मुश्किल कुछ भी नहीं अगर ठान लीजिए!

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डॉ. जगदीश  गांधी**,,
(1) मुश्किल कुछ भी नहीं अगर, ठान लीजिए :-
हमारे भीतर अपरिमित शक्ति  भगवान ने दी है। किसी भी मनुष्य  की वर्तमान स्थिति देखकर उसके भवि”य का उपहास नहीं उड़ाना चाहिए क्योंकि काल में इतनी शक्ति है कि वह एक मामूली से कोयले को धीरे-धीरे हीरे में बदल देती है। परमात्मा हमको किसी कार्य को करने के पीछे छिपी भावना से जानता है। जिस दिन यह आत्म ज्ञान होगा कि लोक हित करने से आत्मा का विकास होता है तो लोग बुरे काम करना छोड़ देंगे। क्षणिक संतुष्टि का आधार है खाओ, पिओ, मौज करो। जबकि ‘ाा’वत संतुष्टि का आधार है- जिओ और जीने दो। हमने अपने जीवन की जो राह चुनी है उसमें एक साहसी यात्री की तरह हमें आगे बढ़ते जाना चाहिए। रात कितनी भी लम्बी हो। हमें दीया बनकर जलते जाना है। हार या जीत हमारी सोच पर निर्भर है, मान ले तो हार होगी और ठान ले तो जीत होगी। बल्व के आवि”कारक एडि’ान का कहना था कि मैं नहीं कहूँगा कि मैं 1000 बार असफल रहा, बल्कि मैं कहूँगा कि मैंने 1000 रास्ते खोजें जिसके कारण मैं असफल हुआ। (प् ूपसस दवज ेंल प् िंपसमक 1000 जपउमेए प् ूपसस ेंल जींज प् कपेबवअमतमक 1000 ूंले जींज बंद बंनेम िंपसनतमण् . ज्ीवउें ।सअं म्कपेवदद्ध
(2) इच्छाशक्ति प्रबल हो तो क्या नहीं हो सकता :-
अलाबामा (यू0एस0ए0) में छह व”ाZ के एक बच्चे गेब मार्श की बड़ी लोमह”ाZक घटना प्रका’ा में आई है। जब वह पैदा हुआ तो उसके दोनों पैर नहीं थे, केवल एक हाथ था। मार्श परिवार ने ऐसे सभी विकलांग बच्चों को गोद ले रखा है( क्योंकि उनके माता-पिता उन्हें छोड़ जाते हैं। मार्श परिवार के पास ऐसे 60 बच्चे हैं। मार्श को यह शक  था कि बाकी चीजें तो वह धीरे-धीरे सीख लेगा, पर वह ‘ाायद तैर नहीं पाएगा। मार्श ने अपने सभी साथियों को तैरते देखकर उसने भी तैरना सीख लिया। गुंटर्स विल स्वीम टीम का वह एक सदस्य है। इच्छाशक्ति प्रबल हो तो क्या नहीं हो सकता। अभी उसके नेतृत्व में 6 से 10 वर्ष  के ग्रुप में बच्चों की चैंिम्पयनि’ाप वह जीतकर आया है।
(3) एकता और एकाग्रता की शक्ति अपरिमित है :-
मेरे विचार से सबसे बड़ी समस्या वह होती है, जिसे लोग समस्या मानना बन्द कर देते हैं और जीवन का एक हिस्सा मान लेते हैं। जहाँ एकता और एकाग्रता की शक्ति है, वहाँ सफलता सहज प्राप्त होती है। केवल प्रका’ा का अभाव ही अंधकार नहीं, प्रका’ा की अति भी मनु”य की आँखों के लिए अंधकार है। इस संसार में श्रद्धा करने लायक दो वस्तुएँ हैं- एक दु:ख और दूसरा श्रम। दु:ख के बिना हृदय निर्मल नहीं होता और श्रम के बिना मनु”यत्व का विकास नहीं होता। इसलिए मेरी परमपिता परमात्मा से यह प्रार्थना है कि “हे मेरे मालिक, मेरी योग्यता तथा हैसियत से बढ़कर मुझे कुछ ना देना क्योंकि जरूरत से ज्यादा रो’ानी भी इंसान को जीवन पथ से भटका देती है।´´
(4) ई’वरीय कार्यों को पूरा करना ही तो मनु”यता है :-
महारिशी  वालिमिकी  और उनके शिष्यों  को कुरूक्षेत्र के मैदान में महाभारत के युद्ध के मैदान में एक खंडित घंटे के नीचे टिटिहरी के कुछ अंडे मिले। ि’ा”य आ’चर्यचकित थे कि इनमें से कुछ पक्षी भी निकल आए थे। ऋषि  ने उन्हें आश्रम ले चलने को कहा, क्योंकि अगले दिन फिर युद्ध था। ि’ा”यों ने पूछा- “भगवान् ! ई’वर ने महासमर में इन्हें बचाया तो क्या वह इनका पो”ाण नहीं करेगा!´´ ऋषि- प्रवर बोले- “वत्स! जहाँ भगवान का काम समाप्त होता है, वहाँ मनु”य का कार्य आरंभ होता है। ई’वर के छोड़े काम को पूरा करना ही तो मनु”यता है। इन पक्षियों को अब हम सँभालेंगे और फिर उन्मुक्त गगन में, युद्धविहीन वातावरण में छोड़ देंगे।´´ ई’वर अपना कार्य करता है। मनु”य को उसकी दिव्ययोजना में अपनी भूमिका भी समझनी और निभानी चाहिए।
(5) परमात्मा की लोकहित की इच्छा को अपनी इच्छा बनाना चाहिए :-
फ्रांसिस ने एक कोढ़ी को चिकित्सा हेतु धन दिया, वस्त्र दिए एवं स्वयं उसकी सेवा की। एक गिरजाघर की मरम्मत हेतु पिता की दुकान से कपडे़ की गाँठे और अपना घोड़ा बेचकर धन की व्यवस्था कर दी। पिता को पता चला तो उन्होंने पीटा एवं अपनी संपदा के अधिकार वंचित करने की धमकी दी। पिता की धमकी सुनकर वे बोले- “आपने मुझे बहुत बड़े बंधन से मुक्त कर दिया। जो संपत्ति लोकहित में न लग सके, उसे दूर से प्रणाम है।´´ कहकर उन्होंने पिता के दिए कपड़े भी उतार दिए और एक चोगा पहनकर निकल गए। आगे यही संत फ्रांसिस कहलाए। लोकसेवा के मार्ग में बाधा बनने वाली संपदा को त्याग ही देना चाहिए।
(6) परमात्मा की राह पर चलने के लिए खुद को मिटाना होता है :-
सारे पदों के लिए मारामारी है, पर भगवान के समीप पहुँचाने वाले पदों के लिए कोई भीड़ नहीं। वहाँ कोई प्रतिस्पद्धाZ नहीं है, क्योंकि वहाँ खुद को मिटाना होता है। परमात्मा की निकटता की अनुभूति ज्यों ही होती है, अंतरतम में मानो मिठास-सी घुल जाती है। हमारे प्रत्येक कार्य-व्यवसाय रोजाना परमात्मा की सुन्दर प्रार्थना बने।
डॉ. जगदीश  गांधी,
शिक्षाविद एवं संस्थापक-प्रबन्धक
सिटी मोन्टेसरी स्कूल,
लखनऊ

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