रवीन्द्र के दास की लम्बी कविता – शान्त पानी में फेंका गया कंकड

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शान्त पानी में फेंका गया कंकड

 [एक]

शान्त पानी में फेंका गया कंकड
तोड देता मौन बाबडी का
चौंक पडता ऊँघता सा भी
पास के मंदिर के घंटा नाद से
टूटती तंद्रा
किसी भगवान की
बेजुबान युवती
सदियों, सहस्राब्दियों से बजा रही घंटा
एकाग्र, समर्पित ……..
दूर दूर से आते हैं लोग
इस एकान्त मंदिर में
बडी मान्यता है
बाबडी का जल
बिना मौन तोडे अर्पित करते
मंदिर में स्थापित मूर्ति को
मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए
देबू के पेडे और केले
यहाँ बसे लंगूरों को भोग लगाते
नहीं जाती नज़र किसी की
घंटा बजाती युवती पर
श्वेत-वसना
एकबेनी
एकाग्रचित्त ….
कोई नहीं सुनता
उसकी साँसों की सरसराहट
न पदचाप
ईश्वर की शरण में आए दो लोग
नहीं करते बात इस अंचल में
नहीं पहचानते
इस अहाते में एक दूसरे को

[दो]

बाहर दूर दूर तक फैली है
सहस्राब्दियों से
हजारों योजन तक उस युवती की दन्त-कथा
मानते हैं लोग भी
इसे एक दारुण व्यथा
ठहरे हुए पानी की एक बाबडी
पुराना मंदिर
और वह युवती
पेडे और केले लेकर आने वाला वह देबू
कहाँ से आता
कहाँ चला जाता – कोई नहीं जानता
प्रसिद्ध कथा के अनुसार
देवकन्या है वह युवती, देबू उसका सेवक
युवती को श्राप मिला है
देबू को वरदान !
कहते हैं, कभी न कभी
आएगी भयंकर बाढ कोई
या कोई भूकंप
धरती और आकाश हो जाएंगे एक-म-एक
मुस्कुराएगी युवती
बोलेगी … रमण करेगी, तब
विलीन हो जाएगी बाबडी
एकान्त नहीं होगा मंदिर
स्मृति की तरह
बसेगा वहाँ एक घर
फैल जाएगी दुनिया आस पास
युवती करेगी शृंगार
बजाएगी वाद्य, करेगी नृत्य
और डूब जाएगी विलास में

[तीन]

चला जाऊँगा मैं वहाँ
चुपचाप
लगा आऊँगा बिरवा बरगद का
कह आऊँगा उसके कानों में
कि नज़र रखना एक एक घटना पर
यदि दिख जाए
वह श्वेत वसना
कर लेना प्यार उसे, मेरे हिस्से का
लेकिन खरीदना मत
देबू के पेडे और केले
निठल्ले
और आरामतलब लंगूरों के लिए
मत बिखेरना अपने पत्ते
ठहरी, शान्त सी उस बाबडी में
जबकि मुझे पता होगा
कि पेड स्थावर होता है फिर भी
उसे कुछ
इंसानी फ़र्ज़ निभाने को कह आऊँगा
यह मेरी खुदगर्ज़ी नहीं
हो सकता है, न हो किसी को यकीन
क्योंकि मैं बुद्ध नहीं
गौतम से पहले का मनुष्य
सुजाता के प्रेम का अभिलाषी
निष्कपट ।

[चार]

मंदिर स्थापित नहीं हुए थे जब
सभ्यताओं में
वह श्वेत-वसना युवती
बजा रही है घंटा तब से
सुनते हैं,
काल था विद्यमान तब भी
नहीं थे मंदिर जब
संभावनाओं के साथ बंधी है
घंटा ध्वनि गूँजने की
वह श्वेत-वसना
एकान्त और अकेली
फिर भी कथाओं में
देवताओं को समर्पित और एकाग्र
देबू खडा है टोकरी लिये
उसके आस पास
कथाओं में प्रतिदिन, प्रतिपल
निबद्ध ठहरी हुई …
मैं यहाँ
आज और अभी तोड दूँगा
युगान्तकारी मौन उसका
यदि सचमुच में नहीं तो
कविताओं में अवश्य ….. ।

[पाँच]

अनिवार्य है तोडा जाना  मौन का
बाबडी झनझना उठेगी
बन जलतरंग
टपकेंगे तारे
निरग्नि मशाल बन कर
देवताओं से घिरे भगवान
दर्ज़ करवाएंगे अपना नाम
जनगणना में
बनवाएंगे राशन कार्ड
बोलेंगे – मानुष ध्वनि
करेंगे श्रम
और यत्न
कि उनका भी घर बसे
बच्चे जाएँ पाठशाला
पढें
और बनें नागरिक राष्ट्र के
उनके बच्चे भी झूठ बोलें
कभी कभी
बचने के लिए शरारत की सज़ा से
क्रोध से भस्म न कर दें उन्हें
भगवान
बस एकाध थप्पड
और चन्द नसीहतें ..
फिर कोसें अपने आप को
जो अगर चेत गया होता पहले ही

[छः]

देखता रहेगा बरगद
मंदिर को बदलते घर में
धर्म स्थल को बस्ती में
देबू की टोकरी को
परचून की दुकान में
लंगूरों को आदर्शवादी प्रोफ़ेसर बनते
देखता रहेगा
धीरे धीरे बढता हुआ
बरगद का वह छोटा सा बिरवा
महसूस करता रहेगा
उस श्वेत-वसना की मिटती हुई दन्तकथा
बाबडी में डाले गए बडे पत्थरों से
होगी बहुत आवाज़
पर कोई ध्यान न देगा
सभी व्यस्त रहेंगे
अपने घर परिवारों में
सब देखता रहेगा
बरगद का बढता हुआ बिरबा ।

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——– प्रस्तुति – नित्यानन्द गायेन
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ravinder k dasपरिचय :

रवीन्द्र के दास

पीएच. डी ,संप्रति: अध्यापन

प्रकाशन: ‘जब उठ जाता हूँ सतह से'[कविता-संकलन], ‘सुनो समय जो कहता है’ [संपादन, कविता संकलन], ‘सुनो मेघ तुम’ [मेघदूत का हिंदी काव्य रूपांतरण] और  ‘शंकराचार्य का समाज दर्शन’

 

जयपुर से निकलने वाली साहित्यिक मासिक पत्रिका उत्पल  के लिए “सब्दहि सबद भया उजियारा” नाम से कविता आलोचना विषय पर कॉलम लेखन. पत्रिकाओं आदि में कतिपय प्रकाशन.

संपर्क: 77 डी, डीडीए फ्लैट्स, पॉकेट-1, सैक्टर-10, द्वारका, नई दिल्ली- 110075

मोबाईल: 08447545320    

ई-मेल : dasravindrak@gmail.com

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23 COMMENTS

  1. तारीफ़ के लियें अलफ़ाज़ नहीं हैं ! आप का शुक्र कैसे अदा करूँ समझ में नहीं आ रहा हैं ! अगली कविता का इन्तिज़ार हैं !

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