रावण ने मृत्यु के लिये सीता का अपहरण किया था ? 

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दशहरा के समय जब राम की विजय का घोष होता है तो रावण की पराजय और मृत्यु की चर्चा भी होती है। वास्तव में दशहरा के मौके पर राम तथा रावण दोनों का स्मरण होता है।  
रामानुज लक्ष्मण द्वारा शूर्पणखा का अंग भंग किये जाने का कारण सब को मालूम हैं। लेकिन इस सिलसिले में दो तथ्य ध्यान दिये योग्य हैं। श्रीराम और लक्ष्मण दोनों प्रारंभ में शूर्पणखा  का प्रस्ताव टालते हैं। जब शूर्पणखा डरावना रूप धारण करती है तब सीता को भयभीत देखकर लक्ष्मण शूर्पणखा के नाक-कान काटते है। तब भी शूर्पणखा राम की बुराई नहीं करती है, सीता का रूप वर्णन करते हुए वह रावण से कहती है:-

सोभा धाम राम अस नामा।
तिन्ह के संग नारि एक स्यामा।
रूप रासि विधि नारी संवारी।
रति सत कोटि तासु बलहारी।  

सीता के रूप की प्रशंसा करते हुए वह रावण को उकसाती है कि सीता का अपहरण कर लो लेकिन राम के विरूद्ध कुछ नही कहती है।
रावण का कथित अहंकार और जिद को तुलसीदास ने बार-बार दिखाया है लेकिन वे अरण्यकांड में रावण के मन की बात कह गये।
कथा प्रसंग यह है कि दरबार में बहिन शूर्पणखा को महाबली रावण अपने बल और शौर्य की कहानियां सुनाकर सांत्वना देता हैं लेकिन वह इसके बाद रात भर सो नहीं पाया। तुलसीदास अरण्यकांड के दोहा क्रमांक 22 में रावण के रात्रि जागरण तथा उसके मनोमंथन की बात कहते है।
शूर्पणखा समुझाई करि, बल बोलेसि बहु भांति।
गयऊ भवन अति सोच बस, नींद परई न राति।
रावण रात भर सो नही पाया। यद्यपि उसने अपनी बहिन को दरबार में अपने बल तथा शौर्य के बहुत किस्से सुनाये परन्तु रात्रि जागते हुए वह यह सोचता रहा कि खर दूषण जैसे मेरे समान बलशाली राक्षसों को राम ने मार दिया तो वे निश्चय ही भगवान के अवतार हैं। भगवान का भजन इस जन्म में इस तन से नहीं हो सकता तो एक ही विकल्प बचता है कि भगवान के हाथ से मृत्यु के द्वारा मुझे मोक्ष मिले।
रावण की इस मनोदशा का वर्णन करते हुए महाकवि यह भी लिखते है कि रावण ने यह निश्चय कर लिया है कि मैं हठ पूर्वक श्रीराम का दुश्मन बनूंगा। यदि वे दोनों (राम और लक्ष्मण) ईश्वर के अवतार नहीं है तो मैं उन दोनों से युद्ध जीत लूंगा और यदि वे ईश्वर के अवतार हुए तो और यदि वे ईश्वर के अवतार हुए तो उनके हाथों मरकर स्वर्ग जाऊंगा। यह उल्लेखनीय प्रसंग है।

रावण के इस मनोमन्थन का उल्लेख संत कवि ने इन शब्दों में किया है:-
तो मैं जाई बैरी हठ करऊ
प्रभु सर प्रान तजे भव तरऊ।
इसके बाद अगले दोहा में तुलसीदास ने एक और रहस्योद्घाटन किया। श्रीराम सीता से कहते हैं कि तुम कुछ समय के लिए अग्नि में निवास करो। तब तक मैं राक्षसों का संहार करूंगा। श्रीराम के मुंह से यह बात सुनकर सीता ने अग्नि में प्रवेश कर लिया। अग्नि से उनका प्रतिबिम्ब सामने आया जो वैसा ही रूप था। लक्ष्मण को यह ज्ञात नहीं था क्योकि उस समय वे वन गये हुये थे।
रावण-वध के बाद सीता की अग्नि परीक्षा का कारण भी यही था कि श्रीराम मूल सीता को अग्नि से वापिस प्राप्त करना चाहते थे, जो पूर्व में अग्नि में समा गई थी। तुलसीदास ने इस प्रसंग का वर्णन इस प्रकार किया है।
सुनहू प्रिया व्रत रूचिर सुसीला
मैं कछू करब ललित नर लीला।
तुम्ह पावक मंह करऊं निवासा।
जो लगि करौं निसाचर नासा।
निज प्रति बिम्ब राखि तंह सीता।
तैसई सील रूप सुविनीत।।
इसके बाद इस सीता का हरण हुआ। रावण इस सीता का अपहरण कर ले गया तथा राम-रावण युद्ध की भूमिका बनी। अरण्यकांड में ही शबरी द्वारा दिये गये कंद मूल फल राम के द्वारा खाये जाने का वर्णन है। श्रीराम ने शबरी को भक्ति के नौ प्रकारों (नवधा भक्ति) का उपदेश दिया।  
श्रीराम ने इसके पूर्व लक्ष्मण को भी नवधा भक्ति से अवगत कराया था। यह प्रसंग भी अरण्यकाण्ड मे आया है। लेकिन लक्ष्मण और शबरी को दिये गये नवधा भक्ति के उपदेशों में अन्तर है। यह है कि जहां श्रीराम ने लक्ष्मण को ईश्वर से प्रेम करना सिखाया वहां शबरी की वह भक्ति बताई जिसमे मनुष्य ईश्वर का प्रिय होता है।  
शबरी ने ही पंपासुर का मार्ग बताया जहां श्रीराम लक्ष्मण की भेट पहले हनुमान से और फिर सुग्रीव से होती है।  
वृन्दावन के विख्यात संत दिवंगत स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती ने अरण्यकाण्ड की तुलना माया नगरी हरिद्वार से की है। उनका कथन यह है कि जिस प्रकार तालाब में उतरने के लिये सीढ़िया उतरनी पड़ती है वैसे ही रामचरित मानस के सात सोपान अर्थात सात सीढ़ियां है। राम चरित मानस के सात सोपानों का नामकरण वे सात मोक्षदायिनी पुरियों के नाम पर करते हैं। वे अरण्यकाण्ड को वे माया प्रथान बताते हुये इसे हरिद्वार बताते है। ये सात पुरियां है अयोध्यां, मथुरा, माया (हरिद्वार), काशी, कांची, अवन्तिका तथा द्वारावती (द्वारका)। अरण्यकाण्ड की वे माया प्रधान बनाते है। इसमें सभी माया करते है। राम-सीता-लक्ष्मण ने अरण्य की शरण ली। वहां राम ने सीता के अग्नि प्रवेश की माया रची तो रावण ने विप्रवेश धारण कर सीता हरण की माया की। मारीच ने कंचन मृग बनकर सीता को लुभाने की माया की, तो अंत में लक्ष्मण के स्वर में सीता का उच्चारण कर एक और माया की। खर-दूषण ने राम से माया युद्ध किया तो राम ने भी माया युद्ध कर उसका उत्तर दिया। शूर्पणखा ने भी राम को प्रलोभित करने की माया की। PLC

 
 

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