माया.मुलायम का यह कैसा मंसूबा

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डॉ0 दिलीप अग्निहोत्री**,,

भारत के संसदीय इतिहास में फिर एक नया अध्याय जुड़ा। रिटेल मंेे एफडीआई के विरोधियों ने संसद में बहुमत के बाद भी पराजय स्वीकार की। अल्पमत वालमार्ट के पक्ष में था। उसकी मुराद पूरी हुई यह भाषण में देशहित और निर्णय के समय स्वहित के विरेाधाभाश से भरा उदाहरण था। लोकसभा के अठारह मंे से 14 दलों वाले 282 सदस्यों ने रिटेल में एफडीआई का विरोध किया था। जबकि समर्थन करने वाले दलों की संख्या 224 थी। विडम्बना देखिए, सफलता इन्हें ही मिली। यहां सपा और बसपा एक ही रास्ते पर थे। सदन में एफडीआई के खिलाफ जोरदार विरोध दर्ज कराया। फिर अल्पमत के हाथों में बाजी सौंप कर ये बाहर निकल गए। संसदीय कार्यवाही में बहिर्गमन का अपना महत्व है। यह असहमति और विरोध व्यक्त करने का साधन है। कई बार बहुमत के दबाव में अल्पमत की बात नहीं सुनी जाती, कई बार कोई दल व सदस्य सत्ता पक्ष से किसी विषय पर असहमत होता है, लेकिन वह सरकार गिराने की हद तक नहीं जाना चाहता। इसके अलावा कई बा रवह सरकार गिराने में किसी दल के सहयोगी के रूप में नहीं दिखना चाहते। इन स्थितियों में सदन से बहिर्गमन का सहारा लिया जाता है। इसे अनुचित नहीं कहा जा सकता है। यह उन दलों की घोषित रणनीति होती है। सिद्धान्त होता है।
बजट प्रस्ताव, अविश्वास प्रस्ताव, निन्दा प्रस्ताव पर लोकसभा में पराजय के बाद सरकार को त्यागपत्र देना होता है। लेकिन नियम 184 के तहत होने वाले मतदान में सरकार के सामने ऐसी बाध्यता नहीं होती। उसके जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यहां तक कि नैतिक रूप में भी उससे त्यागपत्र देने को नहीं कहा जा सकता। गलती सुधारना या बहुमत की इच्छा का सम्मान करते हुये किसी प्रस्ताप पर रोल बैंक करना तो अच्छी बात नहीं है। इस प्रकार नियम 184 का संसदीय व्यवस्था के संचालन में विशेष महत्व है। सरकार नहीं गिरती। मध्यावधि चुनाव की स्थिति नहीं आती। फिर भी सत्ता पक्ष को संदेश दिया जाता है। बेशक वह बहुमत में है। उन्हें सत्ता में रहने का अधिकार है। लेकिन किसी खास विषय पर सदन उनसे असहमत है। प्रतिनिधित्व आधारित बहुमत का यही तकाजा है। ऐसा नहीं कि सपा और बसपा के नेता इस तथ्य से अनजान है। वह बखूबी जानते थे कि लोकसभा और राज्य सभा में उनके पैंतरे उनके भाषण को ही बेमानी करने वाले थे। जिसका वह विरोध कर रहे, वह सफल होने जा रहा है। भाषण में तर्क थे। लेकिन पैंतरों का कोई जवाब नहीं था। आश्चर्य है कि उप्र0 में भाजपा के साथ तीन बार सरकार बनाने वाली मायावती साम्प्रदायिक शक्तियों के साथ नहीं दिखना चाहती। अयोध्या आंदोलन के नायक कल्याण सिंह की पार्टी के साथ गठबंधन सराकर बनाने वाले मुलायम को भी यही डर था।
अपने समर्थकों तथा अन्य लोगों को मूर्ख समझने वाले नेता ही ऐसे तर्क दे सकते है। एफडीआई पर होने वाली बहस में साम्प्रदायिकता तो कोई मुद्दा नहीं था। कितना बेमानी तर्क हैं कि-हम रिटेल में एफडीआई का विरोध करते है, जबकि अपने कदमों के द्वारा एफडीआई की निर्बाध मंजरी का रास्ता बना रहे थे।
कांग्रेस उसके राजद जैसे समर्थक राजग और बामपंथियों से क्या शिकवा। इन्हांेने जो कहा, वह किया। कांग्रेस वालमार्ट की दीवानी थी। संसद में उसके सदस्यों ने इसकी तारीफ में पुल बांधें। ये बात अलग है कि इस धुन में वह अपनी विफलता भी स्वीकार करते जा रहे थे। हजारांे करोड़ का खाद्यान्न सड़ जाता है, भंडारण की व्यवस्था नहीं है, ढांचागत सुविधा नहीं है। वालमार्ट जी सबकी व्यवस्था करेंगें। वहभंडार गृह बनवायेंगे, कोल्ड स्टोरज बनवायंेगे, हम नहीं बनवा सके। वह रोजगार देंगें। हम नहीं दे सके। वह उचित दामों पर सामान बेंचेगे। हम मंहगाई नहीं रोक सके। वह आधुनिक तकनीकी देंगे। हम नहीं दे सके। वह किसानों का हित करेंगे। हम उनका हित नहीं कर सके। लेकिन ये सभी दावे वालमार्ट आदि कंपनियों के अन्तराष्ट्रीय रिकार्ड से मेल नहीं खाते। फिर भी सरकार का खुला खेल था। उसने रिटेल पर एफडीआई में पुरजोर तर्क पूरा प्रबन्धन किया। सपा-बसपा के कदम अकारण नहीं थे। राजद नेता लालू यादव का रूख पूरी तरह साफ था। कोई संशय नहीं। एफडीआई के पक्ष में वह खुलकर बोले। मतदान में उसका समर्थन किया। अपने मतदाताओं के साथ कोई धोखा नहीं किया। मुलायम-माया को इनसे प्रेरणा लेनी चाहिए थी। जब एफडीआई को मंजूरी दिलाने में सहयोगी बनना था, तब इतने आडम्बर की जरूरत ही क्या थी। अब मुलायम कह रहे है कि एफडीआई पर सरकार ने विदेशी दबाव में फैसला लिया। बात ठीक हो सकती है। लेकिन मुलायम-माया विरोध में मतदान करके सरकार की योजना विफल कर सकते थे। उन्होंने ऐसा नहीं किया। मुलायम पर किसका दबाव था। भाजपा और वामपंथियों ने भी जो कहा वह किया। उन्होंने एफडीआई का सदन जोरदार विरोध किया और विरोध में ही मतदान किया। इस बात का कोई महत्व नहीं कि 2002 में राजग ने एफडीआई के पक्ष में चर्चा की थी, नोट बनाया था। महत्वपूर्ण यह है कि उस पर क्रियान्वयन का निर्णय लिया गया। दूसरी बात यह है कि उस समय तक वालमार्ट के दुष्परिणाम इतने ख्ुालकर सामने नहीं आये थे। ऐसे में कोई नोट बना तो क्या गजब हो गया। इस समय तो जनाबूझकर मुसीबत को गले लगाने का निर्णय लिया जा रहा है। शिकवा सपा और बसपा से है। इन्होंने जो कहा, वह नहीं किया। अंबेडकर और लोहिया का नाम लेने वाले दल संसद में इतना निलज्ज निर्णय कैसे ले सकते है। यह आश्चर्य का विषय है। दोनों महापुरूषों उच्च संसदीय परम्पराओं के ज्ञाता और हितायती थे। उनके अनुयापियों ने मर्यादा का पालन नहीं किया। सदन में उन्होंने एफडीआई के खिलाफ जोरदार भाषण दिये। कहा कि छोटे किसानों, छोटे व्यापारियों, फेरी वालों, फुटपाथ वालों, सभी का रिटेल में विदेश से अहित होगा, वह बर्बाद हो जायेगें। कल्पना कीजिए। जब वह इनता जोरदार भाषण दे रहे थे। तक उनके मन में क्या चल रहा होगा। यही ना, कि बहस समाप्त होने के बाद वह सरकार को राहत देने वाला कदम बढ़ायेगे। और एफडीआई को मंजूरी मिल जायेगी। सरकार को जीत का सेहरा दिया। लेकिन अपनी विश्वसनीयता पर पर प्रश्न चिंन्ह लगा लिया।

सिर्फ एक कदम उठा था
गलत राह शौक में
मंजिल तमाम उम्र
हमें ढूँठती रही।

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*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC

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