मालामाल बनें रहने के लिए कौम की कुर्बानी *

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{ इमरान नियाज़ी ** }
पूरी दुनिया में जिस पैमाने पर आतंकी देश अमरीका और उसके चमचे देश इस्लाम को मिटाने की कोशिशों में जुटे हैं  उससे भी बड़े पैमाने पर मसलक, फिरके, दरगाहों के नाम पर मुसलमानों को बांटकर अपनी अपनी दुकानें चमकाकर मालामाल बनने में लगे हैं। पहले फिरकों में मुसलमानों को बांटकर पूरी तरह से कमजोर और लाचार बना दिया गया।

दुनिया की दूसरी बड़ी आबादी होने के बावजूद भी मुसलमान आसानी से कुचला जा रहा है कहीं आतंकवादी कहकर मार गिराया जाता है तों कहीं आतंकी देश मुस्लिम देशों के आतंकियों से सम्बन्ध होने के बहाने मुस्लिम देशों पर हमले करके लूटपाट करने से नहीं झिझकते और दुनिया की दूसरी बड़ी आबादी मुंह ताकती रह जाती है। अफगानिस्तान, इराक, लीबिया, पाकिस्तान इसका जीता जागता सबूत है। मुस्लिम इबादतगाहों पर दहशतगर्द हमले करके गिरा देते है मुसलमान मुंह ताकते रह जाते है शायद किसी ने सही कहा था कि “एक शब्बीर ने लाखों से बचाया काबा एक मस्जिद भी करोड़ों से बचाई न गयी”।

बाबरी मस्जिद पर दहशतगर्दो ने हमला किया मुसलमान फिर्के वाराना अदावतें ही लिए बैठा रहा। बाद में बददुआओं के लिए मजमें लगाने के नाम पर लाखों कमाये जाने लगे। गुजरात में सरकारी व गैर सरकारी आतंकी बेगुनाह मुसलमानों का कत्लेआम करते रहे और हमारे मुल्ला सुन्नी वहाबी देवबन्दी के नाम पर मुसलमानों को बांटे रहे। बरेली के ही थाना किला क्षेत्र के मोहल्ला कटघर के कुछ युवकों ने गुजरात आतंकवाद में कत्ल किये गुये बेकसूर मुसलमानों की इसाले सवाब के लिए कुरान ख्वानी का प्रोग्राम बनाया तो भी उन्हें रोकने की कोशिशें की गयी उनसे कहा गया कि “गुजरात में कत्लेआम में बरने वाले वहाबी हैं इसलिए उनके लिए कुछ नहीं करना चाहिये।” हालांकि इन मुस्लिम
नौजवानों ने इस तरह की अदावती बात पर ध्यान नहीं दिया और बादस्तूर गुजरात आतंकियों के हाथों कत्लेआम के शिकार मुसलमानों के लिए कुरान ख्वानी करते रहे, इस मौके पर 27 कुरान खत्म किये गये। रोकने वालों की इस गैर जिम्मेदाराना अदावती कोशिशों को देखकर सवाल यह पैदा होता है कि ‘जब गुजरात में आतंकी बेगुनाह मुसलमानों का कत्लेआम कर रहे थे तो क्या आतंकी मुसलमानों से उनके फिरके के बारे में पूंछ रहे थे क्या सुन्नी वहाबी के बारे में जानकर मारा जा रहा था, क्या गुजरात आतंकियों ने किसी सुन्नी को बख्श दिया, क्या बाबरी मस्जिद शहीद करने वाले दहशतगर्दों ने पूछा था कि मस्जिद बहाबियों की है या सुन्नियों की, क्या अफ्गानिस्तान ईराक लीबिया या
पाकिस्तान पर हमले करने वाली अमरीकी आतंकवादियों ने बमों को बता दिया था कि वहाबी पर गिरना है या सुन्नी पर, क्या अमरीकी आतंकियों ने अफ्गानिस्तान, इराक लीबिया और कुछ हद तक पाकिस्तान पर हमले के दौरान लोगों को लूटते वक्त किसी से पूछा कि तू कौन है वहाबी है या देबन्दी?’ लम्बे अर्से से मुल्ला अपनी रोटियां सेंकने और मालामाल होने के लिए मुसलमानों को सुन्नी, वहाबी, देवबन्दी के नाम पर बांटते रहे, इसका खमियाजा पूरी कौम भुगत रही है किसी एक फिर्के या ग्रुप का नुकसान नहीं हुआ बल्कि दुनिया भर के तमाम मुसलमान नतीजे भुगतते रहे !

ओर इनको बांटने वाले मालामाल होते रहे, सरकारी कुर्सियां हथियाते रहे। लेकिन कौम की इतनी बर्बादी से मिले माल से भी मुस्लिम वोटों के इन सौदागरों के पेट नहीं भरे तो अब कुछ साल साल से दरगाहों ओर सिलसिलों के नाम पर कौम के टुकड़े करने शुरू कर दिये। कुछेक ने दूसरे तमाम सिलसिलों उनके बुजुर्गों और उन सिलसिलों की दरगाहों को मुसलमान मानना ही बन्द कर दिया, एक गिरोह ऐसा भी पैदा हो गया है जो खुद अपने ग्रुप के अलावा सभी को गलत ठहराने के काम में लगा हुआ है इसके लिए हजारों की तादाद में दलाल भी छोड़े जा रहे हैं जो गली मुहल्लों में जाकर रहते हैं लोगों की रोटियों पर जीते हैं और कमअक्ल लोगों को बड़गलाते हैं।

अब सियासी और सामाजिक मोड़ पर भी अदावतें उजागर करना आम बात हो गयी है। एक नेता अगर सियासी कदम उठाते हुए सभी दरगाहों पर हाजिरी देने चला जाता है तो बाकी की दरगाहों से जुड़े लोगों को चुभ जाती है मुखालफत शुरू कर दी जाती है या उससे दूर हो लिया जाता है। खुद जिस पार्टी या नेता के तलवे चाट रहे हों और वह दूसरी दरगाह से जुड़े लोगों को भी दाना डाल दे तो बस हो गये आग बबूला, करने लगते हैं बगावती बयानबाजी। खुद भी माल कमाने या कुर्सी पाने के लिए कौम का सौदा करते हैं न मिले तो बगावत शुरू।

दरअसल इन सब हालात के जिम्मेदार खुद मुसलमान हैं जो अपने विवेक से कोई कदम उठा नहीं सकते क्योंकि मेरी कौम भैंसा खाती है इसलिए खोपड़ी भी भैंसे वाली ही हो गयी है बस जो “मियां” ने कह दिया वही पत्थर की लकीर है, और मियांको ऐसे ही भैंसा खोपडि़यों की ही जरूरत रहती है।

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IMRAN_NIAZI(लेखक-इमरान नियाज़ी वरिष्ठ पत्रकार एवम् “अन्याय विवेचक” के संपादक हैं)

*लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं और आई.एन.वी.सी का इससे सहमत होना आवश्यक नहीं।

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