वर्गीय विभाजन को बनाए रखने वाले साँस्कृतिक हथियार के रूप में ‘इंग्लिश’ उर्फ ‘अंग्रेजी’

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{ अश्विनी कुमार ‘सुकरात’ } भगत सिंह ने कहा था, “मुझे विश्वास है कि आने वाले 15-20 सालों में ये गोरे मेरे देश को छोड़ कर जाएंगे। पर मुझे डर है कि आज जिन पदों पर ये ‘गोरे अंग्रेज’ विराजमान हैं, उस पर यदि‘काले अंग्रेज’ विराजमान हो जाएंगे तो हमारी लड़ाई और भी कठिन हो जाएगी।” भगत सिंह की इस घोषणा के लगभग 17 साल बाद ‘गोरे अंग्रेज’  तो चले गये। पर जाते जाते वे सत्ता ‘मैकाले के मानस पुत्रों’ अर्थात ‘काले अंग्रेजों’ को सौंप गये। फिर क्या था, सरकार बदली, झंडा बदला, रंगाई-पुताई के साथ राज-व्यवस्था को भी नया रंग रूप भी मिला, पर राजसत्ता का ढाँचा वही का वही रहा ।

वही अंग्रेजी कानून, वही अंग्रेजी शिक्षाव्यवस्था । जी हाँ! राजसत्ता का स्वरूप नहीं बदला। एक तरीका जिसके माध्यम से तीन लाख अंग्रेज तीस-चालीस करोड़ अविभाजित हिन्दुस्तानियों को नियंत्रित करते थे। यह तंत्र ही विरासत के रूप में काले अंग्रेजों को प्राप्त हुआ। अंग्रेजों के समय से ही भारतीय समाज में अंग्रेजीयत का वर्चस्व अंग्रेजों द्वारा राजसत्ता में सहयोग के लिए पैदा किये के सहभागी दलाल वर्ग का सांस्कृतिक वर्चस्व रहा है । 200 साल के अंग्रेजी राज में, अंग्रेजों का सहभागी-सहयोगी अंग्रेजीदां वर्ग ही भारतीय समाज में उच्च एलिट वर्ग के रूप में स्थापित हुआ । यह वर्ग ही शिक्षा, नौकरशाही, कांग्रेस, अंग्रेजों के सहयोगी समाजसेवकों अर्थात सत्ता के हर शीर्ष पर काब़ीज भी हुआ और 1947 में हुए सत्ताहस्तांतरण के बाद भी शीर्षत् पदों पर बना रहा है । स्पष्ट है, झंडा बदला पर डंडा वही का वही रहा । भारतीय समाज में अंग्रेजी ‘मैकाले के मानस पुत्रों’ की ही सुविधा की भाषा है । अंग्रेजीयत का वर्चस्व इस वर्ग का ही राजनैतिक, आर्थिक एवं साँस्कृतिक वर्चस्व भी है । अंग्रेजी, वर्चस्व के हथियार के रूप में राजनैतिक. आर्थिक एवं ज्ञान की सत्ता को इस देश की 3% आबादी तक समेटे रखती है । राजसत्ता का चंद हाथों तक सिमटा रहना ही उसे भ्रष्ट बनाता है । अतः यह अंग्रेज़ीयत का सिस्टम ही भ्रष्टाचार, गैर-बराबरी और शोषण की व्यवस्था का मूल कारण है । यह परिवर्तन भी ‘इंग्लिश मीडियम सिस्टम’ द्वारा व्यवस्था को 1-2% के अंग्रेजीदां वर्ग तक समेटे रखने के लिए ही है ।

अभी हाल ही में सिविल सेवा चयन हेतु ली जाने वाली सीसैट(CSAT) की परीक्षा पर परीक्षा के अभ्यर्थियों का गुस्सा फुटा, पर ये कहानी सिविल सेवा की सीसैट परीक्षा तक सीमित नही है।यूपीएससी(UPSC) ने 2011 से सीसैट की नयी प्रणाली लागू कर, प्रारंभिक परीक्षा के स्वरूप में परिवर्तन किया है । बोधगम्यता (कॉम्प्रिहेंशन) अपने आप में मूल्यांकन की एक बेहतर, विस्तरित एवं बहुआयामी पद्धति है । पर सीसेट परीक्षा में अंग्रेजीदा वर्ग के अनुरूप कॉम्प्रिहेंशन तैयार करने एवं उसका‘मैकेनिकल सरकारी-हिन्दी’ में अनुवाद करने की वजह से ही समस्या समस्या पैदा हुई है । यूपीएससी(UPSC) की इस परीक्षा ने यह भी सिद्ध किया कि अच्छे सिद्धान्त को किस तरह बुरे उद्देश्य के लिए प्रयोग किया जा सकता है । ऐसा भी नही है कि यूपीएससी(UPSC) के द्वारा 2011 से पहले ली जाने वाली परीक्षा भेद-भाव से मुक्त थी । यदि हम 2011 से पूर्व के ग्राफ को भी देखें तो पाते हैं कि प्रारंभिक परीक्षा में बेशक हिन्दी समेत अन्य भारतीय-भाषा माध्यमों से औसतन 45% प्रतिशत अभ्यार्थीं पास होते होते थे, पर साक्षात्कार के बाद का आँकड़ा औसतन 10-12 % या उस से भी कम रहा जाता था। अतः इस परीक्षा के पुराने पैटर्न में भी अंग्रेजीदां वर्ग का ही दबदबा था । 1979 से पूर्व तो यूपीएससी (UPSC) से पूर्व सिविल सेवा परीक्षा पूर्णतः अंग्रेजी में ही ली जाती थी और आज भी यूपीएससी(UPSC) द्वारा ली जाने वाली अधिकतर परीक्षा अंग्रेजी में ही संपन्न होती हैं ।

चाहे वह भारतीय आर्थिक सेवा परीक्षा हो या भारतीय वन सेवा परीक्षा, इन सभी परीक्षाओं के माध्यम उच्च ओहदों को अंग्रेजीदां वर्ग के लिए आरक्षित रखा गया है। वही हाल राज्य पीसीएस(PCS), एस.एस.सी.(SSC), डी.एस.एस.एस.बी.(DSSSB), बैंकिंग और तमाम दूसरी नौकरियों का चयन करने वाली संस्थानों का भी है । इन सभी संस्थानों में अंग्रेजी एक अनिवार्य पत्र के रूप में रहता है । DSSSB ने तो अभी हाल ही में चयन परीक्षाओं में पहले से चले आ रहे अंग्रेजी के वस्तुनिष्ट प्रश्नों के अतिरिक्त अंग्रेजी की वर्णात्मक परीक्षा को भी अनिवार्यता बनाया है। (जानकारी के स्रोत्र – यूपीएससी(UPSC) रिपोर्ट, पीसीएस, डीएसएसएसबी वेबसाईट आदि) सच्चाई यह है कि जिस भी परीक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता है, वह 3% के अंग्रेजीदा वर्ग को 50-100% तक आगे बढ़ाती है और 95% के गैर-अंग्रेजीदा ग्रामीण, कस्बाई, निम्न एवं निम्न मध्यमवर्गीय आबादी को 30-100 प्रतिशत तक पीछे धकेलती है । इन सभी परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता इसलिए रखी जाती है कि अंग्रेजी के सहारे इस देश की ग्रामीण,कस्बाई गैर-अंग्रेजीदा वर्ग को सत्ता के गलियारे से दूर रखा जा सके । उच्चत्म न्यायालय और उच्च न्यायालय में संविधान की धारा 348 के माध्यम से अंग्रेजीदां वर्ग का आरक्षण सुनिश्चित किया गया है । इस प्रकार सत्ता पर अंग्रेजीदां वर्ग का आरक्षण बना रहता है।

सरकार ने सीसैट(CSAT) की प्रणाली का विरोध करने वाले अभ्यार्थियों की आवाज को न केवल अनसुना कर दिया, बल्कि बुरी तरह से कुचल भी दिया । तमाम दूसरी परीक्षाओं एवं दस्तावेजों की भांति सिवल सेवा परीक्षा की सीसेट प्रणाली में भी मूल प्रश्न-पत्र अंग्रेजी में बनाकर हिन्दी में महज़ अव्यवहारिक एवं कृत्रिम अनुवाद भर ही किया गया । इस अनुवाद की प्रक्रिया में प्रचलन से बाहर के शब्दों का प्रयोग किया गया । जो पढ़ने में तो संस्कृतनिष्ट-तत्सम शब्द प्रतित होते है । पर हकिकत में उनका प्रचलन में कही कोई प्रयोग नहीं होता है । इन अप्रचलित शब्दों ने ही अभ्यार्थियों को गुमराह किया । पर यह समस्या सिर्फ सी-सेट परीक्षा की नहीं । आप किसी भी सरकारी दस्तावेज (डॉक्यूमेंट) को उठा ले और चौराहे पर ले जाकर पढ़ भर दे । फिर पता लगा ले कितने लोग इस सरकारी-अनुवाद की हिन्दी को समझ पाते है । सच्चाई तो यह है कि जिस हिन्दी का विरोध हमारे तमिलत-तेलगू भाषी भाई करते है, वह सरकारी-कृत्रिम-एसी कमरों में बैठ कर गढ़ी गयी हिन्दी तथाकथित हिन्दी भाषी क्षेत्र के लोगों की समझ से बाहर की है । युरोप और अमेरिका की सरकारों के सरकारी दस्तावेज मामूली से मामूली पढ़ा लिखा व्यक्ति समझ सकता है । पर भारत में स्थिती कुछ भिन्न है । अंग्रेजी तो है ही परदेशी पर उस अंग्रेजी के अनुवाद के अनुरूप गढ़ी गयी हिन्दी और भी अधिक अव्यवहारिक है । सीसेट आन्दोलन हकिकत में प्रचलन से बाहर की इस कृत्रिम हिन्दी अनुवाद के विरूध ही आन्दोलन था । जिसे सरकार द्वारा “अनिवार्य अंग्रेजी के प्रश्नो में” छूट देकर इतिश्री करने की कोशिश की गई । अभ्यार्थी न तो‘कॉम्प्रिहेंशन’ के खिलाफ थे न ‘रिजनिंग’ के ।

अभ्यार्थियों की मुख्य मांग तो मूल प्रश्नों को भारतीय भाषाओं में बनाए जाने की ही थी । जिसका सरकार ने न केवल अवहेलना की बल्कि आन्दोलन को गुमराह करने के लिए साम-दाम-दंड-भेद सभी उपायों का प्रयोग किया । अंत में पूर्ण अहिंसात्मक रूप से चलने वाले इस आन्दोलन को समाप्त करने के लिए न केवल दमनात्मक उपाय ही अपनाए अपितु आई ए एस अभ्यार्थियों के गढ़ कहलाने वाले मुखर्जी नगर क्षेत्र को अघोषित तौर कर्फ्यू की स्थिति भी पैदा कर दी । सरकार यही तक नही रुकी, उसने अभ्यार्थियों में भय पैदा करने हेतू  निर्दोष अभ्यार्थियों पर पुलिस केस भी दर्ज किये ।

संवैधानिक संस्था यूपीएससी(UPSC), डीएसएसएसबी, राज्यों की पीसीएस, एवं गैर संवैधानिक  संस्था यूजीसी, आई.आई.टी.,आई.आई.एम आदि ‘बैरिकेटिंग एजेंसी’ भर हैं । जो इस सिस्टम को बनाए ऱखने का काम करती है । भारत में अंग्रेजी सिर्फ भाषा नहीं व्यवस्था है । भारत के संविधान की धारा 348, 343(1)&(2),120,210, 351, 147 ने अंग्रेजी को व्यवस्था बना दिया है । अंग्रेजी की अनिवार्यता इस संविधान जनित व्यवस्था का ही परिणाम है । आने-जाने वाली सरकारे ऑपरेटिंग एजेंसी के रूप में इस व्यवस्था को ही पोषने का काम करती है । इसलिए भारतीय भाषा आन्दोलन से जुड़ें अटल बिहारी बीजपेई भी सता में आने के बाद न केवल अंग्रेजीदा व्यवस्था के सामने घुटने टेके बल्कि यूपीएससी(UPSC) के बाहर चल रहे धरने को भी उखाड़ फैका ।  यही हाल मोदी सरकार का है । एक तरफ मोदी देश से बाहर जाकर हिन्दी में भाषण देते है, तो दूसरी तरफ उन्हीं की सरकार भारतीय भाषाओं में मूल प्रश्न पत्र बनाने की मांग को लेकर चल रहे सी-सेट आन्दोलन का दमन किया ।

जी हाँ साथियों ! इंग्लिश मीडियम सिर्फ़ स्कूल ही नहीं होते, इंग्लिश  मीडियम अदालतें भी होती हैं। इंग्लिश मीडियम संसद के कानून भी होते हैं, पी.एम.ओ. समेत सम्पूर्ण नौकरशाही का ढाँचा इंग्लिश मीडियम ही है। और इन सबको पोसने एवं बचाए रखने का काम इंग्लिश मीडियम विश्वविद्यालय, एम्स, आई.आई.टी., आई.आई.एम, यु.पी.एस.सी., डी.एस.एस.एस.बी आदि जैसे संस्थान करते हैं । यही अल्पतांत्रिक ‘इंग्लिश मीडियम सिस्टम’ ‘भ्रष्टाचार’, ‘शोषण’, ‘गैरबराबरी’ की व्यवस्था पर ‘साँस्कृतिक ठप्पा’ लगाता है । स्कूल ! ओह ! स्कूल तो बेचारे इसलिए इंग्लिश मीडियम खुलते हैं क्योकि ये सभी संस्थाएँ ‘इंग्लिश मीडियम कल्चर’ को पैदा करती हैं। स्कूल व्यवस्था राजसत्ता की उपव्यवस्था है। स्कूली व्यवस्था की प्रकृति वैसी ही होगी, जैसी राज सत्ता की होगी। चूंकि राज सत्ता गैर बराबरी को बनाए रखने वाली ‘इंग्लिश मीडियम वर्ग’ द्वारा पोषित है । अतः स्कूली व्यवस्था भी ‘बहुस्तरीय इंग्लिश मीडियम’ केन्द्रित है। जब तक राजव्यवस्था गैरबराबरी की ‘इंग्लिश मीडियम’ प्रकृति की रहेगी, तब तक स्कूली व्यवस्था भी गैरबराबरी की ‘इंग्लिश मीडियम’ प्रकृति की रहेगी। जब तक राजसत्ता ‘इंग्लिश मीडियम वर्ग’ के हाथ में रहेगी, तब तक ‘इंग्लिश मीडियम सिस्टम’ का शोषण, दमन और भ्रष्टाचार भी कायम रहेगा । इंग्लिश मीडियम शिक्षाव्यवस्था समाजिक स्तर का निर्धारण करने वाले के हथियार के रूप में ‘इंग्लिश मीडियम राजव्यवस्था’ के प्रति वफादार लोगों को ही ‘इंग्लिश मीडियम सिस्टम’ में स्थान देती है।

‘इंग्लिश मीडियम राजव्यवस्था’ ‘इंग्लिश मीडियम शिक्षा’ के माध्यम से ही अपने आप को सुरक्षित रखने का घेरा तैयार करती है। ‘इंग्लिश मीडियम एजुकेशन’ व्यवस्था के दास के रूप में देश की ग्रामीण, कस्बाई, निम्न एवं निम्न मध्यमवर्गीय आबादी को मुख्यधारा से दूर रख सत्ता के शीर्ष को उच्चवर्गीय एलीट क्लास के लिए आरक्षित रखता है। आईआईटी, एम्स, आईआईएम और तमाम अति विशिष्ट माने जाने वाले विश्वविद्यालय- ये सभी के सभी संस्थान अंग्रेजीयत के सामाजिक वर्चस्व का सांस्कृतिक बोध पैदा करने का ही काम करते है। इन सभी संस्थाओं में पढ़ा व्यक्ति इस देश का कर्णधार बनेगा और मेरठ, गोरखपुर,सारण जैसे देहाती इलाकों के विश्वविद्यालय का विद्यार्थी चाय बेचेगा । आज अंग्रेजीदां बनने की चाह ने इस देश को अपने मोहपाश में इस कदर जकड़ा रखा है कि समाज का हर तबका अपना सब कुछ दांव पर लगा कर अपनी भाषा का शुद्धिकरण की चाह रखता है। हरियाणवी, भोजपुरी, मैथिली, बांगड़ी, बोलने वाले बैकवर्ड कहलाएंगे और दो लाइन अंग्रेजी में गिट-पिटाए नहीं कि मॉर्डन हो जाएंगे। अंग्रेजीदां बन हर कोई गिट-पिटाना चाहता है । पर भाषा परिवेश से हासिल होती है, न की स्कूल कॉलेजों की पढ़ाई से । अतः अंग्रेजी के चक्कर में लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में दाखिला करा तो देते है। पर वे ज्ञान के नाम पर अंग्रेजीयत के गुलाम बन कर रह जाते है। अंग्रेजी के चक्कर में न तो अंग्रेजी ही आती है न कोई अन्य विषय ही। इस अंग्रेजी के चक्कर में हमारे बच्चे रटू तोते बन कर के रह गये है । 

पर यह अंग्रेजी ही है, जो इस देश की 95 प्रतिशत ग्रामीण, कस्बाई, निम्न एवं निम्न मध्यमवर्गीय मेहनतकश तबके को व्यवस्था से दूर रखने का काम करती है। .. और साथ यह ज्ञान, पूंजी, नौकरशाही, राजनीति के शीर्ष को 3 प्रतिशत ऊपरी तबके तक के लिए सुरक्षित भी रखती है। बस यहीं से ‘भ्रष्टाचार’, ‘शोषण’, ‘गैरबराबरी’ गड़बड़ झाला शुरू होता है। अंग्रेजीयत ही ‘भ्रष्टाचार’, ‘शोषण’,  ‘गैरबराबरी’ के सांस्कृतिकरण करने का काम करती है। अंग्रेजी को सिर्फ भाषा समझना उसकी ताकत को कम कर आंकना है। अंग्रेजी सिर्फ भाषा नहीं भारतीय समाज में वर्चस्व का बोध भी है। भारत में अंग्रेजी सिर्फ भाषा नहीं, वर्गीय विभाजन को बनाए रखने का व्यवस्था-जनित साँस्कृतिक हथियार भी है।

विदेशी एवं परिवेश के बाहर की भाषा में डिग्री ही पैदा की जा सकती है। ज्ञान नहीं। जनभाषाओं में ही जन शिक्षा संभव है।औपचारिक शिक्षा (स्कूल कॉलेज से मिलने वाली) और अनौपचारिक शिक्षा (समाजिक विचार-विमर्श से पैदा होने वाला ज्ञान) ही जन मानस को जागृत कर सकती है। अतः जन भाषाओं में ही जन ज्ञान पैदा होगा और वह जन ज्ञान ही जन जागृति लाएगा । जन जागृति के बिना कोई बदलाव नहीं लाया जा सकता । जन जागृति ही क्रांति का आगाज़ है । जैसाकि भगत सिंह ने भी कहा था कि क्रांति की तलवार विचारों की शान पर ही तेज होती है और मौलिक ज्ञान और विचार तो स्व-भाषा में ही पैदा हो सकता है । एक विदेशी या परिवेश के बाहर की भाषा में हम रट तो सकते है. मौलिक एवं वैचारिक ज्ञान हासिल नहीं कर सकते। अतः तवरित प्रभाव से-

Ø युपीएससी, एसएससी, डीएसएसएसबी, आईआईटी, आईआईएम समेत समस्त बेहतर माने जाने वाले उच्च शिक्षा संस्थानों/विश्वविद्यालयों की परीक्षा एवं शिक्षण का माध्यम भारतीय जन-बोली भाषाएं ही हो तथा इन संस्थाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता पूर्णतःसमाप्त हो !

Ø सी- सैट का प्रश्न-पत्र ही नहीं अपितु सभी पऱीक्षाओं के प्रश्न-पत्र मुल रूप से भारतीय भाषाओं में ही छपे, उनका कृत्रिम अनुवाद होना बन्द हो !!

Ø सभी स्तर की आदालतों  में, न्याय जनता की बोली-भाषा में ही हो । निचली आदालतों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक की कार्यवाही, फैसले एवं आदेश देश की अनिवार्य रूप से जनता की बोली-भाषाओं में ही हो !!!

Ø संसद एवं विधानसभाओं में कानून मूल रूप में भारतीय भाषाओं में ही बने, भारतीय भाषाओं में महज उनका कृत्रिम अनुवाद भर न हो !!!!

यदि सरकार स दिशा में कदम नहीं उठाती तो समस्त भारतवासियों का कर्तव्य बनता है कि हम सब मिलकर मानसिक रूप से कुंद करने वाली इस साँस्कृतिक गुलामी से मुक्ति के लिए संघर्ष करें और आर्थिक एवं राजनैतिक सम्राज्यवाद को चीर स्थाई बनाये रखने वाली अंग्रेजीयत की सांस्कृतिक सम्राज्यवादी व्यवस्था को तोड़ेदे ।                                                      

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परिचय –: 

अश्विनी कुमार ‘सुकरात’

ashvani kumarलेखक आर्थिक एवं शैक्षिक मामलों के विशेषज्ञ है एवं समतामूलक-सम्यवादी सामाजिक व्यवस्था के लिए संघर्षरत है । पिछले लम्बे समय से केजी से पीजी तक समान शिक्षा के आन्दोलन से भी जुड़े रहे है। 12-13 वर्ष से निजी इंग्लिश मीडियम शैक्षिक संस्थानों में कार्य करते हुए अनुभव किया जिसे शोध कार्य ‘अंग्रेजी माध्यम स्कूलों’ तथा जन समुदाय के मध्य हुई सामाजिक-सांस्कृतिक  अन्तःक्रियाओं के फलस्वरूप ‘जन सामान्य’ के  सांस्कृतिक मूल्यों’ पर पड़ने वाले प्रभाव का ‘विश्लेषणात्मक-मूल्यांकन’ (विशेषतः) ‘बाल केन्द्रित पाठ्यचर्चा’ को लागू करने के संदर्भ में’द्वारा प्रमाणित भी किया कि जनभाषा की लड़ाई को हल किए बिना जन-जन को शिक्षित करने वाली समान शैक्षिक व्यवस्था की लड़ाई संभव ही नही है । जिसे बाद में थोडे परिवर्तन के साथ ‘इंग्लिश मीडियम सिस्टम’,दैट इज ‘अंग्रेजी राज’ : ‘भ्रष्टाचार’, ‘शोषण’,  ‘गैरबराबरी’ की व्यवस्था पर ‘सांस्कृतिक ठप्पा’ पुस्तक के माध्यम से भी उजागर किया ।

शैक्षिक योग्यता : एम. ए. (अर्थशास्त्र), एम. कॉम., एम. एड. नेट.

वर्तमान में मेवाड इंस्टिट्यूट गाजियाबाद में अस्सिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत.

Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC. 

3 COMMENTS

  1. बहुत-बहुत धन्यवाद ! अश्विनी जी वृहत शोध और ऐसे समसामयिक उच्चस्तरीय लेख के लिए :————-

    मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ और काले अंग्रेजों का मैं शिकार भी हुआ हूँ देखिए :—-
    कारण मेरे पूरे परिवार को निर्दयतापूर्वक रिलायंस टाउनशिप (जामनगर) से उजाड़ दिया गया है, देखिए:-
    के0डी0ए0वी0, रिलायंस टाउनशिप, जामनगर के प्रिंसिपलएस0 सुन्दरम ने १४ सितम्बर ( हिंदीदिवस ) के दिन बच्चों के सामने कहा था ” कौन बोलता है हिंदी राष्ट्रभाषा है? हिंदी टीचर बच्चों को मूर्ख बनाते हैं।” इस पर मैंने हिंदी मीटिंग में निवेदन किया क़ि बच्चों के सामने ऐसी बात कहने से वो हिंदी नहीं पढ़ेंगे तभी से प्रिंसिपल सुन्दरम पीछे पड़े हैं, इसके पहले भी ये ११-१२ से हिंदी विषय हटा दिए हैं जिसके लिए सुश्री रूपल सिपानी को परेशानी हुई तथा रियाकर ने तो स्कूल ही छोड़कर हिंदी पढ़ा,हिंदी रामायण और महाभारत की डी. व़ी.डी. का ओर्डर ही कैंसिल कर दिए, किसी पुराने हिंदी टीचर को प्रमोशन न देकर आलोक के सम्बन्धी मनोज कुलकर्णी को आब्जर्वेसन समय में ही प्रमोशन दिए, मुझे गलत तरह से एच0ओ0डी0 पद से हटाए पर किसी सीनियर लेडी टीचर को मौका न देकर भरत को एच0ओ0डी0 बनाए जो बिना किसी अनुभव के ही गलत तरह से टी0जी0टी0 बनाए गए थे, वास्तव में प्रिंसिपल सुन्दरम खुद बी0एड0 नहीं हैं इसलिए अपने आसपास एच.ओ.डी. – कोआर्डिनेटर सभी कम पढ़ेलिखों की टीम बना रहे हैं, कृपया सबकी डिग्रियां चेक करवा लें। प्रिंसिपल सुन्दरम के आने के बाद से अबतक लगभग ६० पुराने पढ़े-लिखे और अच्छे टीचर स्कूल छोड़कर चले गए हैं इसलिए सीनियर के बच्चें भी विद्यालय छोड़कर जा रहे हैं, उनसे भी जानकारी लेनी चाहिए। मेरे साथ बहुत अन्याय हुआ है,२३जुलाई की शाम को जिस तरह श्री एच0 बी0 त्रिवेदी, श्री एस0 सुन्दरम, श्री आलोक कुमार ने सेक्युरिटी को लेकर जबरदस्ती रिजाइन लिखवाने की कोशिश में मेरे साथ मारपीट की तथा उसके बाद अकेली मेरी पत्नी और बच्ची को प्रताड़ित करके विद्यालय छोड़कर जाने पर मजबूर कर दिए, मेरी बेटी का नवीं कक्षा में सी0 बी0 एस0 ई0 में रेजिस्ट्रेशन होने के बावजूद क्वार्टर पे जबर्दस्ती जेंट्स सेक्युरिटी भेजभेजकर निकलवा दिये :- मैं चाहकर भी उनको बचा नहीं पाया पर इतने अपमान के बाद शायद मैं जीवित न रह पाऊं पर न तो मैं कायर हूँ न ही दोषी मेरे साथ षड्यंत्र किया गया है ।
    मेरे या मेरे परिवार के किसी भी सदस्य के धन-जन की हानि के लिये कोकिलाबेन धीरूभाई अम्बानी विद्यामंदिर के वर्तमान अध्यक्ष तथा रिलायंस के चीफ एकाउन्टेंट श्री वी0 के0 गाँधी ही इसके पूरी तरह जिम्मेदार होंगे क्योंकि उन्हीं के तरफ से या उनके इशारे पर ही मुझे ऐसी धमकियाँ मिल रही हैं: –
    कृपया मेरी मदद करें ( भारत देश में यदि राष्ट्रभाषा के बारे में बच्चों के मन में ऐसी धारणा भरी जाएगी तो क्या ये उचित होगा….वो भी पाकिस्तान से सटे सीमावर्ती इलाके में ?…) तथा राष्ट्रभाषा –हिंदी की इस सच्चाई को जनता के सामने लायें, न्यूज में छापें, तत्संबंधित किसी भी प्रकार का दायित्व मेरा होगा ।गुजरात में लगभग सभी रिलायंस की हराम की कमाई डकार कर बिक चुके हैं इसलिए पचासों पत्र लिखने महामहिम राष्ट्रपति-राज्यपाल तथा प्रधानमंत्री का इंक़्वायरी आदेश आने पर भी गुजरात सरकार चुप है !
    विनीत : –
    (डॉ. अशोक कुमार तिवारी)
    हिंदी पी. जी. टी., के. डी. अम्बानी विद्या मंदिर, जामनगर ( गुजरात ) ।
    सम्पर्क – 8128465092,dr.ashokkumartiwari@gmail.com

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