लुप्त होते गिद्ध, पारसियों को अंतिम संस्कार की चिंता

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कल्पना पालकीवाला

1990 के दशक के अंतिम दौर से मुंबई में बसे पारसी समुदाय के लोग अपने मृत निकट संबंधियों के अंतिम संस्कार को लेकर बहुत चिंतित दिखाई दे रहे हैं । पारसी भारत के छोटे से उस समुदाय से संबंधित हैं जो जोरास्ट्रियन धर्म को मानने वाला है। अपने विश्वास और परम्पराओं के चलते ये लोग अपने मृत संबंधियों का अंतिम संस्कार दाहकर्म, दफनाने अथवा उन्हें जल में विसर्जित करके नहीं करते क्योंकि उनका विश्वास है कि शव अपवित्र होता है और इस प्रकार से किए गए अंतिम संस्कार की क्रियाओं के द्वारा पंचतत्व को दूषित करने की इजाजत जोरास्ट्रियन धर्म उन्हें नहीं देता। पारसियों के कब्रिस्तान जिन्हें पारसी लोग वैल आफ साइलैंस कहते हैं ऊंची मीनारों के समान होते हैं जिनके नीरव व शांत शिखर पर मृतकों के शव रख दिए जाते हैं। गिध्द, चील और कौवे मिनटों में इन्हें खाकर अपनी भूख शांत करते हैं और वहां बची रह जाती हैं सिर्फ हड्डियां। इसी तरह हमेशा के समान एक बार इस समुदाय के कुछ लोग अपने किसी मृतक का शव उस ऊंचे स्थान पर रखने गए थे, तो वहां सड़ी-गली अवस्था में पड़े एक शव को देखकर हैरान रह गये। उस समय उनका और पूरे मुंबई महानगर का ध्यान प्रथम संकेत के रूप में लुप्त हो रहे गिध्दों पर गया।

 गिध्द केवल भारत से ही नहीं बल्कि अनेक और देशों से भी लुप्त हो रहे हैं। अफ्रीका के अनेक भागों के निवासी अपने मृत पशुओं को ठिकाने लगाने की उचित व्यवस्था के अभाव में अपने मरे हुए पशुओं के निपटान के लिए गिध्दों पर ही आश्रित हैं। इन लोगों ने भी गौर किया कि गांवों के बाहर अनेक स्थानों पर मृत पशुओं के शव बिखरे पड़े हैं । ऐसी ही स्थिति वियतनाम, थाईलैंड और लाओस की भी थी और इस संबंध में अधिक चिंता तो तब हुई जब नेपाल और पाकिस्तान में मृत गिध्द पाए गए। इस प्रकार गिध्दों का अभाव पारिस्थितिक असंतुलन की स्थिति पैदा करने के साथ-साथ प्रदूषण को फैलाने में सहायक सिध्द हो रहा था। ऐसी स्थिति स्वास्थ्य के लिए खतरे की घंटी थी । गिध्दों के संरक्षण के लिए काम करने वाले जोर-शोर से इन लुप्त हो रहे पक्षियों के बारे में बताते हुए सभी को इस चिंताजनक स्थिति से आगाह कर रहे थे।  बढता शहरीकरण, खेतों में कीटनाशकों का अंधाधुन्ध प्रयोग, बढता हुआ प्रदूषण और बड़े स्तर पर गिध्दों को मारना जैसे कई कारक हैं जिनसे यह प्राणी आज लुप्त होने की कगार पर हैं।
 
पौराणिक कथाओं में गिध्द

  दक्षिण अफ्रीका में न्यूबियन गिध्द की तुलना युगल प्रेमियों से की जाती है क्योंकि ये पक्षी सदा जोड़े में दिखाई देते हैं , मानो स्नेह की डोर में बंधे हुए हों। इन पक्षियों का आकार और आकाश में उड़ने की उनकी क्षमता जैसी उनकी विशेषताएं ही उन्हें जोड़ा बनाने, प्रेम के सूत्र में बंधने, एक दूसरे को सुरक्षा और प्यार देने में सहायक होते हैं। ईजिप्टवासी गिध्द पक्षी को श्रेष्ठ मां के रूप में देखते हैं। उनके अनुसार इन पक्षियों के चौड़े पंखों का घेरा उनके बच्चों को मां के सुरक्षित आंचल का आभास देता है। हिंदुओं के धर्मग्रंथ रामायण में दो गौण देवताओं जटायु और सम्पाती के रूप में दो गिध्दों का वर्णन किया गया है । ये दोनों नाम साहस और बलिदान की कहानियों से जुड़े हुए हैं। जब वे छोटे थे तो आकाश में ऊंची उड़ान भरने के लिए उन दोनों के बीच अकसर प्रतिस्पर्धा होती थी। ऐसा ही एक दृष्टांत इस प्रकार है – एक बार जटायु आकाश की इतनी ऊंचाई तक पहुंच गए कि सूर्य से निकलने वाली लपटें उन्हें झुलसाने लगीं। ऐसे में सम्पाती ने अपने पंखों को फैलाकर छाया की ओर इस प्रकार सूर्य की गरम लपटों से अपने भाई को बचाया। यह वही जटायु थे जिन्होंने श्रीराम को यह जानकारी दी थी कि दुष्ट रावण किस दिशा की ओर सीता को हरण करके ले गया है।

शारीरिक लक्षण
 अनेक गिध्दों में विशेष लक्षण उनका पंखरहित गंजा सिर होता है । अनुसंधान दर्शाता है कि उघड़ी चमड़ी ताप नियंत्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। गिध्द स्वस्थ जानवरों पर कभी आक्रमण नहीं करते किन्तु जख्मी अथवा बीमार को मार भी सकते हैं। समूह में दिखाई देने वाले गिध्द सांकेतिक रूप से मिलन स्थल का संकेत देते हैं और वायुमंडल में चक्कर काट रहे गिध्दों से पता चलता है कि आसपास कोई शिकार है। युध्दक्षेत्र में वे भारी संख्या में दिखाई देते हैं । वे तब तक खाते हैं जब तक उनका पेट न फूल जाये और उसके बाद अपना भोजन पचाने के लिए उनीदें अथवा अर्ध निष्क्रिय अवस्था में बैठ जाते हैं। वे अपने बच्चों के लिए अपने पंजों में भोजन नहीं ले जाते बल्कि अति खाकर अपनी गल थैली में भरे भोजन से अपने बच्चों का पेट भरते हैं। ये पक्षी विशेषत: गर्म क्षेत्रों में सफाईकर्मी के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पर्यावरण संतुलन में इनकी एक व्यापक भूमिका है। ये हृष्ट-पुष्ट शारीरिक गठन वाले होते हैं और इन्हें प्रकृति का निजी सफाईकर्मी दल माना जा सकता है। मृत जीव गिध्दों की एक खास प्रकार की खुराक हैं और इन्हें खाकर अपनी भूख शांत करने की इनकी आदत जानवरों और मानवों में संचारी रोगों के फैलाव को रोकने में महत्वपूर्ण संपर्क है। दैवी घटनाओं जैसे बाढ आैर सूखे के दौरान जानवरों की मौत होने पर गिध्द इन मृत  जानवरों को खाकर धरती की सफाई करते हैं तथा इस प्रकार सड़े गले शवों से फैलने वाले घातक कीटाणुओं के फैलाव को रोकते हैं।  बोटूलिनम टॉक्सिन वह टॉक्सिन है जो बोटूलिस्म यानि गैस्ट्रोइनटेस्टाइनल और नर्वस डिसआर्डर का कारण होता है । लेकिन जहरीले तथा सड़े हुए भोजन का भक्षण गिध्दों को प्रभावित नहीं करता है और वे एन्थ्रेक्स और कालरा बैक्टीरिया से युक्त सड़े हुए मांस को भी खा सकते हैं। डा0 सालिम अली ने अपनी पुस्तक इंडियन बड्र्स में गिध्दों का वर्णन भगवान की निजी भस्मक मशीन के रूप किया है जिसकी जगह मानव के आविष्कार से बनी कृत्रिम मशीन कभी नहीं ले सकती है। गिध्दों का एक दल एक सांड का केवल 30 मिनट में निपटारा कर सकता हैं। गिध्दों की संख्या में तेजी से हो रही कमी के साथ हम खाद्य कड़ी में महत्वपूर्ण संपर्क को खोते जा रहे हैं।

विलुप्तता के कारण
 गिध्दों की संख्या में कमी होने के अनेक कारण हैं। विशेषज्ञों का विश्वास है कि वे तीव्रता से बढ़ रही आबादी के कारण मर रहे हैं । इसका खंडन करते हुए विश्व वन्य जीव निधि के एक विशेषज्ञ कहते हैं, उनका शहरों से संबंध नहीं है। यह नगर के कचरे की निपटान प्रणाली की खामी है जिसने गिध्दों को शहरों की ओर आने के लिए बाध्य किया। आंध्र प्रदेश , कर्नाटक और महाराष्ट्र में आदिवासियों द्वारा गिध्दों को मारने के लिए बड़े-बडे जाल फंदे लगाये गये हैं क्योंकि गिध्द झपट्टा मारकर उनके पशुओं को उठा ले जाते हैं। विज्ञान और पर्यावरण केन्द्र का कहना है कि कृषि में कीटनाशक दवाओं का अधिक इस्तेमाल और डीडीटी,आल्ड्रिन तथा डिआल्ड्रिन गिध्दों की मौत के प्रमुख कारण हैं. खाद्य कड़ी में इन रसायनों का संचय गिध्दों की प्रजनक प्रणाली को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है और अंडे के खोल को लगभग 20 प्रतिशत पतला करता है जिसका परिणाम उच्च मृत्युदर के रूप में सामने आता है। विशेषज्ञों के अनुसार गिध्द दूसरी जाति के गिध्दों से वैमनस्य रखते हैं। इस बात की पुष्टि पशुवध गृहों के आसपास गिध्दों के एकत्र होने पर की गई है। इसका मतलब इनमें संकरण नहीं होता है। स्वजातीय उत्पत्ति उत्पादकता अंडे से निकले नए बच्चों के बचने की संभावना को घटाती है।

 ठीक दो दशक पहले देश में 850 लाख गिध्द थे। अब उनकी संख्या 3000 से 4000 तक होने का अनुमान है। भारत, नेपाल और पाकिस्तान में 10-15 वर्षों में गिध्दों की संख्या 95 प्रतिशत नष्ट हो चुकी है। मुंबई प्राकृतिक इतिहास  सोसायटी के डा0 असद रहमानी ने भी प्रसिध्द भरतपुर पक्षी शरण क्षेत्र में गिध्दों की कम होती संख्या के बारे में जानकारी दी है। राजस्थान के केवलादेव नेशनल पार्क में भी गिध्दों के मरने की सूचना मिली है। हवाई जहाजों से भी थोड़ी ऐसी आशंका है जो अधिक ऊंचाई पर पक्षियों से टकरा सकता हैं।

विलुप्ति की ओर उड़ान
 बीएनएचएस (भारत नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी), इंग्लैंड में रॉयल सोसायटी फॉर दी प्रोटेक्शन ऑफ बड्र्स, लंदन की ज्योलोजिकल सोसायटी एवं अमरीका की पेरेग्राइन फंड ने गिध्दों की  संख्या में कमी आने के कारणों का पता लगाया है। पेरग्राइन फंड ने पाकिस्तान में उत्तेजनारोधी नशीले पदार्थ जिसे डाइक्लोफेनेक कहते हैं को इसका कारण माना है।  यदि जानवर जैसे भेड़ -बकरियों को एक सामान्य दर्द निवारक दवा डाइक्लोफेनेक का इंजेक्शन लगाया गया हो और ऐसे जानवर प्राकृतिक कारणों से मरने के पश्चात गिध्दों द्वारा खा लिए गए हों तो यह उनमें  यूरिक एसिड उत्पन्न कर उन्हें निर्जलन की बीमारी से पीड़ित कर देता है। इससे आंतों में गाउट और किडनी के फेल हो जाने से मृत्यु हो जाती है। यह शरीर में डीडीटी जैसे रसायनों के संचयन को बढावा नहीं देता है, इसका एक बार का भी अंतर्ग्रहण गिध्दों के लिए घातक हो सकता है । वैज्ञानिकों ने दिखाया है कि यदि मरे हुए पशुओं में एक प्रतिशत भी डाइक्लोफेनेक है तो यह इस शिकारी पक्षी की संख्या में तेजी से कमी ला सकता है। बीएनएचएस द्वारा की गई देश के कोने-कोने से 1800 नमूनों की जांच दर्शाती है कि मरे हुए पशुओं में डाइक्लोफेनेक की वास्तविक व्यापकता 10 गुना अधिक होती है।

 भारत के वनों में 9 प्रकार की गिध्द प्रजातियां पाई जाती हैं । ये हैं – ओरियंटल व्हाइट -बैक्ड गिध्द (जिप्स बेन्गालेंसिस), स्लेन्डर बिल्ड गिध्द (जिप्स टेन्यूरोस्टिस), लॉग बिल्ड गिध्द (जिप्स इन्डीकस), इजिप्शियन गिध्द, (निओफ्रॉन पर्सनोप्टेरस), रेड हेडड  गिध्द (सर्कोजिप्स काल्वस), इंडियन गिफ्रान गिध्द (जिप्स फल्वस), हिमालयन ग्रिफॉन (जिप्स हिमालेन्सिस), सिनेरस गिध्द (आरजीपियस मोनाकस) और बेयर्डेड गिध्द अथवा  लेमर्जियर (जिपैटस बारबाटस) ।

 गिध्दों की नौ जातियों में से तीन जातियों के गिध्द अर्थात व्हाइट बैक्ड गिध्द , स्लेन्डर बिल्ड गिध्द और लॉग बिल्ड गिध्दों की संख्या पिछले दशक के पूर्व से ही तेजी से घट रही है । भारत में जिप्स जीनस की संख्या 2005 तक 97 प्रतिशत तक घट चुकी है।

 सालिम अली की पुस्तक भारतीय पक्षी में भारतीय गिध्दों की विभिन्न जातियां :
व्हाइट बैक्ड गिध्द: गिध्दों में सबसे आम। व्हाइट बैक्ड गिध्द शहर के खत्तों और पशुवध गृहों के आसपास पाये जाते हैं। यह संकटापन्न जातियों में से एक है।

इंडियन किंग गिध्द: लाल गर्दन वाले काले गिध्द । इनकी संख्या गुजरात, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में तेजी से क्षीण हो रही है।

सिनेरियस गिध्द: बड़ा काला- भूरा गुलाबी गर्दन वाला गिध्द। पेड़ों पर घोंसला बनाने वाली जाति। ये असम, हिमालय पर्वत की श्रृंखलाओं, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, केरल में पाये जाते हैं जो धीरे-धीरे दुर्लभ हो रहे हैं ।

इंडियन लांग बिल्ड ग्रिफॉन:  यह भूरे पंखों वाला एक सामान्य हिमालयी गिध्द है। ग्वालियर, पंचमढी, दिल्ली, आगरा, बरेली, जोधपुर और भारत में पूर्वोत्तर के अनेक क्षेत्रों में इसकी संख्या में शोचनीय ढंग से कमी हुई है।

इंडियन ग्रिफान: सफेद पीले बाल वाले पंखों से ढके सिर के साथ पूर्णतया भूरे रंग का गिध्द है। सामान्य तौर पर शहरों के आसपास देखे जाने वाला यह गिध्द अब धीरे-धीरे गायब हो रहा है।

 सरकार ने अप्रैल, 2006 में भारत में गिध्द संरक्षण के लिए एक कार्य योजना की घोषणा की थी। चरणबध्द ढंग से डाइक्लोफेनेक का पशुचिकित्सीय इस्तेमाल पर रोक तथा गिध्दों के संरक्षण और प्रजनन केन्द्र की स्थापना इसकी प्रमुख पहलें हैं। डाइक्लोफेनेक पर भारत में प्रतिबंध है। सस्ता होने के कारण हजारों गरीब पशुपालकों द्वारा इस दवा का प्रयोग किया जाता है। 25 कंपनियां हैं जो इस दवा का निर्माण करती हैं और 110 कंपनियां 25 करोड़ रूपये से अधिक में वार्षिक तौर पर इसका विपणन करती हैं। कंपनियों ने दावा किया है कि यह दवा उनके संचालन का प्रमुख हिस्सा नहीं है और वे सरकार के साथ उस स्थिति में सहयोग कर सकती हैं यदि वह  इसके विकल्प मेलोक्सीकाम को, जो कि पश्चिमी देशों में इस्तेमाल किया जाता है, को उपलब्ध कराने में  राज सहायता प्रदान करे। मेलोक्सीकाम हानि रहित है किन्तु यह ढाई गुना मंहगी दवा है।

 प्रथम गिध्द संरक्षण प्रजनन केन्द्र जो हरियाणा के पिंजौर में और दूसरा प्रजनन केन्द्र पश्चिम बंगाल के राजा भत्खावा, बुक्सा टाइगर रिजर्व में है दोनों पहले से ही पूर्णतया संचालित है । असम में रानी में तीसरे केन्द्र को मंजूरी दे दी गयी है और निर्माण कार्य प्रगति पर है। स्लेन्डर बिल्ड गिध्दों की संख्या की जानकारी सहित तीन जातियों के 170 से अधिक गिध्द इन केन्द्रों में रखे गए हैं। जंगली गिध्दों को सफलतापूर्वक पकड़ने के बावजूद सभी जातियों में इनकी घटती संख्या को देखते हुए गिध्दों को पकड़ने वाले दलों के लिए इनका पता लगाना एक चुनौती भरा काम बन गया है।

पिंजौर ने गिध्द संरक्षण कार्यक्रम के अंतर्गत गिध्दों की सर्वोत्तम देखभाल पर वार्ता हेतु भारत में राज्यों तथा सुविधा केन्द्रों में इनकी देखभाल करने वाले प्रतिनिधियों के विशेषज्ञों के साथ एक कार्यशाला का आयोजन किया। पशु-पक्षी पालन नियमों में संशोधन के लिए कर्मचारियों के समक्ष आने वाली चुनौतियों पर वार्ता करने के लिए एक बेहतर मंच प्रस्तुत करने के लिए यह एक सफल बैठक होगी। इससे निजी प्रजनन केन्द्र विकसित करने की योजना बना रहे भारत के राज्यों के वरिष्ठ कर्मचारियों के मन में विचारणीय इच्छा भी जागृत हुई है। इन तीन केन्द्रों के अलावा पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने केन्द्रीय जंतुशाला प्राधिकरण के माध्यम से हैदराबाद (आंध्र प्रदेश), भुवनेश्वर (उड़ीसा), जूनागढ (ग़ुजरात)और भोपाल (मध्य प्रदेश) के चिड़ियाघरों में चार बचावप्रजनन केन्द्रों की स्थापना की है। राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और असम राज्यों में गिध्दों की प्रजनन संख्या में वृध्दि की सूचना है।

बीएनएचएस द्वारा चलाए गए सर्वेक्षण और जांच के आधार पर स्लेन्डर बिल्ड गिध्दों की संख्या लगभग 1000 व्हाइट बैक्ड लगभग 11000 और लांग बिल्ड गिध्दों की संख्या 44000 होने का अनुमान है।

(लेखिका भारत सरकार में वरिष्ठ अधिकारी हैं)

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