लीव इन रिलेषन वेष्यावृति का आधुनिक रूप

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download (3){संजय कुमार आजाद**,,}
हाल हीं में माननीय उच्चतम न्यायालय ने एक फैसला दिया जिसका खासकर भारत के बहुसंख्यक समुदाय के समाज पर गहरा प्रभाव पड़ेगा। क्योंकि भारत में अधिकांषतः कानून इसी समाज पर लागु किये जाते रहे हैं। मेरी नियति ना तो उस फैसले के प्रति कोई पूर्वाग्रह है ना माननीय न्यायालय के प्रति किसी भी प्रकार की अवमानना करने की प्रवृति रहा है।किन्तु जो फैसला आया उसपर मैं अपने आपको स्थिर नही कर पा रहा हॅू। लिव इन रिलेषन या सहवास जीवन जैसे अनैतिक असामाजिक पद्धति पर समाज आज भी असहज है। वैसे में माननीय उच्चतम न्यायालय ने इस प्रवृति पर अपने फैसले में कहा है कि- लिव इन रिलेषन या सहवास जीवन न तो अपराध है और न ही पाप फिर भी देष में ऐसे संबध समाज के बीच अस्वीकार्य हैं।
 
प्रायः ऐसा माना गया है कि समाज के बीच जो अस्वीकार्य है वह गैरकानूनी है और जो गैरकानूनी है वही समाज के लिये अपराध माना गया है।जिस लिव इन रिलेषन या सहवास जीवन पर माननीय उच्चतम न्यायालय इतना गंभीर है अभी यह समाज के 2 प्रतिषत से भी कम कबीलाई मानसिकता बाले लोगों के बीच पनप रहा है। न्याय की अवधारणा है कि दण्ड प्रक्रिया समाज के उपर इसलिये लागु रहती है ताकि अनैतिक या असामाजिक कुकृत्य से समाज को बचाया जा सके, उस तरह के प्रवृृति पर अकुंष रखा जा सके और इसे हतोत्साहित किया जाए।किन्तु उपरोक्त फैसला समाज को अनैतिक बनाने में अप्रत्सक्ष रूप से सहमति प्रदान कर 2 प्रतिषत की दर को आगे बढ़ाने का कार्य करेगी।
 
इस प्रकार के फैसले भारतीय समाज के ताने-बाने को विछिन्न करती है। क्योंकि यह फैसला भारतीय अपराध संहिता की धारा-125 के पत्नी की परिभासा को ही बदल कर काबिलाई युग में भारत के हिन्दु समाज को धकेलती है।उच्चतम न्यायालय को यह अफसोस है कि इस देष मे इस तरह के असमाजिक कुकृृत्य को नियमित करने का प्रावधान नही है।ऐसे असमामाजिक प्रयत्न को बढ़ने से रोकने के लिये कठोरतम कानून होना चाहिए था ना कि इस प्रवृृति को नियमित या संरक्षण देने की बात होती । कोई भी सभ्य समाज इस तरह के पाष्विक प्रवृृति के प्रचलन को आत्मसात् कर आखिर अपने समाज को किस युग में ले जाना चाहता है,़? आधुनिकता के इस अंधी दौड़ में हम पाष्विकता को वरण कर मध्यकाल के वर्वर मुगल काल की ‘‘हरम प्रथा’’ को जीवित कर नारी को भोग की वस्तु मानने की मानसिकता की ओर अग्रसर हैं।
 
उपभोक्तावादी संस्कृति में पनप रहा यह सामाजिक स्खलन भारतीय ताना-बाना के लिए अत्यन्त घातक है। लिव इन रिलेषन या सहवास जीवन की इस कलुसित जीवन जीने बाले जिप्पसियों की जमात ही इसे सही मान सकता है और उसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत प्रदत्त जीवन जीने की स्वतंत्रता के अधिकार के अतंर्गत मानने की वेषर्मी कर रहा है। पाष्चात्य जीवनषैली और उसके भोगवादी मानसिकता से पीड़ित बुद्धिजीवियों का यह असामाजिक जमात जिस लिव इन रिलेषन या सहवास जीवन को सही मानने का प्रयास कर रही वह समाज के लिए खतरे की घण्टी है। 
 
आज बाजारवाद की भोगवादी लिप्सा और पाष्चात्य संस्कृति ने पहले संयुक्त परिवार पर प्रहार कर उसे तोड़ा और लिव इन रिलेषन या सहवास जीवन की यह घृणित सोच अब उस एकल परिवार को तोड़ने को प्रयत्नषील है। परिवार पर यह प्रहार समाज को पषु जीवन बनाने हेतु उद््त्त है जिसका बीज टी.व्ही. चैनलो पर प्रसारित हाने बाले अनेक धारावाहिकों में ही छिपा है। चन्द सिक्कों के खातिर समाज में इस प्रकार के प्रचलन को बढ़ावा देने वाली ये धारावाहिक नषा का एक कारोवार ही तो समाज में कर रही है।भारतीय परिवेष में यदि लिव इन रिलेषन या सहवास जीवन प्रगति का सूचक है तो भारत के सभी पषु समूह प्रगति का सर्वोच्च उदाहरण है। यह अनैतिक प्रवृति क्षणिक अव्यवस्था की उपज है जिसके दावानल में अंत तक वह स्वयं जलता है और अंततः उसके उस विकृत पाप को उससे उत्पन्न संतान ढ़ोने को विवष होता है जिसका कोई दोस नहीं है। सामाजिक अवधारणा में यह घृणित जीवन माता-पिता-पुत्र-पुत्री जैसे भावनात्मक रिष्तों को तिलांजली देकर नाजायज संतानों का समाज निमार्ण करेगा? चाची, ताई,मामा,फुफा, पीषीमां, माषीमां, बुआ, भाभी……..जैसे आत्मीय भावनात्मक रिष्तों को अंकल-आंटी में समेटकर लिव इन रिलेषन या सहवास जीवन पद्धति अब माता-पिता-पुत्र-पुत्री जैसे भावनात्मक रिष्तों को भी यह भोगवादी बाजारवादी व्यवस्था दफन करने को उताहुल हैं और हम प्रगति और विकास के नाम पर ऐसे अप्राकृतिक प्रवृति का समर्थन कर तथाकथित प्रगतिवाद का सर्मथक बन बैठते है। आज हम सब जिस अराजकता को परोक्ष समर्थन अनजाने में दे रहें है वह आनेबाले समय में एड्स से भी भयानक समाज को निर्मित करेगी इसमें रंचमात्र संषय नहीं है।
 
इस भयानक झंझावत में देष के युवावर्ग हीं फंसेगें । विष्व में सर्वाधिक युवाओं का देष भारत के युवा वर्ग को निस्तेज करने को दूरगामी प्रयास लिव इन रिलेषन या सहवास जीवन है।समाज जिस रफतार से अनैतिक, खुलेपन युवावर्ग के आगे परोस रहा है वह अत्यंत षोचनीय है।वैष्विक प्रगति का यह विकृति नेट और अन्य संचार माध्यमों के सहारे बड़े महानगरों से निकलकर छोटे महानगरों के युवावर्ग को अपना निवाला बना रहा है। लिव इन रिलेषन या सहवास जीवन में विवाह या रिष्तों जैसा षब्दों के लिये कोई अहमियत नहीं है। केाठावादी वेष्यावृति का समकक्ष यह लिव इन रिलेषन या सहवास जीवन मानवीय सभ्य समाज की पतन का प्रारंभिक सोपान मात्र है।जिस तरह से अफीम की खेती या नषे का करोबार समाज के लिये घातक है उससे भी खतरनाक लिव इन रिलेषन या सहवास जीवन प्रवृति का आस है जिसे कठोरतम से कठोरतम दण्ड के द्वारा रोकने का प्रयास होना चाहिये। नषे का कारोबारी और लिव इन रिलेषन या सहवास जीवन पद्धति का अधिकारी दानों हीं सभ्य समाज के लिए कलंक है।
 
वर्तमान आर्थिक युग जिसमें रिष्तों की हर डोर नफा-नुकसान की गांठ पर जीवित है । रिष्तों में जब व्यवसायी प्रवृति का घालमेल होता है तो आत्मीय भावना का लोप हो जाता है।ऐसे में स्त्री-पुरूस अपने रिष्तों के जज्बों को नहीं बल्कि दोनों अपने-अपने आर्थिक नफा नुकसान को देखना प्रारंभ कर दिया जिसका प्रतिफल न्यायालयों में दर्ज करोड़ों तलाक के पड़े आवेदन सभ्य समाज के मूंह पर कालिख पोत विवाह और रिषतों के पवित्र बंधन की धज्जी उड़ा रहा है। वैसे में  लिव इन रिलेषन या सहवास जीवन कोढ़ में खाज के समान भारतीय समाज को ग्रसित कर रखा है। भारतीय जनमानस के अधिकांष मानवीय संवेदना इस गलीज व्यवस्था  के सख्त खिलाफ है। वही जिनकी रातें क्लवों और वारों में ? रेव पार्टियों में ,रंगीन होती है जिन्होने हर रिष्तों को दफन कर बाजारू भोगवादी आसुरी प्रवृति को आत्मसात कर 3-डी ’’डांस-डरग-डाइवोर्स ’’ में जी रहें है वैसे लोग हीं लिव इन रिलेषन या सहवास जीवन की कल्पना में जीकर इसे यर्थाथ में लाना चाहता है। परिवार और विवाह एवं रिष्तों के लाष पर इन आसुरी प्रवृति का पोषण किसी भी सभ्य समाज के लिये अत्यन्त अनैतिक व निन्दनीय है। वास्तव में हरम को जायज मानकर वेष्यावृति के इस आधुनिकतम रूप लिव इन रिलेषन या सहवास जीवन उसी गलीज मानसिकता की उपज है। भारतीय परम्पराओं से चिढ़ रखने वाले अनैतिक ताकतों का समूह इस फैसले से खुष हो सकता है  इस पर तर्को के मुलम्मा को चढ़ाकर इसे सही और सामाजिक आवष्यकता साबित करने का पुरा का पुरा प्रयास करेगा किन्तु किसी भी तर्क के आधार पर यह अनैतिक असामाजिक व्यवस्था भारत के लिए अहितकर हीं होगा ।मध्यकाल का वर्वर षासको और गुलामी काल गर्वनरों के समय में जिस तरह से भारत की सामाजिक तानाबाना को क्षतविक्षत किया गया आधुनिक समय में यह उसी विकृति का परिचायक है जिससे हर हाल में भारत को मुक्त रखना हीं होगा।
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sanjay-kumar-azad**संजय कुमार आजाद
पता : शीतल अपार्टमेंट,
निवारणपुर रांची 834002

मो- 09431162589
(*लेखक स्वतंत्र लेखक व पत्रकार हैं)
*लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं और आई.एन.वी.सी का इससे सहमत होना आवश्यक नहीं । 

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