रोहिंग्या समस्या: शांति दूत के देश में?

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–  तनवीर जाफरी –

अफगानिस्तान के बामियान प्रांत में मार्च 2001 में जब तालिबानी नेता मुल्ला मोहम्मद उमर के आदेश पर छठी शताब्दी में विशाल पत्थर से निर्मित महात्मा बुद्ध की प्रतिमाओं को तोप के गोलों से ध्वस्त किया गया था उस समय पूरी दुनिया ने इस तालिबानी फरमान की घोर निंदा की थी। इस घिनौने तालिबानी फरमान के अंतर्राष्ट्रीय विरोध का मुख्य कारण यही थी कि चूंकि पहाड़ों को काटकर बनाई गई 35 तथा 53 मीटर ऊंची यह प्राचीन प्रतिमाएं एक ऐसे महान संत,मार्गदर्शक तथा समाजसुधारक महात्मा बुद्ध की थीं जिन्होंने अपना पूरा जीवन शांति व अहिंसा का संदेश देने में बिता दिया। और क्रूर एवं दुष्ट प्रवृति रखने वाले अत्याचारी तालिबानों ने उस महान आत्मा की ऐतिहासिक प्रतिमाओं को ध्वस्त कर दिया। उस समय महात्मा बुद्ध का अनुयायी समाज जो दुनिया के कई देशों में फैला हुआ है खामोशी से तालिबानों के कुकृत्यों को देख रहा था। परंतु आज लगभग पंद्रह वर्ष बीत जाने के बाद बुद्ध के अनुयाईयों ने भी तालिबानों की क्रूरता की तजऱ् पर ही खुद भी चलना शुरु कर दिया है।

भारत-बंगलादेश-चीन-लाओस तथा थाईलंैड की सीमाओं के मध्य बसा हुआ दक्षिण-पूर्वी एशियाई देश म्यांमार अथवा बर्मा इन दिनों अपने सैनिकों द्वारा रोहिंग्या मुसलमानों पर ढाए जा रहे अत्याचार के लिए पूरे विश्व में चर्चित हो रहा है। इस देश में लगभग 88 प्रतिशत जनसंख्या बुद्ध धर्म के मानने वालों की है। जबकि 6 प्रतिशत लोग ईसाई हैं व करीब 4. 3 प्रतिशत जनसंख्या मुसलमानों की है। बताया जाता है कि बर्मा के रखाईन प्रांत में आमतौर पर रहने वाले रोहिंग्या मुसलमान मूलरूप से बंगलादेश के रहने वाले हैं। रोहिंग्या मुसलमानों तथा स्थानीय बुद्ध समाज के लोगों के मध्य पड़ी दरार के कई अलग-अलग िकस्से बताए जाते हैं। एक घटना यह प्रचलित की गई है कि 2012 में रखाईन राज्य में एक बौद्ध लडक़ी के साथ किसी रोहिंग्या मुसलमान ने बलात्कार किया। यह विवाद इतना बढ़ा कि बौद्धों व रोहिंग्या मुसलमानों के मध्य बड़े पैमाने पर संघर्ष छिड़ गए। दूसरी कथा यह भी प्रचलित है कि अपने समुदाय पर बर्मा की सेना द्वारा ढाए जा रहे ज़ुल्म के विरुद्ध रोहिंग्या मुसलमानों के एक गिरोह ने बर्मा के सैनिकों पर हमला बोल दिया जिससे कुछ सैनिकों की मौत हो गई। इसके बाद सेना ने रोहिंग्या मुसलमानों के विरुद्ध एकतरफा सशस्त्र कार्रवाई करनी शुरु कर दी। और बताया जा रहा है कि बर्मा की सेना बर्मा में बसे लाखों रोहिंग्या मुसलमानों को बर्मा से खदेड़ कर बाहर कर देना चाहती है। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के मुताबिक मात्र गत् दो सप्ताह के दौरान बर्मा से 2 लाख 70 हज़ार रोहिंग्या लोगों ने पलायन किया है।

रोहिंग्या लोगों के लिए दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि बावजूद इसके कि उन्हें बंगलादेशी मूल का बताया जा रहा है फिर भी बंगलादेश उन्हें अपने देश में लेने के लिए तैयार नहीं है। दूसरी भारतीय सीमा में हालांकि हज़ारों की संख्या में रोहिंग्या लोग जिनमें कि मुसलमानों के साथ-साथ सैकड़ों हिंदू पीडि़त परिवार भी शामिल हैं,भारत में प्रवेश कर चुके हैं। परंतु भारत की वर्तमान केंद्र सरकार ने शरणार्थियों को लेकर जो नई नीतियां बनाई हैं उनमें किसी भी देश के मुसलमानों को भारत में शरणार्थी के रूप में शरण देने की कोई गुंजाईश नहीं। जबकि किसी भी देश के शरणार्थियों को किसी भी देश में संकटकालीन स्थिति में शरण देने का मापदंड मानवीय आधार तथा शरणागत की जान व माल की सुरक्षा सुनिश्चित करना होता है। दुनिया का कोई भी देश धर्म के आधार पर किसी को शरण दे, ऐसी कोई भी नीति संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा तैयार नहीं की गई है। ज़ाहिर है रोहिंग्या के हिंदू व मुसलमान शरणार्थी इस समस्या से बुरी तरह जूझ रहे हैं और बर्मा के सैनिकों द्वारा उनके साथ की जा रही बेरहमी व अत्याचार से कोई धर्म या जाति विशेष नहीं बल्कि सीधे तौर पर मानवता प्रभावित हो रही है।

बर्मा के निवासी बहुसंख्य बुद्ध समाज के लोग तो शांतिदूत महात्मा बुद्ध के उपासक हैं ही साथ-साथ वहां की नेता आंग-सांग सूकी को भी शांति का नोबल पुरस्कार मिल चुका है। परंतु रोहिंग्या संकट के विषय में न तो वे रोहिंग्या पीडि़तों के पक्ष में खुलकर अपनी आवाज़ बुलंद कर पा रही हैं न ही वे रोहिंग्या विरोधी बर्बर सैन्य कार्रवाई के विरुद्ध कुछ बोल पा रही हैं। बर्मा के इस ताज़ा संकट पर नज़र रखने वाले लोग तो अब सूकी को मिले नोबल शांति पुरस्कार पर भी सवाल उठाने लगे हैं। परंतु सूकी का रोहंग्यिा संकट पर खुलकर न बोलना इस बात का साफ संकेत है कि वे बर्मा की सेना जोकि कुछ समय पूर्व तक सत्ता पर काबिज़ थी, का खुलकर विरोध करने का साहस नहीं कर पा रही हैं। रोहंग्यिा संकट से जुड़ा एक और आश्चर्यजनक पहलू यह भी है कि वहां के स्थानीय बुद्ध समाज में मुसलमानों के विरुद्ध नफरत फैलाने का काम एक भिक्षु वेशधारी बौद्ध द्वारा किया जा रहा है। आशीन विराथू नामक इस बौद्ध भिक्षु की बर्मा के बौद्ध समुदाय के लोगों में एक अध्यात्मवादी आततायी व आक्रामक नेता के रूप में पहचान बनी हुई है। 14 वर्ष की आयु में स्कूल की पढ़ाई छोडक़र भिक्षु का वेश धारण करने वाले विराथू ने 969 आंदोलन के नाम से अपनी इस्लाम विरोधी मुहिम की शुरुआत सन् 2001 में की। दो वर्ष बाद ही 2003 में इसे बर्मा में जातीय हिंसा भडक़ाने,अफवाहें फैलाकर समाज में नफरत फैलाने तथा सामूहिक हत्याओं के आरोप में 25 वर्ष के कारावास की सज़ा भी सुनाई गई थी। परंतु 2011 में इसे अन्य राजनैतिक कैदियों के साथ रिहा कर दिया गया। तब से लेकर आज तक यह व्यक्ति इस्लाम विरोधी मुहिम के अपने एकसूत्रीय एजेंडे पर कायम है। ज़ाहिर है बलात्कार या सैनिकों की हत्या जैसी मुसलमानों से जुड़ी खबरें उसे ऊर्जा प्रदान करती हैं और उसे अपने नफरत फैलाने के मंसूबे में और भी मज़बूती हासिल होती है।

बामियान में महात्मा बुद्ध की मूर्तियों के खंडित होने से लेकर रोहंग्यिा के मुसलमानों पर ढाए जा रहे ज़ुल्म तक और तालिबानी नेता मुल्ला उमर से लेकर बौद्ध भिक्षु आशीन विराथू तक बार-बार यही सवाल उठता है कि क्या मोहम्मद तो क्या महात्मा बुद्ध,क्या इस्लाम तो क्या बौद्ध धर्म, क्या इन धर्मों या महापुरुषों ने अपने अनुयाईयों को यही शिक्षा दी थी कि वह इसी प्रकार इंसानों के घरों में आग लगाते फिरें, दूसरों के धर्म,धर्मस्थलों,उनके आराध्यों को अपमानित करते फिरें,एक इंसान दूसरे इंसान की न केवल हत्या करे बल्कि उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े भी किए जाने लगे हों? भारतवर्ष में भी दलाई लामा के रूप में एक महान बौद्ध नेता रहते हैं। उन्हें भी 1989 में विश्व का सर्वोच्च नोबल शांति पुरस्कार हासिल हो चुका है। आज तक उनके मुंह से किसी ने हिंसा को प्रेरित करने वाली कोई बात नहीं सुनी। यहां तक कि चीन जोकि दलाई लामा की सभी गतिविधियों को संदेह की नज़रों से देखता है तथा उनका आलोचक तथा विरोधी है। उसके विरुद्ध भी दलाई लामा को कभी तीखे शब्द बोलते नहीं देखा गया। परंतु जब मुल्ला उमर,लाडेन या जवाहिरी जैसे लोग या आशीन विराथू अथवा किसी अन्य धर्म का धार्मिक चोला पहने हुए कोई भी तथाकथित अध्यात्मवादी या धर्मगुरु समाज में धर्म व जाति के आधार पर लोगों में फूट डालने या संघर्ष पैदा करने अथवा हिंसा भडक़ाने का काम करने लग जाएं तो निश्चित रूप से धर्म तथा धार्मिक शिक्षाएं दोनों ही संदेह के घेरे में आ जाती हंै। और ऐसे ही हालात का भुगतान रोहिंग्या संकट से प्रभावित गरीब व बेगुनाह लोगों को करना पड़ता है। पूरे विश्व में ऐसे संकट से आम लोगों को बचाने की तथा मानवीय आधार पर शरण दिए जाने की नीति अपनाई जानी चाहिए।

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 About the Author

 Tanveer Jafri

Columnist and Author

 Tanveer Jafri, Former Member of Haryana Sahitya Academy (Shasi Parishad),is a writer & columnist based in Haryana, India.He is related with hundreds of most popular daily news papers, magazines & portals in India and abroad. Jafri, Almost writes in the field of communal harmony, world peace, anti communalism, anti terrorism, national integration, national & international politics etc.

 He is a devoted social activist for world peace, unity, integrity & global brotherhood. Thousands articles of the author have been published in different newspapers, websites & news-portals throughout the world. He is also recipient of so many awards in the field of Communal Harmony & other social activities.
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