मुजफ्फरनगर दंगों का राहत शिविर – इंसानी जज्बों पर जमती वर्फ की सफ़ेद चादर

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रईसा{ वसीम अकरम त्यागी की ख़ास रिपोर्ट }

मुजफ्फरनगर दंगों के बाद से विस्थापित हुऐ लोग इधर उधर भटक रहे हैं या फिर दूसरे मुजफ्फरनगर से काफी दूर जाकर बसना चाहते हैं शायद उनकी ये कोशिश है उन जख्मों को भुलाने की जो उन्हें मुजफ्फरनगर में मिले थे इसीलिये तो वे कहते हैं कि हम वापस नहीं जाना चाहते। शायद उन्हें विश्वास नहीं है अपने ग्राम वासियों पर, सिस्टम पर, और सरकार, ऐसे ही तकरीबन 58 परिवार गाजियाबाद जिले के मोदीनगर के ग्राम तोड़ा में आकर रहने लगे हैं, यह गांव 1947 में उजड़ गया था, वहां पर एक खंडर बनी हुई मस्जिद है जिसमें इनके आने से अजान की आवाजें आने लगीं है। मस्जिद के करीब ही खाली पड़ी जमीन में इन लोगों ने अपने तंबू लगा लिये हैं। जब अजीजुल हिंद संवाददाता ने उनसे इतनी दूर आकर बसने का कारण पूछा तो उन्होंने उनमें से एक महिला रईसा ने बताया कि हम अब अपनों के बीच हैं, हमें क्या पता था कि जिनके खेतों में हम मजूरी करते थे, जिनको रोज राम राम कहते थे वे हमारे नहीं हैं, बल्कि वे तो हमें ऐसे नामों से पुकार रहे थे जिसका नाम जुबान पर लाने से ही जुबान गंदी हो जाती है। कैम्प में रहने वाले इस्लामुद्दीन कहते हैं कि नोट के बदले वोट सुना था, देखा भी था मगर वोट के बदले मौत पहली बार देखा है, पहली बार सुना है, इंसानों का हैवान बनना फिल्मों में देखा था वह तो रियल लाईफ होती है मगर इंसानों को हैवान बनते हुऐ पहली बार देखा था। यह कहना है मोदीनगर के ग्राम तोड़ा में कैम्प में रहने वाले इस्लामुद्दीन का इस्लामुद्दीन मुजफ्फरनगर के फुगाना के रहने वाले हैं और इन दिनों मोदी नगर से कुछ ही किलो मीटर की दूरी पर बसे ग्राम तोड़ा में राहत शिविर में रह रहे हैं। वे कहते हैं कि बहुत कम लोग जानते हैं कि दंगां पीड़ित यहां आकर रहने लगे हैं, ये तो अहसान है इन भाईयों का जिन्होंने हमें यहां पनाह दी और हमारे दर्द को अपना दर्द समझा, हमारे लिये तंबू लगवाऐ, लेकिन इनमें जिंदगी कब तक गुजारेंगे, ? कब तक कौम से मिलने वाली इमदाद के भरौसे अपने घर के चूल्हे को गरम रखेंगे ? क्या केवल रोटी खा लेना और कपड़ा पहन लेना ही सब कुछ होता है ? बच्चों को स्कूल भी भेजना है सात बच्चें हैं मेरे जो वहां पर स्कूल जाया करते थे मगर इन दिनों सब बेकार हैं, मेरी टायर पंचर की दुकान थी, अब वो भी नहीं रही, कवाल ( जहां से दंगे की शुरुआत हुई थी ) के बारे में पूछने पर कहते हैं कि बस नाम सुना है उस गांव का हम तो आज तक जाकर भी नहीं झांके। इतना कहकर उनका गला रुंध जाता है इससे पहले कि इन पंक्तियों को लिखने वाला उनसे अगला सवाल करे वे अपने ही आप कहना शुरु करते हैं कि अब रोजाना सर्दी  बढ़ रही है, पिछले दो तीन दिनों से तो रात को हवा का बहाव भी तेज हो जाता है, जो हड्डियों को भी कंपकंपाने पर चौधरी ताहिर in white dressमजबूर कर देता है, शायद हमें इस सर्दी का एहसास इसलिये कुछ ज्यादा हो रहा है कि हमने कभी खुले आसमान के नीचे सर्दियों की रात नहीं काटीं। लेकिन क्या कौम से मिलने वाले कंबल, लिहाफ, या दूसरे अन्य कपड़ों से गुजारा हो जायेगा ? क्या इनसे मेरा घर वापस आ जायेगा जिसको अपना घर कहते हुऐ भी मुझे डर लगता है ? ये सवाल वह देश के लोकतंत्र से पूछ रहे हैं ?

जब उनसे बढ़ती हुई सर्दी और तंबुओं की कमजोर चादर के बारे में मालूम किया गया तो उन्होंने कहा कि हमने कभी एक भी दिन इस तरह से नहीं गुजारा था मगर मगर क्या करें जब पड़ोसी ही जान का दुश्मन बन जायें तो फिर हमारे पास रास्ता ही क्या बचता है ? अमीर नहीं हैं हम जो शहर में जाकर मकान खरीद लेते इसलिये अब तो इन्हीं तंबुओं में रहना है। उनके लहजे में दर्द है सांसों में घुटन है, और आंखों में उम्मीद है शायद खोया हुआ वापस मिलने की। तौड़ा में रहने वाले दंगा पीड़ितों के साथ त्रासदी ये है कि इनके घरों में तोड़ फोड़ की गई, घरों को लूटा गया मगर इन्होंने कहीं पर कोई प्राथमिकी तक दर्ज नहीं कराई है जिससे इन्हें सरकार की ओर से मिलने वाले मुआवजे की भी उम्मीद नहीं की जा सकती। तौड़ा कैम्प की देख भाल कर रहे समाजिक कार्यकर्ता चौधरी ताहिर हुसैन कहते हैं कि ये लोग खौफजदा होकर यहां आये हैं, इनमें से अधिकतर तो ऐसे हैं जिनका दंगें में किसी तरह का कोई जानी या माली नुकसान नहीं हुआ, लेकिन ये गरीब लोग हैं, इसलिये इनके दिलों में असुरक्षा का भय घर कर गया जिसने इन्हें यहां भेज दिया। वे कहते हैं कि गांव के लोग इनकी मदद में लगे हैं, उन्होंने इनके खान पान की व्यवस्था कर रखी है, लेकिन इनके साथ बच्चे हैं जो सर्दी से बीमार हो रहे हैं जिसकी वजह इन तंबुओं की कमजोर दीवारें हैं, जो सर्दी को रोक पाने में असक्षम हैं।

कैम्प में रह रही 40 वर्षीय रईसा कहती है कि जब रात को सर्दी पड़ती है तो इन तंबुओं की छतों से पानी टपकने लगता है जिससे बचने के लिये उन्होंने इस पर पौलोथिन की चादर डाल दी है मगर उसका वजूद भी इतना नहीं है कि इस ठंड को रोक पाये, हमारे छोटे – छोटे बच्चें हैं, जो सर्दी से बीमार चल रहे हैं वो तो unnamed (2)अहसान मानो इस गांव ( पड़ोसी गांव तौड़ी की ओर इशारा करते हुऐ ) के लोगों का जिन्होंने हमारे लिये दवाईयां फ्री में भिजवाईं है, वर्ना हमारे पास तो इतने भी पैसे नहीं थे कि दवाई खरीद सके। ये पूछने पर कि उनके शौहर क्या करते हैं ? वे कहती हैं कि वहां पर भी मजदूरी करते थे और यहां भी मजदूरी करते हैं, वह ईंट भट्ठे पर काम करते हैं। हम तो वहां भी इसी तरह गरीबी में जिंदगी गुजार रहे थे मगर एक फायदा था कि वहां हमारा अपना घर था जो अब नहीं रहा। आखिर क्यों छीन लिया गया मुझसे मेरा घर ? क्यों बना दिया हमको मुहाजिर ? अब सोचते हैं कि अगर ये हमारे कौम के लोग न होते तो हमारा क्या होता। ये सवाल किसी एक के नहीं हैं बल्कि कैम्पों में रह रहे लोगों की जुबान लगभग इसी तरह के सवाल हैं। अधिकतर लोग तो ऐसे हैं जिन्हें ये भी नहीं मालूम कि आखिर लड़ाई क्या थी ?

सुनो हम बाबा टिकैत की सिसोली के हैं

तौड़ा गांव में जो राहत शिविर हैं उसमें तीन परिवार सिसोली के हैं, सिसोली किसान नेता स्वर्गीय महेंद्र सिंह टिकैत का गांव हैं, किसानों के लिये बनाई गई उनकी भारतीय किसान यूनियन की विरासत उनके दोनों बेटे नरेश टिकैत और राकेश टिकैत संभाल रहे हैं। एक ओर जहां महेंद्र सिंह टिकैत जाट मुस्लिम एकता को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मजबूत बनाने के लिये एडी चोटी का जोर लगाया था, वहीं उनके वारिसों ने इस दोस्ती की ऐसा मटठा डाला है जिसकी भरपाई करना मुश्किल है। मुजफ्फरनगर दंगे के मामले में राकेश टिकैत और नरेश टिकैत दोनों ही आरोपी हैं इन दोनों पर भी पंचायत में भड़काऊ भाषण देने का मुकदमा दर्ज है। बहरहा सिसोली गांव की रहीसा कहती हैं कि हमें सारी शिकायतें दोनों चौधरियों से जिन्होंने अपनी रिआया के साथ होने वाले अत्याचार को अपनी आंखों से देख। ये पूछने पर क्या वह दोबारा वापस जाना चाहती हैं इस सवाल के जवाब में वे कहती हैं कि हम क्या करेंगे वहां जाकर ? हमारा कौन है वहां ? हमारे खिलाफ तो ऐलान किया गया था कि इनको अपने खेतों में मत घुसने दो इनका बहिष्कार करो इनकी दुकानों से सामान मत खरीदो, इनको अपने यहां काम पर भी मत रखो। अब बताओ हम वहां वापस जाकर क्या करें ? जब इस तरह के ऐलान सरे आम होने लगे तो कौन है वहां जो हमारी मददे के लिये आगे आता ? रहीसा फिर कहती हैं कि जब हमारा परिवार वहां से वापस आ रह था तो उन्होंने हमें रास्ते में रोक लिया और कहने लगे कि तुम गांव छोड़कर मत जाओ, उन्होंने हमें अपने मोबाईल नंबर भी दिये जब हमने उन नंबरों पर कॉल किया तो वे नंबर बंद मिले अब ऐसे में कैसे विश्वास किया जा सकता है कि ?

रहीसा के लहजे में शिकायत है, दर्द है, काश कि इस दर्द को दंगाई भी समझ पाते महेंद्र सिंह टिकैत के वारिस भी समझ पाते कि दर्द क्या होता है ? तो वे उस धरती पुत्र को सच्ची श्रद्धांजली दे पाते जिसने तमाम उम्र जाट मुस्लिम गठजोड़ को टूटने नहीं दिया तब भी नहीं जब मेरठ 1987 में भयानक दंगे देख चुका था। लेकिन अपनी राजनीति चमकाने के लालच में पल भर में इसे दुश्मनी में बदल दिया। राष्ट्रीय unnamedस्तर पर जो गांव महेंद्र सिंह टिकैत के नाम से जाना जाता था अब उसी गांव  की रिआया कैम्पों में सिर्फ इस वजह से पड़ी है कि उनका धर्म, उनकी जात, महेंद्र सिंह टिकैत के वंशजों से नहीं मिलती। कैम्प में रह रहे लोगों में से इस्लामुद्दी का कहना है कि हमें क्या पता कि हम यहां क्यों है ? और किस अपराध की सजा काट रहे हैं ? वहां पर थे तो बच्चे स्कूल भी जाते थे और थोड़ा बहुत घर का काम भी कर दिया करते थे मगर यहां तो न घर है और न स्कूल ऐसे में हम इन्हें सर्दी से बचायें या स्कूल भेजें।

जाहिर है जहां पर दो वक्त की रोजी जुटा पाना ही बहुत मुश्किल हो वहां बच्चों के भविष्य की फिक्र कौन करे ? जहां सर्दी में ठिठुर ठिठुर कर रात गुजारनी पड़ रही हो वहां पर स्कूल कॉलेज की बातें महज दिखावा ही रह जाती हैं वैसे भी यह कैम्प जहां पर लगा है वह गांव से तकरीबन तीन किलो मीटर है, जहां पर चारों ओर जंगल है। करीब दो महीने से भी अधिक समय से ये लोग यहां पर रह रहे हैं और प्रशासन की इनके यहां रहने की जानकारी तक नहीं है। इनमें अधिकतर वे परिवार हैं जिनका दंगे में जानी नुकसान तो नहीं हुआ, लेकिन माली नुकसान काफी हुआ है। खेड़ा मस्तान के रहने वाले बिलाल कहते हैं कि हमारे गांव में हिंसा तो नहीं हुई थी लेकिन हिंसा होने की आशंका को महसूस किया जा रहा था इसीलिये हम अपने गांव से जौला चले गये, यहां आते वक्त हम अपने गांव में गये थे वहां से सामान लेने के लिये लेकिन वहां पर हमें कुछ हाथ नहीं लगा हमारे घरों में जो सामान था वह चोरी हो चुका था बस दो चार जोड़ी कपड़े थे जिन्हें हम अपने साथ ले आये। ये पूछने पर कि क्या उन्होंने चोरी की रिपोर्ट दर्ज कराई तो वे कहते हैं कि नहीं हमने कहीं पर कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई वहां से हम यहां आ गये और यहां पर मेहनत मजदूरी कर रहे हैं ये ग्रामीण क्षेत्र शहर यहां से फासले पर इसलिये यहां रोजगार के वैसे साधन नहीं है जैसे वहां पर थे। सवाल उठता है कि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा दिया जा रहा मुआवजा इन लोगों को कैसे मिल पायेगा जबकि इन्होंने कहीं पर कोई शिकायत दर्ज नहीं कराई है ? दूसरा ये लोग खौफ की वजह से यहां कैम्पों में आये हैं जो अब वापस नहीं जाना चाहते क्या सरकार के पास जवाब है कि वह इनको विश्वास दिलाकर इनको दोबारा इनके गांवों में बसा सके ?

सहेलियों की बहुत याद आती है

तौड़ा कैम्प में स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की भी अच्छी खासी संख्या मौजूद हैं, इनमें से अधिकतर बच्चों का अब स्कूल से रिश्ता ही टूट गया है कुछ बच्चे ऐसे हैं जो करीबी मस्जिद में इमाम साहब से धार्मिक शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। मगर कुछ ऐसे हैं जो यहां आने के बाद दिन भर खेलते रहते हैं, या फिर इधर उधर घूम कर अपना वक्त बर्बाद कर रहे हैं। इन्हीं में एक 14 वर्षीय आयशा भी है जो अपने माता पिता के साथ इन तंबुओ में रह रही है, वह अपने गांव सिसोली में कक्षा छ में पढ़ती थी क्षेत्र में फैली सांप्रदायिक हिंसा ने उससे स्कूल छीन लिया और अब वह घरेलू काम काज में अपनी मां का हाथ बंटाती है। जब इस संवाददाता ने आयशा से उसकी कॉलेज की सहेलियों के बारे में पूछा तो उसने कहा मेरी तीन सहेलियां थी जिनमें काजल, मेरी सबसे अच्छी सहेली थी। बाकी दो कहां हैं यह तो मैं नहीं जानती लेकिन काजल की बहुत याद आती है। वह बताती है कि यहां आने से घंटा भर पहले ही वह उसके घर पर थी उसने कहा था कि वह यहां से न जाये यहां कुछ नहीं होगा लेकिन घर वाले उसे यहां ले आये। ये पूछने पर कि क्या उसके घर वाले उसे जबरदस्ती यहां लेकर आये ? वह कहती है कि नहीं जबरदस्ती तो नहीं लाये वहां पर सुना था कि जान को खतरा है जाट उनके घेर कर मार डालेंगे इसलिये वह जान बचाकर अपने मां बाप के साथ यहां आई है।

वह कहती है कि यहां पर उसे अपनी सहेलियों की बहुत याद आती है आयशा कहती वह स्कूल अपनी सहेलियों के साथ जाती थी अब वह स्कूल नहीं जाती उसे अपनी सहेलियों के साथ गुजारा गया वक्त बहुत चौधरी ताहिर in white dressयाद आता है वह कहती है कि पता नहीं कभी हमारी मुलाकात उनसे हो भी पायेगी या नहीं ? वापस गांव जाने के सवाल पर वह कहती है कि वह वापस नहीं जाना चाहती। आखिर में वह एक सवाल करती है देश के लोकतंत्र कि उसके परिवार की क्या खता वह किस जुर्म की सजा यहां काट रहे हैं ? बस हमें इस सवाल का जवाब दे दो ? क्यों छीन लिया गया स्कूल ? वह तो खूब पढ़कर आगे बढ़ना चाहती थी फिर क्यों कर दिया उनको बेघर क्या इन सवालों के जवाब हैं किसी के पास ? आयशा अपने छोटे भाई की तरफ इशारा करते हुऐ कहती है कि यह चौथी क्लास में पढ़ता था बीस तक पहाड़े याद थे, और गणित के साथ अंग्रेजी भी ठीक ठाक जानता था। वह मुझसे कहता था कि बड़ा होकर वह पुलिस बनेगा लेकिन यहां आने के बाद वह खामोश रहता है जब हम यहां आ रहे थे तो हम अपनी किताबें भी नहीं लेकर आये। अब हमारे पास किताबें नहीं हैं मां बाप पढ़ना नहीं जानते हम कहां करें अपने सपनों को पूरा ? किस स्कूल में जायें ? यहां तो आस पास कोई स्कूल भी नहीं वहां तो घर के पास ही दो स्कूल थे मगर यहां तो दूर दूर तक जंगल ही नजर आता है। क्या ऐसे में हम अपने सपनों को पूरा कर सकते हैं ? क्या हम दोबारा स्कूल जा सकेंगे ?

ये वे सवाल हैं जिन्हें मासूमों की लरजती हुई जुबां देश के सिस्टम से कर रही हैं उन नेताओं से कर रही है जो उनको बेघर करने के लिये जिम्मेदार हैं और उन दंगाईयों से कर रहीं हैं जिनके खौफ की वजह से ये मासूम यहां कड़ाके की सर्दी में रातें गुजार रहे हैं और बीमार होकर दम तोड़ रहे हैं। क्या मिल पायेगा इनको न्याय ? क्यो लौट सकेंगे ये अपने उजड़े हुऐ घरों को ? सवाल लोकतंत्र से है सवाल धर्मनिर्पेक्षता का ड्रामा करने वाली सियासी पार्टियों और गरीबों बेसहारा के कथित रहनुमाओं से है। फिलहाल तो न्याय मिल जाने की कोई उम्मीद नजर नहीं आती क्योंकि रोजाना मजदूरी करके अपने परिवार को चलाने वाले अपना और अपने बच्चों का पेट भरें या कोर्ट कचहरी के चक्कर काटें ?

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wasim-akram-pas**वसीम अकरम त्यागी

युवा पत्रकार 9927972718, 9716428646
 journalistwasimakram@gmail.com

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