राजनीति:‘अत्याचार’ और ‘माफ़ी’ की

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Justiceतनवीर जाफ़री**,,
हमारे देश के लोकतंत्र में सत्ता की मंजि़ल को तय करने के लिए विकास कार्यों के बजाए अन्य जिन रास्तों से होकर गुज़रा जाता है उनमें सांप्रदायिकता, जातिवाद व क्षेत्रवाद जैसे कई मार्ग शामिल होते हैं। इन्हीं अफ़सोसनाक रास्तों में एक रास्ता है पहले अत्याचार और फिर मा$फी की राजनीति किए जाने का। पिछले दिनों दिल्ली की एक अदालत ने 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों के संबंध में 2 अप्रैल 2009 को सीबीआई द्वारा दी गई उस क्लीनचिट को खा़रिज कर दिया जिसमें सीबीआई ने पूर्व केंद्रीय मंत्री जगदीश टाईटलर को निर्दोष बताने की कोशिश की थी। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी की हत्या के पश्चात भडक़े सिख विरोधी दंगों के दौरान जहां दिल्ली व देश के कई अन्य भागों में बड़े पैमाने पर सिख विरोधी हिंसा व $कत्लेआम हुआ था उन्हीं में एक मामला एक नवंबर 1984 को दिल्ली के पुलबंकश के पास का भी था जिसमें बादल सिंह,ठाकुरसिंह व गुरुचरण सिंह नामक तीन सिखों की हत्या कर दी गई। जगदीश टाईटलर पर आरोप है कि उन्होंने भडक़ाऊ भाषण देकर भीड़ को इन सिखों की हत्या करने के लिए प्रोत्साहित किया। इस प्रकार के और भी कई मामले दिल्ली की विभिन्न अदालतों में विचाराधीन है। 1984 से लेकर आज तक दंगों से पीडि़त व प्रभावित सिख परिवारों के लोग न्याय की गुहार कर रहे हैं तथा दंगों में शामिल व जि़म्मेदार लोगों को सज़ा दिए जाने की मांग कर रहे हैं।

sanjiv bhattऐसी ही स्थिति देश के गुजरात राज्य की भी है। वहां भी 2002 के दंगों के पीडि़त व प्रभावित परिवारों के अधिकांश लोग अभी तक इंसाफ़ की गुहार लगा रहे हैं। दिल्ली व गुजरात के इन दंगा प्रभावित लोगों में सैकड़ों परिवार ऐसे भी हैं जिनकी दुनिया ही इन हादसों की वजह से उजड़ गई है। कई घरों में तो दो व$क्त की रोटी भी मयस्सर नहीं हो पा रही है। इन्हीं पीडि़त परिवारों में तमाम ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने 1984 व 2002 के दिल्ली व गुजरात के दंगों की भयावहता,उसकी आक्रामकता तथा दंगाईयों के ख़तरनाक मंसूबों के सच को अपनी आंखों से देखा है। ज़ाहिर है इन्हें शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। मैं भी उन दुर्भाग्यशाली लोगों में से हूं जिसने 1984 के सिख विरोधी दंगों की हक़ीक़त,उसमें दिल्ली पुलिस के मूकदर्शी बने रहने व दंगाईयों की आक्रामकता को अपनी आंखों से उस समय देखा जबकि मैं इंदिरा गांधी की अंत्येष्टि में शामिल होने के लिए इलाहाबाद से दिल्ली आया था। समुदाय विशेष के लोगों के घरों व दुकानों पर हमला करना व जलाना तो मामूली सी बात है, सडक़ों पर ज़िन्दा लोगों की चिताएं जलते मैंने अपनी आंखों से देखी थी। औरतों व बुज़ुर्गों तक को दंगाई बड़ी बेरहमी से मार व जला रहे थे। उस समय तो बिल्कुल ऐसा ही प्रतीत हो रहा था कि संभवत: दंगाईयों ने समुदाय विशेष का देश से नामोनिशान $खत्म करने का ही मन बना लिया हो।

और ऐसे ही या इससे भी बदतर हालात 2002 में बड़े ही सुनियोजित ढंग से गुजरात में भी पैदा किए गए। गोधरा में कारसेवकों को साबरमती एक्सप्रेस मेंज़िन्दा जलाए जाने के बाद इस ज़ुल्म का भुगतान राज्य के अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को करने के लिए मजबूर होना पड़ा। वहां भी हज़ारों मकान,दुकान, व्यापारिक प्रतिष्ठान व धर्मस्थान तोड़े व जलाए गए। हज़ारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। सैकड़ों लोगों को जि़ंदा जलाया गया तथा तमाम गर्भवती महिलाओं के पेट तलवारों से चीरकर बच्चे को बाहर निकाल कर बड़ी बेरहमी से उन्हें $कत्ल कर दिया गया। यहां भी दंगाईयों के इरादे वही मालूम हो रहे थे जैसे 1984 में सिख विरोधी दंगों में नज़र आ रहे थे। गोया दंगाई शासन के संरक्षण में राज्य से अल्पसंख्यक समुदाय का खात्मा किए जाने का संकल्प ले चुके हों। अब ज़रा इन दंगों की राजनैतिक परिणिति पर भी गौर फ़रमाइए। 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों के बाद कांग्रेस पार्टी को भारी बहुमत प्राप्त हुआ तथा राजीव गांधी जिन्होंने राजनीति में अभी क़दम ही रखा था उनके सिर पर बहुमत की सरकार के प्रधानमंत्री का ताज रखा गया। बहुमत का कारण सा$फ था। एक तो इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस व राजीव गांधी के प्रति जनमानस में अपनी सहानुभूति व दूसरे सिख समुदाय के विरोध के नाम पर $गैर सिख मतों का ध्रुवीकरण होना। यानी ज़ुल्म, अत्याचार और नरसंहार का सत्ता की राजनीति से सीधा संबंध। और गुजरात में भी बिल्कुल यही नज़ारा 2002 के दंगों के बाद देखा गया। अल्पसंख्यक विरोधी मतों का ज़बरदस्त ध्रुवीकरण एक बड़ी व सोची-समझी साजि़श के तहत कराया गया। जो गुजरात राज्य महात्मा गांधी जैसे सत्य व अहिंसा तथा सर्वधर्म संभाव के प्रणेता का राज्य माना जाता है उसी राज्य के बहुसंख्यक समाज में अल्पसंख्यकों के प्रति द्वेष तथा वैमनस्य का ज़हर घोल दिया गया। कुछ इस सोचे-समझे तरीके से गोया गोधरा में कारसेवकों की दर्दनाक हत्या में पूरे गुजरात राज्य का अल्पसंख्यक शामिल हो। इसका भी राजनैतिक परिणाम वही निकला जो 1984 के बाद दिल्ली दरबार को लेकर दिखाई दिया था। यानी गुजरात में भी नरेंद्र मोदी 2002 के दंगों के बाद भारी बहुमत के साथ विजयी हुए तथा आज उनकी वही ‘कमाई’व आक्रामकता उन्हें दिल्ली दरबार के सपने देखने की योग्यता प्रदान कर रही है। लेखक व समीक्षक ऐसे ही हादसों व इन हादसों पर होने वाली राजनीति को ‘लाशों पर होती राजनीति’ कहकर संबोधित करते हैं। गोया मरता कोई है मारता कोई है और परिणाम किसी और को भुगतना पड़ता है तथा सत्ता के सिंहासन का सफर कोई और साजि़श कर्ता तय करता है। परंतु दरअसल होता यह सब कुछ सत्ता के द्वारा, सत्ता के कारण तथा सत्ता के लिए ही है। अब चाहे आप इन्हें लाशों की राजनीति के विशेषज्ञ कहें या मौत के सौदागर कहकर संबोधित करें। ज़ुल्म व नरसंहार की इस मंजि़ल तक इनके पहुंचने के बाद यदि आप इन्हें मौत के सौदागर कहकर भी संबोधित करना चाहेंगे तो सांप्रदायिक धु्रवीकरण की स्थिति यहां तक पहुंच जाती है कि ऐसे नेताओं को इस प्रकार के ‘विशेषणों’ से संबोधित करना भी उनके लिए सहानुभूति व फायदे का सौदा ही साबित होता है।

अब ज़ुल्म, अत्याचार व नरसंहार के बाद शुरु होती है मा$फी मांगने की राजनीति। कभी यह आवाज़ सुनने को मिलती है कि कांग्रेस पार्टी की ओर से सोनिया गांधी ने मा$फी मांगें तो कभी मनमोहन सिंह से माफी मांगने की उम्मीद की जाती है। और कभी नरेंद्र मोदी पर गुजरात दंगों के लिए अल्पसंख्यक समुदाय से मा$फी मांगने का दबाव बनाया जाता है। आखिर कौन होते हैं यह लोग ऐसी अमानवीय व निर्दयतापूर्ण की जाने वाली हत्याओं व नरसंहारों के लिए माफी मांगने की बाते करने वाले लोग? दरअसल यह भी अत्याचार के बाद का एक और इमोशनल अत्याचार ही है। पहले ज़ुल्म करने व कराने के लिए प्रोत्साहित करना, फिर समय बीतने के बाद माफ़ी मांगने की आवाज़ बुलंद करना यह सब लाशों पर की जाने वाली राजनीति का ही एक दूसरा पहलू है। आख़िर माफ़ी मांगने की आवाज़ उठाने वालों को यह क्यों समझ में नहीं आता कि साजि़श कर्ता कौन है,ज़ालिम कौन है और मज़लूम व अत्याचार से पीडि़त व प्रभावित कौन? और माफ़ी मांगने की बात किसी राजनैतिक लाभ-हानि के समीकरण के मद्देनज़र करने का किसी तीसरे व्यक्ति को अधिकार कैसे? क्या माफ़ी की सियासत करने वालों के द्वारा सिख विरोधी दंगों व गुजरात नरसंहार से प्रभावित परिवार के लोगों अथवा ऐसे अन्य अत्याचारों से प्रभावित लोगों से पूछ कर माफ़ी मांगने की आवाज़ उठाई जाती है? क्या माफ़ी मांग लेने भर से ज़ालिम अपने किरदार व अपनी सोच में परिवर्तन ला सकेगा? क्या माफी मांगने से पीडि़त परिवार की भरपाई हो सकेगी? या यह भी अत्याचार की ही तरह महज़ सत्ता के माफ़ी जाने का एक इमोशनल हथकंडा मात्र है?

दरअसल अत्याचार,नरसंहार, सांप्रदायिक दंगे व नफरत का ज़हर फैलाने की तथा इन सब के बाद माफी मांगने की बात करने की राजनीति महज़ एक पाखंड के सिवा और कुछ भी नहीं। दंगाई देश के किसी भी राज्य के अथवा किसी भी धर्म व समुदाय के व कितनी ही ऊंची पहुंच रखने वाले क्यों न हों, इन दंगाईयों को हर हाल में कड़ी से कड़ी सज़ा दी जानी चाहिए। भले ही वे सत्ता के शिखर पर अथवा जि़म्मेदार पदों पर क्यों न विराजमान हों। दंगे की साजि़श रचने वाला, दंगों के लिए उकसाने वाला, दंगाईयों से भी बड़ा अपराधी है। माफी देना हालांकि सभी धर्मों के संतों व फकीरों ने अच्छाई के रूप में बताया है। परंतु जहां माफ़ी की बात करने का मकसद भी राजनैतिक हो व माफी की बात भी ज़ालिम या मज़लूम के बजाए भावी राजनीति के दृष्टिगत् किसी तीसरे पक्ष या अन्य लोगों द्वारा उठाई जा रही हो तो ऐसी माफी का कोई औचित्य भी नहीं। हां यदि दंगों में संलिप्त अपराधियों व इनके जि़म्मेदार लोगों को माफ करने या न करने के विषय पर निर्णय लेने का अधिकार किसी को है तो वह है केवल भुक्तभोगी परिवार के सदस्यों को जो दंगों की पीड़ा को तथा उसके दूरगामी प्रभावों को आज तक झेल रहे हैं तथा भविष्य में भी झेलते रहेंगे। बावजूद इसके कि अंतिम निर्णय तो देश की अदालतों को ही सुनाना है।

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Tanveer Jafri (1)**Tanveer Jafri ( columnist),(About the Author) Author Tanveer Jafri, Former Member of Haryana Sahitya Academy (Shasi Parishad),is a writer & columnist based in Haryana, India.He is related with hundreds of most popular daily news papers, magazines & portals in India and abroad. Jafri, Almost writes in the field of communal harmony, world peace, anti communalism, anti terrorism, national integration, national & international politics etc. He is a devoted social activist for world peace, unity, integrity & global brotherhood. Thousands articles of the author have been published in different newspapers, websites & news-portals throughout the world. He is also a recipient of so many awards in the field of Communal Harmony & other social activities.

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*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC.

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