू कर यूपीएससी द्वारा प्रारंभिक परीक्षा के स्वरूप में जो परिवर्तन किया गया है । वह ‘इंग्लिश मीडियम सिस्टम’ द्वारा व्यवस्था को 1-2% के अंग्रेजीदां वर्ग तक समेटे रखने के लिए ही है । वैसे कॉम्प्रिहेंशन अपने आप में टेस्टिंग का बुरा टुल नहीं है । पर अंग्रेजीदा वर्ग के अनुरूप कॉम्प्रिहेंशन तैयार करने एवं उसका ‘मैकेनिकल सरकारी-हिन्दी’ में अनुवाद करने की वजह से ही समस्या कलिष्ट हुई है । यूपीएससी की इस परीक्षा ने यह भी सिद्ध किया कि अच्छे सिद्धान्त को किस तरह बुरे उद्देश्य के लिए प्रयोग किया जा सकता है । ऐसा भी नही है कि यूपीएससी के द्वारा 2011 से पहले ली जाने वाली परीक्षा भेद-भाव से मुक्त थी । यदि हम 2011 से पूर्व के ग्राफ को भी देखें तो पाते हैं कि प्रारंभिक परीक्षा में बेशक हिन्दी समेत अन्य भाषा माध्यमों से औसतन 45% प्रतिशत अभ्यार्थीं पास होते होते थे, पर साक्षात्कार के बाद का आँकड़ा औसतन 10-12 % या उस से भी कम रहा जाता था। समस्त भारतीय भाषा माध्यमों से भारतीय सिविल सेवा में चयनित होने वाले उम्मीदवारों की संख्या अपवाद के रूप में 2009 में 26% हुई है । अतः इस परीक्षा के पुराने पैटर्न में भी अंग्रेजीदां वर्ग का ही दबदबा बना हुआ था । यूपीएससी की शेष परीक्षाओं में से अधिकतर अंग्रेजी में ही संपन्न होती हैं । चाहे वह भारतीय आर्थिक सेवा परीक्षा  हो या भारतीय वन सेवा परीक्षा,  सभी परीक्षाओं में अंग्रेजीदां वर्ग का दबदबा बना हुआ है। वही हाल एस.एस.सी., डी. एस. एस. एस. बी. और बैंकिंग की परीक्षाओं का भी है । वहाँ पर भी अंग्रेजी एक अनिवार्य पत्र के रूप में रहती है । डीएसएसएसबी ने तो शिक्षकों के चयन की मुख्य परीक्षा पत्र की जाँच हेतू अंग्रेजी के वर्णात्मक परीक्षा में पास होने की अनिवार्यता की शर्त भी लगा दी है ।  (स्रोत्र – यूपीएससी रिपोर्ट, डीएसएसएसबी वेबसाईट आदि) सच्चाई यह है कि जिस भी परीक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता है, वह अंग्रेजीदा वर्ग को 50-100% तक आगे बढ़ाती है और गैर-अंग्रेजीदा  वर्ग अर्थात ग्रामीण, कस्बाई, निम्न एवं निम्न मध्यमवर्गीय आबादी को 30-100% प्रतिशत तक पीछे धकेलती है । इनकी परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता इसलिए रखी जाती है कि अंग्रेजी के सहारे इस देश की ग्रामीण,कस्बाई गैर-अंग्रेजीदा वर्ग को सत्ता के गलियारे से दूर रखा जा सके ।

यू.पी.एस.सी. ने सी–सैट की नई प्रणाली का विरोध करने वाले अभ्यार्थियों की आवाज को अनसुना कर दिया । पहले की भांति  इसबार भी (2014) सिवल सेवा परीक्षा में भी मूल प्रश्न-पत्र अंग्रेजी में बनाकर हिन्दी में महज़ कलिष्ट एवं कृत्रिम अनुवाद भर ही किया । इस अनुवाद में प्रचलन से बाहर के शब्दों का प्रयोग किया जाता है । जो पढ़ने में तो संस्कृतनिष्ट- तत्सम शब्द प्रतित होते है । पर हकिकत में उनका प्रचलन में कही कोई प्रयोग नहीं होता है । इन अप्रचलित शब्दों ने ही अभ्यार्थियों को गुमराह किया । पर यह समस्या सिर्फ सी-सेट परीक्षा की नहीं । आप किसी भी सरकारी डॉक्यूमेंट को उठा ले और चौराहे पर ले जाकर पढ़ भर दे । फिर पता लगा ले कितने लोग इस सरकारी हिन्दी को समझ पाते है । सच्चाई तो यह है कि जिस हिन्दी का विरोध हमारे तमिलत-तेलगू भाषी भाई करते है, वह सरकारी-कृत्रिम-एसी कमरों में बैठ कर गढ़ी गयी हिन्दी तथाकथित हिन्दी भाषी क्षेत्र के लोगों की समझ से बाहर की है । युरोप और अमेरिका की सरकारों के सरकारी दस्तावेज मामूली से  मामूली पढ़ा लिखा व्यक्ति समझ सकता है । पर भारत में स्थिती कुछ भिन्न है । अंग्रेजी तो है ही परदेशी पर उस अंग्रेजी के अनुवाद के अनुरूप गढ़ी गयी हिन्दी और भी अधिक कलिष्ट और कृत्रिम है । सी-सेट आन्दोलन हकिकत में प्रचलन से बाहर की इस कृत्रिम हिन्दी अनुवाद के विरूद्ध ही किया गया आन्दोलन था । जिसे सरकार द्वारा “अनिवार्य अंग्रेजी के प्रश्नो में” छूट देकर इतिश्री करने की कोशिश की गई । अभ्यार्थी न तो कॉम्प्रिहेंशन के खिलाफ थे न रिजनिंग के । अभ्यार्थियों की मुख्य मांग तो मूल प्रश्नों को भारतीय भाषाओं में बनाए जाने की ही थी । जिसका सरकार ने न केवल अवहेलना की बल्कि आन्दोलन को गुमराह करने के लिए साम-दाम-दंड-भेद सभी उपायों का प्रयोग किया । अंत में पूर्ण अहिंसात्मक रूप से चलने वाले इस आन्दोलन को समाप्त करने के लिए न केवल दमनात्मक उपाय ही अपनाए अपितु आई ए एस अभ्यार्थियों के गढ़ कहलाने वाले मुखर्जी नगर क्षेत्र को अघोषित तौर कर्फ्यू की स्थिति भी पैदा कर दी । सरकार यही तक नही रुकी, उसने अभ्यार्थियों में भय पैदा करने हेतू  निर्दोष अभ्यार्थियों पर पुलिस केस भी दर्ज किये ।

संवैधानिक संस्था यूपीएससी, डीएसएसएसबी, राज्यों की पीसीएस, एवं गैर संवैधानिक  संस्था यूजीसी, आई.आई.टी.,आई.आई.एम आदि बैरिकेटिंग एजेंसी भर हैं । जो इस सिस्टम को बनाए ऱखने का काम करती है । भारत में अंग्रेजी सिर्फ भाषा नहीं व्यवस्था है । भारत के संविधान की धारा 348, 343(2),120,210,147 ने अंग्रेजी को व्यवस्था बना दिया है । अंग्रेजी की अनिवार्यता इस संविधान जनित व्यवस्था का ही परिणाम है । आने-जाने वाली सरकारे ऑपरेटिंग  एजेंसी  के रूप में इस व्यवस्था को ही पोषने का काम करती है । इसलिए भारतीय भाषा आन्दोलन से जुड़ें अटल बिहारी बीजपेई भी सता में आने के बाद न केवल अंग्रेजीदा व्यवस्था के सामने घुटने टेके बल्कि यूपीएससी के बाहर चल रहे धरने को भी उखाड़ फैका ।  यही हाल मोदी सरकार का है । एक तरफ मोदी देश से बाहर जाकर हिन्दी में भाषण देते है, तो दूसरी तरफ उन्हीं की सरकार भारतीय भाषाओं में मूल प्रश्न पत्र बनाने की मांग को लेकर चल रहे सी-सेट आन्दोलन का दमन किया ।

जी हाँ साथियों ! इंग्लिश मीडियम सिर्फ़ स्कूल ही नहीं होते, इंग्लिश  मीडियम अदालतें भी होती हैं। इंग्लिश मीडियम संसद के कानून भी होते हैं, पी.एम.ओ. समेत सम्पूर्ण नौकरशाही का ढाँचा इंग्लिश मीडियम ही है। और इन सबको पोसने एवं बचाए रखने का काम इंग्लिश मीडियम विश्वविद्यालय, एम्स, आई.आई.टी., आई.आई.एम, यु.पी.एस.सी., डी.एस.एस.एस.बी आदि जैसे संस्थान करते हैं । यही अल्पतांत्रिक ‘इंग्लिश मीडियम सिस्टम’ ‘भ्रष्टाचार’, ‘शोषण’,  ‘गैरबराबरी’ की व्यवस्था पर‘साँस्कृतिक ठप्पा’ लगाता है । स्कूल ! ओह ! स्कूल तो बेचारे इसलिए इंग्लिश मीडियम खुलते हैं क्योकि ये सभी संस्थाएँ इंग्लिश मीडियम कल्चर को पैदा करती हैं। स्कूल व्यवस्था राजसत्ता की उपव्यवस्था है। स्कूली व्यवस्था की प्रकृति वैसी ही होगी, जैसी राज सत्ता की होगी। चूंकि राज सत्ता गैर बराबरी को बनाए रखने वाली ‘इंग्लिश मीडियम वर्ग’ द्वारा पोषित है । अतः स्कूली व्यवस्था भी ‘बहुस्तरीय इंग्लिश मीडियम’ केन्द्रित है। जब तक राजव्यवस्था गैरबराबरी की ‘इंग्लिश मीडियम’ प्रकृति की रहेगी, तब तक स्कूली व्यवस्था भी गैरबराबरी की ‘इंग्लिश मीडियम’ प्रकृति की रहेगी। जब तक राजसत्ता ‘इंग्लिश मीडियम वर्ग’ के हाथ में रहेगी, तब तक ‘इंग्लिश मीडियम सिस्टम’ का शोषण, दमन और भ्रष्टाचार भी कायम रहेगा । इंग्लिश मीडियम शिक्षाव्यवस्था समाजिक स्तर का निर्धारण करने वाले के हथियार के रूप में ‘इंग्लिश मीडियम राजव्यवस्था’ के प्रति वफादार लोगों को ही ‘इंग्लिश मीडियम सिस्टम’ में स्थान देती है। ‘इंग्लिश मीडियम राजव्यवस्था’ ‘इंग्लिश मीडियम शिक्षा’ के माध्यम से ही अपने आप को सुरक्षित रखने का घेरा तैयार करती है। ‘इंग्लिश मीडियम एजुकेशन’ व्यवस्था के दास के रूप में देश की ग्रामीण, कस्बाई, निम्न एवं निम्न मध्यमवर्गीय आबादी को मुख्यधारा से दूर रख सत्ता के शीर्ष को उच्चवर्गीय एलीट क्लास के लिए आरक्षित रखता है। यूपीएससी, आईआईटी, एम्स, आईआईएम और तमाम अति विशिष्ट माने जाने वाले विश्वविद्यालय जैसे – जेएनयू, डीयू., ये सभी के सभी संस्थान अंग्रेजीयत के सामाजिक वर्चस्व का सांस्कृतिक बोध पैदा करने का ही काम करते है। अंग्रेजीदां बनने की चाह ने इस देश को अपने मोहपाश में इस कदर जकड़ा रखा है कि समाज का हर तबका अपना सब कुछ दांव पर लगा कर अपनी भाषा का शुद्धिकरण की चाह रखता है। भोजपुरी, मैथली, बांगड़ी बोलने वाले बैकवर्ड कहलाएंगे और दो लाईन अंग्रेजी में गिट-पिटाए नहीं कि मॉर्डन हो जाएंगे। अंग्रेजीदां बन हर कोई गिट-पिटाना चाहता है । पर यह अंग्रेजी ही है, जो इस देश की 95 प्रतिशत ग्रामीण, कस्बाई, निम्न एवं निम्न मध्यमवर्गीय मेहनतकश तबके को व्यवस्था से दूर रखने का काम करती है। .. और साथ यह ज्ञान, पूंजी, नौकरशाही, राजनीति के शीर्ष को 3 प्रतिशत ऊपरी तबके तक के लिए सुरक्षित भी रखती है। बस यहीं से ‘भ्रष्टाचार’, ‘शोषण’, ‘गैरबराबरी’ गड़बड़ झाला शुरू होता है। अंग्रेजीयत ही ‘भ्रष्टाचार’, ‘शोषण’,  ‘गैरबराबरी’ के सांस्कृतिकरण करने का काम करती है। अंग्रेजी को सिर्फ भाषा समझना उसकी ताकत को कम कर आंकना है। अंग्रेजी सिर्फ भाषा नहीं भारतीय समाज में वर्चस्व का बोध भी है। जो राजनीति-ज्ञान और पूंजी की सत्ता को मैकाले के मानस पुत्रों तक समेटे रखती है ।

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ashvani kumarअश्विनी कुमार

मूलतः बिहार के सिवान जिले का रहने वाला, पर पैदाईस और परवरिस हरियाणा के हिसार जिले मे हुई ।
हिसार के राजकीय कॉलेज(कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय से संबद्ध) स्नातक और परास्नातक(अर्थशास्त्र) में करने के पश्चात दिल्ली आया ।
जीविका के लिए निजी स्कूलो में अर्थशास्त्र पढ़ाना प्रारंभ किया । कार्य से अवकाश लेकर भी.एड और एम एड किया । वर्तमान में निजी कॉलेज में पढ़ा रहा हूँ ।
साम्यवादी-समाजवादी व्यवस्था के लिए चलने वाले आन्दोलनों से संबंध रहा । समानशिक्षा व्यवस्था के लिए के संघर्षरत । जनभाषा में जनशिऔर जनव्क्षायवस्थाव का पक्षधर
जनभाषा-जनशिक्षा-जनचेतना तब जन क्रांति में विश्वास……….  

*Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely his  own and do not necessarily reflect the views of INVC.

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