लियाकत अली शाह की रिहाई – मुसलमानों के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त है मीडिया *

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{  वसीम अकरम त्यागी ** } 20 मार्च को दिल्ली पुलिस ने उत्तर प्रदेश के गौरखपुर से एक कुख्यात आतंकी को गिरफ्तार करने की कहानी गढ़ी थी और प्रचारित किया था कि होली के अवसर पर दिल्ली को दहलाकर अफजल गुरु की फांसी का बदला लेना चाहते थे। मीडिया ने इस मुद्दे को हाथों हाथ लिया और एक विशेष समुदाय के खिलाफ दुष्प्रचार शुरु कर दिया। कुछ लोगों ने जामा मस्जिद और उसके आस – पास के इलाके को निशाना बनाया तो एक महाशय जिन्होंने मायावती की मूर्ती तोड़कर प्रदेश में अराजकता फैला दी थी उन्होंने सीधे सीधे इमाम बुखारी को निशाना बनाया और तरह तरह के बेहूदा आरोप लगाने शुरु कर दिये। जिनमें कहा गया था कि “ दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बुखारी की देखरेख में चलने वाले गैस्ट हाऊस से भारी मात्रा में विस्फोटक बरामद हुआ है इससे अंदाजा होता है कि लोग इस देश को किस तरफ ले जाना चाहते हैं”। जाहिर है इस तरह के आरोप एक विशेष समुदाय और उसके धार्मिक स्थलों को समाज की नजरों में बे इज्जत करने के लिये ही लगाये गये थे।

जबकि लियाकत अली शाह की गिरफ्तारी शुरु से ही विवादों में रही है उसके बचाव में कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह भी उतर आये थे और उन्होंने दिल्ली पुलिस की कार्यप्रणाली और इस झूठी मनघड़ंत साजिश पर भी सवालिया निशान लगाये थे। जिसकी बदौलत जांच एनआईऐ को सौंपी गई जिसमें लियाकत अली शाह के खिलाफ कोई सबूत नहीं मिले और एनआईए कोर्ट ने महज 20 हजार के निजी मुचलके पर जमानत दे दी। जिला न्यायाधीश आईएस मेहता ने 20 हजार रूपये के निजी मुचलके तथा इतनी ही राशि की जमानत देने पर लियाकत को जमानत पर रिहा करने के आदेश दिए। अदालत ने लियाकत को जमानत प्रदान करते हुए कई शर्तें लगायी हैं और उन्हें अदालत की पूर्वानुमति के बिना देश छोड़ कर नहीं जाने का निर्देश दिया है। तिहाड़ जेल में बंद लियाकत ने यह कहते हुए जमानत मांगी थी कि वह आत्मसमर्पण करने के लिए सोनौली बार्डर होते हुए भारत लौट रहा था लेकिन दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल ने उन्हें 20 मार्च को गिरफ्तार कर लिया। लियाकत के वकील आसिम अली ने अदालत को बताया कि उनके मुवक्किल अपनी पत्नी और बच्चों के साथ थे जिस समय उन्हें गिरफ्तार किया गया और जांच एजेंसी किसी भी अपराध के साथ उनका संबंध स्थापित करने में विफल रही है। यहां जामा मस्जिद इलाके से हथियारों और गोला बारूद की कथित बरामदगी के संबंध में उनके वकील ने कहा था कि यह उनके मुवक्किल की निशानदेही पर बरामद नहीं किए गए हैं जैसा कि विशेष शाखा ने आरोप लगाया है। उन्होंने यह भी कहा था कि आज तक जांच के दौरान लियाकत के खिलाफ कोई भी ठोस सबूत नहीं पाया गया। इसी वजह से उसे रिहा किया गया है।

अब जबकि लियाकत अली शाह को बाईज्जत बरी किया जा चुका है तो सवाल उठता है कि वह हथियार जो गैस्ट हाऊस से बरामद हुऐ थे वे किसने और क्यों रखे थे ? क्या ये एक समुदाय को निशाना बनाने की साजिश नहीं थी ? जो एनआईए ने नाकाम कर दी। क्या अब उन पुलिसकर्मियों पर भी कोई कार्रावाई की जायेगी जिन्होंने इस झूठी कहानी को अंजाम दिया था और राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर एक निर्दोष को लगभग दो महीने जेल में गुजारने पड़े। सवाल गृह मंत्रालय से है क्योंकि दिल्ली पुलिस गृहमंत्रालय के अतंर्गत ही आती है और गृहमंत्री राष्ट्रीय सुरक्षा को आरएसएस से खतरा भी बता चुके हैं ये अलग बात है कि उन्होंने इस पर बजाय कार्रवाई करने के उल्टे माफी मांग ली थी। इस पूरे मामले में अगर मीडिया की भूमिका पर नजर डाली जाये तो पता चलेगा कि वह हर बार की तरह इस बार भी पूर्वाग्रह से ग्रस्त नजर आयी है और उसने आज जो खबर प्रकाशित हैं उसमें किसी ने भी ये नहीं लिखा कि वह गलत तरीके से फंसाया गया था। बल्कि उसके नाम के साथ आतंकी शब्द का प्रयोग किया गया है ठीक उसी तरह जिस तरह संसद पर हमले के कथित आरोपी प्रोफेसर गिलानी को संदिग्ध आतंकी लिखा जाता है उसी तरह लियाकत अली शाह को भी संदिग्ध आंतकी लिखा गया है। ये कोई एक दो अखबार या वेबपोर्टल का मामला नहीं है बल्कि अधिकतर समाचार माध्यमों ने इसी कार्यशैली को अपनाया है और लियाकत अली शाह को बजाय बरी लिखने के उसे संदिग्ध आतंकी लिखा है और इस खबर को इस तरह से लिखा गया है मानो वह कोई बड़ा आतंकी हो और रिश्वत ले देकर उसने न्याय को खरीद लिया हो। इससे साफ जाहिर होता है कि मीडिया एक विशेष समुदाय के खिलाफ पूर्वाग्रह से ग्रस्त है जो किसी भी दाढ़ी या टोपी को आतंकवादियों से जोड़ने में जरा भी संकोच नहीं करती। जबकि पत्रकारिता की किताबों में पढ़ाया कुछ और जाता है कि निष्पक्ष होना चाहिये दोनों पक्षों को सुनना चाहिये तो वह ऐसे मौकों पर वे उपदेश कहां गायब हो जाते हैं ? क्या ये लोकतंत्र के लिये खतरा नहीं है ? क्या ये कलम की ताकत का नाजायज प्रयोग नहीं है ? क्या ये एक समुदाय को दुनिया की नजरों में अपमानित करना नही है ? क्या इन कारनामों से ये अखबार वाले पत्रकारिता रूपी द्रोपदी का चीरहरण नहीं कर रहे हैं ? इतना कुछ हो रहा है और भारतीय प्रेस परिषद इस पर कोई आपत्ती तक दर्ज नहीं कर रही है आखिर क्यों ? एक निर्दोष को बरी किया जा चुका है उसके बाद भी उसके नाम के साथ आतंकी शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है और प्रेस परिषद इस पर चुप्पी साधे हुऐ है ये तो उसका फर्ज नहीं है। क्या अब भी कुछ बचा है जिससे ये साबित होता हो कि मीडिया पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं है ? मीडिया को अपने इस नजरिये को बदलना होगा क्योंकि वह तो लोकतंत्र की प्राण वायू है अगर वह भी इस तरह पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर खबरों को प्रसारित, प्रकाशित करेगा तो फिर ये समझ लेना में कोई कमी नहीं रह जायेगी कि मीडिया अब सिर्फ संप्रदायिक बहुसंख्यक ताकतो के हाथों की कठपुतली के अलावा और कुछ नहीं है।

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वसीम अकरम त्यागी,Wasim Akram,Wasim Akram tyagi,** वसीम अकरम त्यागी
उत्तर प्रदेश के जिला मेरठ में एक छोटे से गांव अमीनाबाद उर्फ बड़ा गांव में जन्म

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एंव संचार विश्विद्यलय से पत्रकारिता में स्नातक और स्नताकोत्तर

समसामायिक मुद्दों और दलित मुस्लिम मुद्दों पर जमकर लेखन। यूपी में हुऐ जिया उल हक की हत्या के बाद राजा भैय्या के लोगों से मिली जान से मारने की धमकियों के बाद चर्चा में आये ! फिलहाल मुस्लिम टूडे में बतौर दिल्ली एनसीआर संवाददता काम कर रहें हैं

9716428646. 9927972718
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his own and do not necessarily reflect the views of INVC.

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