वन्दना गुप्ता की कविता- साहेबा !

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साहेबा !

इश्क की डली मूंह में रखी है मैंने

और कुनैन से कुल्ला किया है

खालिस मोहब्बत यूं ही नहीं हुआ करती

एक डोरी सूरज की तपिश की लेनी पड़ती है

और एक डोरी रूह की सुलगती लकड़ी की

फिर गूंथती हूँ चोटी अपने बालों के साथ लपेटकर

लपटें रोम रोम से फूटा करती हैं

और देख आज तक जली ही नहीं मेरी ख्वाहिशें ,

तुझे चाहते रहने की कोशिशें , तुझ पर जाँ निसार करने की चाहतें

एक एक मनका प्रीत का पिरोया है ना

मैंने जो सूत काता था कच्चे तारों का

और कंठी बना गले में बाँध लिया है

सुना है इस कंठी को देख फ़रिश्ते भी सजदे किया करते है ,

सजायाफ्ता रूहें भी सुकून पाया करती हैं

जानते हो क्यों ? क्योंकि इसमें तेरा नाम लिखा है

जानां !!!
सिन्दूर , पाजेब , बिंदिया , मंगलसूत्र कुछ नहीं चाहिए मुझे

ये ढकोसलों भरे रिवाज़ मेरी रूह की थाती नहीं

तुम जानते हो

बस प्रेम की कंठी जो मैंने बाँधी है

क्या किसी जन्म में , किसी पनघट के नीचे ,

किसी पीपल की छाँव में , किसी चाहत की मुंडेर पर

आओगे तुम मुझमे से खुद को ढूँढने

मेरी आवाज़ को , मेरी इबादत को मुकम्मल करने

ये एक सवाल है तुमसे

क्या दे सकोगे कभी ” मुझसा जवाब ”

ओ मेरे !

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vandana gupta poet,poet poet vandana guptaवन्दना गुप्ता

उपसंपादक  – सृजक पत्रिका

निवास  दिल्ली

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