राश्ट्रीय पहचान खोती बांसुरी की आवाज़

1
41

**शरीक  पर्वेज

पीलीभीत। संगीत के क्षेत्र में राश्ट्रीय ख्याति प्राप्त बांसुरी वादक हरि प्रसाद चौरसिया हो या मुंबई नगरी के रोनु मजूमदार यह दोनो कलाकार अपने हुनर में जब पीलीभीत की बनी बांसुरी के बारे में बताते हैं कि वह पीलीभीत में बनी बांसुरी बजाते है और राश्ट्रीय बांस मिशन की कार्यशाला 5 मार्च 2008 में बांस रोपण की पौध के बारे में सामाजिक वनिकी उ0प्र0 भी पीलीभीत की बांसुरी में प्रयुक्त होने वाला नरकुल जो बांस की एक प्रजाति है की नर्सरी बनाने व खेती को प्रोत्साहन देने का संकलप लिया गया। विगत वशz पीलीभीत की बांसुरी उत्पादन के लिए एक माडल कार्य योजनस हेतू पीलीभीत के चयन के बारे में बताया गया। यह प्रश्ठभूमि है पीलीभीत के एक पुराने परंपरागत वादन के क्षेत्र में बांसुरी बनाने की कला जिससे मुंबई व दिल्ली महानगर भी भली भांती परिचित है। यों भी कान्हा की बंशी, बांसुरी वादको के लिए पीलीभीत की बांसुरी किसी परिचय की मोहताज नहीं है। इस बांसुरी की विदेशों में भी पहचान है।
लेकिन आज के दस्तकारी के प्रोत्साहन के युग में गांधी जी के कुटीर उद्योगों के प्रोत्साहन लघु उद्योगों की ओर बढती ग्रामीण व शहरी विकास योजनाएं आजीविका से जुढे़ कौशल विकास की ओर बढते सरकार के कदमों के बीच आज सब कुछ के बाद भी इस लगातार अंतिम चरणों में जाता यह हस्थिशल्प उपेक्षा के तहद दम तोढता नज़र आता है।
चार दशकों से पूर्व तक इस पेशे से लगभग 1000 परिवार केवल पीलीभीत नगर में इस पेशे से जुढे़ थे, मुस्लिम अल्पसंख्यक महिला आधारित पहला रोजगार ऐसा था जिसमें “आसाम´´ से लेकर प्रयुक्त होने वाले नरकुल बांस ने यहां के कुछ कारीगरों से जुढे व्यापारियों ने आसाम से मगांकर इन बांस के तुकडों की सफाई उपयोगिता व किस्म के अनुरूप नपाई कर लघु उद्योग की तरह शहर के मोहल्ले जो अधिकांश मजदूर पेशा थे उनके घरों पर मांग के अनुसार प्राप्त कर इन नरकुल बांस के टुकडों को नल के पास बनी पानी की धिरौची में डालकर भिगाने के बाद इन्हे घर की महिलाएं व बच्चे द्वारा छीलकर उन पर चिकनी पर्त खुरचकर इन टुकडों को बांसुरी बनाने के लिए छेद एक विशेश तकनीक से किए जाते है, जिन्हे एक विशेश कट देकर करहर की लकडी की डाट लगाकर इसे पालिश से चमकाकर विभिन्न स्वर व तीव्रता वाली बांसुरी को बिक्री के लिए तैयार किया जाता था। कम से कम 3 स्तर पर इसका निमार्ण कर इसे बाहर मांग के अनुसार शहरों में भेजा जाता था, वही बच्चों के खेल खिलौने मेला, गली मोहल्ले में फिल्मी धुने बजाते हुए हाकर भी इसे बेचकर अपनी रोजी रोटी का इनतेजाम करते थे।
पीलीभीत के मोहल्ला मो0 वासिल, दुगाz प्रसाद, भूरे खॉ, मियां साहब, डालचंद, फीलखाना, गौढी, देश नगर, मदीना शाह आदि 8 मोहल्लों में शहरी अल्पसंख्यकों का इस कारोबार में पीलीभीत को उच्च क्षमता व तकनीक वाली बांसुरी के लिए, देश में पहचान दिलाई, पुरानी फिल्मों में अक्सर इस बांसुरी को लेकर गाने होते थे, बैजूबावरा के लिए प्रख्यात संगीतकार स्व0 नौशाद अली ने अपने पैतृक निवास लखनऊ से आदमी भेजकर बांसुरी तैयार कराई बताते है कि उनकी तारीफ के बाद, मुंबई फिल्म नगरी तक पीलीभीत की बांसुरी पहुंची।
आज कालांतर में यह परंपरागत 1000 परिवारों को रोजी रोटी से जोढता यह परिवार ठोस सरकारी योजना, क्लस्टर बेस िशल्प विकास तथा आज के स्वंय सहायता समूह जिसे आजीविका का मज़बूत साधन बताया जा रहा है। समाज कल्याण एंव विकास अध्ययन केंद्र की स्थानीय उपलब्धियां और स्वरोजगार के सर्वेक्षण जनवरी 1997 में 100 – 200 परिवारों तक यह रोजगार सिमट चुका था। बताया गया कि आसाम से आने वाला यह नरकुल रूपी बांस जो कच्चा माल बांसुरी है। पीलीभीत meetर गेज rail लाईन होने के कारण महीनों बाद यह माल पीलीभीत स्टेशन पहुंचता है, इस बीच रख रखाव के आभाव में 30-40 प्रतिशत टूट जाता था और इससे लागत बढने लगी, मजदूरी कमी पर कारीगर दूसरे रोजगार मेहनत मजदूरी पर परिवार आश्रित हुए, मो0 डालचंद के 60 वशीzय मो0 इलियास जिनके पास 50-100 परिवार बांसुरी निमार्ण कार्य करते थे

 

**शरीक  पर्वेज

Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC

 

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here