भूमंडल का बढ़ता तापमान और हम *

0
29

Glbl warm.{ निर्मल रानी ** } पूरे विश्व में जि़म्मेदार लोग विशेषकर वैज्ञानिक वर्ग इस बात को लेकर गत् एक दशक से बेहद चिंतित दिखाई दे रहे हैं कि पृथ्वी का तापमान अर्थात् ग्लोबल वॉर्मिंग में दिनोंदिन इज़ा$फा होता जा रहा है। वैज्ञानिकों की चेतावनी तथा उनकी भविष्यवाणी के अनुसार इस भूमंडल के बढ़ते तापमान के दुष्परिणाम भी तेज़ी से सामने आते दिखाई दे रहे हैं। ग्लेशियर पिघल रहे हैं। समुद्र के जलस्तर में बढ़ोत्तरी होती देखी जा रही है। समुद्र में कम ऊंचाई वाले कई टापू डूब चुके हैं तो कई डूबने वाले हैं। विश्वस्तर पर मौसम के मिज़ाज में भारी परिवर्तन होते देखा जा रहा है। कहीं अप्रत्याशित रूप से बारिश होने के समाचार सुनाई देते हैं तो कहीं रिकॉर्ड स्तर पर गर्मी तथा वर्षा होते देखी जा रही है। वैज्ञानिकों का मत है कि मौसम में इस प्रकार के अभूतपूर्व बदलाव का कारण केवल ग्लोबल वॉर्मिंग अथवा भूमंडल का बढ़ता तापमान ही है।
वैश्विक स्तर पर इससे निपटने के तमाम उपाय भी किए जा रहे हैं। कम से कम प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों का आविष्कार किया जा रहा है। कम से कम विद्युत खपत करने वाली घरेलू उपयोग की विद्युत संबंधी सामग्रियां तैयार की जा रही हैं। बल्ब की जगह सीएफ़एल का चलन इनमें से एक प्रमुख है। भारत सरकार ने एलपीजी गैस में सब्सिडी दिए जाने का फंडा भी इसीलिए शुरु किया था ताकि पेड़ों की कटाई कम से कम हो तथा आम लोग रसोई गैस का इस्तेमाल करने के आदी हों। और इस प्रकार सुबह-शाम पूरे देश में उठने वाले काले धुंए को रोका जा सके। इसमें कोई शक नहीं कि सरकार के इन प्रयासों से का$फी हद तक हमारे देश में होने वाले प्रदूषण की मात्रा में कमी आई है। परंतु अभी भी तमाम क्षेत्र ऐसे हैं जहां कहीं तो जानबूझ कर तो कहीं अज्ञानतावश प्रदूषण फैलाया जा रहा है। इस प्रदूषण से जहां वातावरण के तापमान में बढ़ोत्तरी होती है वहीं इनसे उठने वाले धुंए से ज़हरीली गैसों और कार्बनडाईक्साईड का उत्सर्जन भी होता है जोकि केवल वातावरण के लिए ही नु$कसानदेह नहीं होता बल्कि जनसाधारण के स्वास्थय पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ता है। इनमें कई क्षेत्र तो ऐसे हैं जिसमें कि सरकार की ओर से प्रतिबंध भी लगा दिया गया है। परंतु उसके बावजूद अपनी सुविधा अनुसार तमाम लोग प्रदूषण फैलाने की अपनी आदतों से बाज़ नहीं आते।
उदाहरण के तौर पर कई राज्यों की सरकारों द्वारा खेतों में $फसल की कटाई के बाद बचे हुए ठंूठ व खर-पतवार को खेतों में ही जलाने पर पूरा प्रतिबंध लगा हुआ है। यह कृत्य पूरी तरह $गैर $कानूनी है व अपराध की श्रेणी में आता है। तमाम समझदार व शिक्षित किसान जोकि बढ़ते तापमान व प्रदूषण जैसी समस्याओं के दुष्प्रभावों से परिचित हैं वे अपने खेतों में फ़सल काटने के बाद पड़े कचरे व खर-पतवार को खेतों में जलाने के बजाए उसकी स$फाई कर उसे गड्ढों में डालकर या तो खाद के रूप में उसे परिवर्तित कर देते हैं अथवा यह कूड़ा-करकट पुन: मिट्टी में मिल जाता है। वहीं तमाम किसान ऐसे भी देखने को मिलेंगे जो $कानूनी प्रतिबंध की खुलेआम अनदेखी करते हैं तथा अपनी $फसल के खर-पतवार व कचरे को $फसल की कटाई के बाद अपने खेतों में ही जला देते हैं। परिणामस्वरूप आसपास के क्षेत्रों का $खासतौर पर खेतों के साथ लगने वाले गांवों का तापमान तत्काल प्रभाव से बढ़ जाता है। वातावरण मेें चारों ओर धुआं ही धुआं नज़र आता है। और यदि $खुदा न $ख्वास्ता किसी किसान द्वारा यह कार्रवाई रेलवे लाईन के किनारे किसी खेत में की जा रही हो तो खेतों में आग लगाने के समय उधर से गुज़रने वाली रेलगाडिय़ों के भीतर तक वह काला धुआं प्रवेश कर जाता है। जिससे पूरी ट्रेन के यात्री प्रभावित होते हैं। गोया एक व्यक्ति की $गलती व नासमझी का नतीजा हज़ारों ग्रामीणों अथवा यात्रियों को भुगतना पड़ता है।
इसी प्रकार कबाड़ी का व्यवसाय करने वाले तमाम लोग भी अपने चंद पैसों की लालचवश वातावरण को प्रदूषित करने में अपना महत्वपूर्ण किरदार अदा करते हैं। बिजली की तार अथवा साईकल व अन्य वाहनों के टायर कबाडिय़ों द्वारा सि$र्फ इसलिए खुलेतौर पर जलाए जाते हैं ताकि उनकी रबड़ को जलाकर उसके बीच से तांबे अथवा लोहे के तारों को निकाला जा सके। इस प्रकार रबड़ जलाए जाने से इतनी ज़हरीली गैस पैदा होती है कि आम आदमी का संास लेना दूभर हो जाता है। दमा और खांसी के मरीज़ों के लिए तो ऐसा धुआं जानलेवा तक साबित हो सकता है। इस प्रकार की रबड़ जलाकर उसमें से लोहा या तांबा निकाले जाने का ध्ंाधा भी मोहल्ले व गलियों से लेकर रेलवे लाईन के किनारों पर बसी तमाम झुग्गी-झोंपडिय़ों में किया जाता है। इस धुंए से भी जहां शहरी इला$के के लोग प्रभावित होते हैं वहीं रेल यात्रियों को भी ऐसे प्रदूषित क्षेत्र से गुज़रने पर का$फी परेशानी का सामना करना पड़ता है। इस कारोबार से जुड़े लोगों को भी आमतौर पर इसके दुष्परिणामों के बारे में कुछ भी पता नहीं होता। सर्दियों के दिनों में कबाड़ के कारोबार से जुड़े तमाम लोग इसी प्रदूषित आग के आसपास बैठकर सर्दी से बचने की भी कोशिश करते हैं। ग्लोबल वॉर्मिंग के प्रति उनका चिंतित होना अथवा उसके बारे में उन्हें जानकारी होना तो दूर की बात है उन्हें तो संभवत: इस ज़हरीले धुएं के नु$कसान का भी कोई ज्ञान नहीं होता।
सर्दियों में तो चारों ओर ज़हरीले धुएं का बादल उठता दिखाई देता है। $गरीब,भिखारी तथा लावारिस घूमने वाले तमाम लोग सडक़ों पर व कूड़ेदानों में इधर-उधर पड़ा कचरा जिसमें $खासतौर पर पॉलीथिन,प्लास्टिक व रबड़ आदि शामिल होता है इक_ा कर कहीं भी बैठकर जलाने लगते हैं। हालांकि वे यह उपाय सर्दियों से स्वयं को बचाने के लिए तो ज़रूर करते हैं परंतु उन दिनों में भारी कोहरे से दबकर यह ज़हरीला धुआं धरती के धरातल पर का$फी देर तक व का$फी दूर तक अपना दुष्प्रभाव छोड़ता है। इन लोगों को भी न तो ग्लोबल वॉर्मिंग का कोई ज्ञान होता है न ही यह इस ज़हरीले धुंए से होने वाले नु$कसान के बारे में कोई जानकारी रखते हैं। इन्हें तो केवल आग दिखाई देती है और वे स्वयं को ठंड व ठिठुरन से बचाने के लिए आज़ाद देश के आज़ाद नागरिक की भांति अग्रि प्रजवल्लित कर अपना हाथ,पैर व शरीर सेंकने के लिए कभी भी और कहीं भी बैठ जाते हैं। इसी तरह तमाम छोटे स्तर के रेस्टोरेंट,चायख़ानों तथा तमाम ऐसे $गरीब परिवारों में जहां आज भी रसोई गैस उपलब्ध नहीं है वहां कोयले की भट्टियों का इस्तेमाल किया जा रहा है। और यह भ_ियां नियमित रूप से प्रात:काल उसी समय जल उठती हैं जबकि वातावरण प्राकृतिक रूप से बिल्कुल शुद्ध, सा$फ-सुथरा, शांतिपूर्ण तथा स्वास्थय के लिए लाभदायक होता है। तमाम लोग प्रात:काल की इस बेला में सैर-सपाटे के लिए भी निकलते हैं। परंतु घरों व रेस्टोरेंट अथवा चाय$खानों से उठने वाले इस प्रदूषित धुएं के कारण प्रात:काल का यह सा$फ-सुथरा व स्वच्छ वातावरण भी हानिकारक हो जाता है।
ईंट भट्टा उद्योग भी वातावरण को प्रदूषित करने में अपनी अहम भूमिका अदा करता है। सरकार की ओर से ईंट भट्टों में प्रयोग हेतु कोयले की श्रेणी निर्धारित की गई है। भट्टों पर लगने वाली चिमनी की ऊंचाई व मोटाई भी निर्धारित है। ईंट भट्टा शहरी आबादी से कितनी दूर स्थित होना चाहिए इसके भी बा$कायदा नियम व $कानून हैं। जो ईंट भट्टा मालिक इन नियमों का पालन करते हैं वे तो निश्चित रूप से दोषी नहीं कहे जाएंगे। हालांकि उनके भट्टे की चिमनियों से भी काला धुआं उठता है जो पृथ्वी के तापमान को बढ़ाने में अपना योगदान ज़रूर देता है। परंतु अन्य तमाम औद्योगिक चिमनियों से उठने वाले धुएं की तरह ईंट भट्टों से उठने वाला धुआं भी विकास एवं प्रगति के नाम पर सहन किए जाने के अतिरिक्त $िफलहाल कोई दूसरा चारा नहीं है। परंतु कुछ ईंट भट्टा उद्योग ऐसे भी हैं जो निर्धारित कोयले के स्थान पर सस्ता ईंधन, गीली लकडिय़ां,पुराने टायर अथवा टायरों के कटे हुए टुकड़े व अन्य सस्ते कचरे को भट्टे का ईंधन बनाते हैं। कुछ समय पूर्व दिल्ली के समीप के एक इला$के में ऐसे ही कुछ ईंट भट्टे प्रकाश में आए थे जो टायरों के कटे हुए टुकड़ों को ईंट भट्टे के ईंधन के रूप में इस्तेमाल करते थे। इससे उठने वाले घोर काले,ज़हरीले एवं भारी धुएं के कारण न केवल भट्टे के पास-पड़ोस का पूरा क्षेत्र काला होने लगा था बल्कि पास के गांव व रिहाईशी इला$कों में रहने वाले लोगों को खांसी व दमे जैसे बीमारी सामान्य रूप से होने लगी थी। सरकार द्वारा इनके विरुद्ध स$ख्त कार्रवाई भी की गई थी।
उपरोक्त हालात हमें निश्चित रूप से यह सोचने के लिए मजबूर करते हैं कि भूमंडल के बढ़ते तापमान अथवा ग्लोबल वॉर्मिंग का जो अंदेशा वैज्ञानिकों द्वारा व्यक्त किया जा रहा है तथा वातावरण से लेकर धरातल तक व समुद्र से लेकर वायूमंडल तक इस ग्लोबल वॉर्मिंग के जो दुष्प्रभाव भी देखे जा रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि पृथ्वी के व मौसम के इस बदलते मिज़ाज के लिए प्रकृति या कोई दूसरी शक्ति नहीं बल्कि केवल हम ही जि़म्मेदार हैं। अपने चंद पैसों के लालचवश अथवा आलस के चलते जाने-अनजाने में हमारे ही समाज के लोग इन समस्याओं को बढ़ाने के भागीदार बन जाते हैं। लिहाज़ा सरकार तथा स्वयंसेवी संगठनों को चाहिए कि वे ज़मीनी स्तर पर प्रत्येेक गली-मोहल्ले का प्रत्येक दरवाज़े पर चुनाव प्रचार की तजऱ् पर पहुंच कर जन-जन को ग्लोबल वार्मिंग के संभावित $खतरों से आगाह करें तथा जनता को उनकी जि़म्मेदारियों का पूरा एहसास कराएं।

______________________________________________

Nirmal Rani**निर्मल रानी

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों,
पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं.

Nirmal Rani (Writer )
1622/11 Mahavir Nagar
Ambala City 134002 Haryana
phone-09729229728

________________________________

*Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely her own and do not necessarily reflect the views of INVC.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here