*भाषाई समस्या से प्रभावित ग्रामीण विकास

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*विशाल शर्मा,,

नरेन्द्र कुमार जिन्होनें अभी हाल ही मै एक बहुत बडी रैकिंग वाले विश्वविद्यालय से एम.बी.ए पास किया है। अंग्रेजी की अच्छी खासी जानकारी, माहौल भी आधुनिक और शहरी परिवेश मे पली बढी जिन्दगी इन्हें देखने से ही नजर आती है। कैंपस चयन के इस दौर मे एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी ने इन्हें अपने एक अहम प्रोजेक्ट जो कि ग्रामीण विकास के सम्बन्ध मे था उसके लिए चुना है। चुना जाना भी चाहिए था आखिर इतने बडे विश्वद्यिालय से पढे हुए है, आधुनिक परिवेश को बखूबी समझते भी है पर जब क्षेत्र मे जाते है तो नतीजा सिफर। ऐसा क्यों ? ऐसा इसलिए कि नरेन्द्र कुमार जैसे सैकड़ो, हजारों की तादाद मे काम करने वाले नवयुवक व नवयुवतियाँ जिन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के बडे बिल्ले की ओर भागते है, या वे कम्पनियाँ जो उनका चुनाव करती है वे उस माहौल से वाकिफ नही हो पाते है जिसके जमीनी स्तर को दुरुस्त करने के लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ उनका चुनाव करती है।

भारत गावों का देश है। कृषि यहाँ की आजीविका का मुख्य साधन है। आज भी 60 से 70 प्रतिशत जनसंख्या गावों मे निवास करती है और अपने छोटे कुटिर उद्योगों या अन्य साधनों के द्वारा अपना जीवन यापन करती है। ऐसे मे अगर यहाँ विकास की बात वास्तविकता से परे किसी बड़े पैमाने पर की जाये तो वो शायद ही कारगर साबित हो। गावों मे बसने वाली जनता अपनी जरुरतों से जुडी बातें उसी पटल पर या उसी जगह पर रखना चाहती है, जहाँ उसे अपनी जैसी समानता मिल सके, सहजता से अपती बात को अभिव्यक्त कर सकें ओर सामने वाले की बात भी उसी सहजता के साथ समझ भी सकें।
आज कितनी भी बडी से बडी कम्पनी क्यों ना हो वे अपने प्रोजेक्ट कार्यो मे ग्रामीण विकास की बात पुरजोर तरीके से करते है। बडे बडे विश्वविद्यालयों मे ग्रामीण विकास से सम्बन्धित पाठयक्रम चलाये जा रहें है। आखिर क्यों ? इसका जबाब बडा ही सरल है- मात्र 30 से 40 प्रतिशत शहरी आबादी पर निर्भर होकर कोई भी बहुराष्ट्रीय कम्पनी अपना असर नही दिखा पायेगी । क्योंकि जिस शहरी आबादी के हिसाब से वह अपना प्रोजेक्ट चलायेगी वह तो खुद अपनी जरुरतों की चीजों के लिए गाँवों पर निर्भर होते है। इसलिए इन कम्पनियों का रूख भी गाँवों की ओर होना स्वाभाविक हो जाता है ताकि उनके व्यवसाय को नये आयाम मिलें ओर इसी बहाने ग्रामीण क्षेत्रों कों भी विकास से रू-ब-रू होने का अवसर प्राप्त हो सकता है। कोई भी बहुराष्ट्रीय कम्पनी जब भी अपनी कोई इ्र्रकाई स्थापित करती है तो उसे उससे जुडी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष चीजों का, आसपास के माहौल का, रहन-सहन, जीवन स्तर, शैक्षिक गतिविधियों ओर आमदनी के स्त्रोत इत्यादि की जानकारी होना नितान्त आवश्यक है ओर वो इसकी जानकारी करती भी है। परन्तु इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को वहाँ बसने वाली आबादी अगर भाषा की समस्या के आधार पर ना समझ पाये ंतो उसकी योजना कितनी भी अच्छी क्यों ना हो उनके लिए सिर से परे है। नरेन्द्र कुमार जैसे होनहार छात्रों के सामने खुद को साबित ना कर पाने की यही वजह होती है। ऐसा नही है कि उन्होनें वहाँ की जानकारियों को समझने की कोशिश नही की हो या वो अपने काम के माहिर ना हो पर जब आप भाषा के द्वारा अपने ग्राहकों से सहज नही हो पा रहें हो तब स्थिति बडी विकट होती है। दुनिया के बेहतरीन विश्वविद्यालयों मे शुमार आक्सॅफोर्ड विश्वविद्यालय मे पढे होने के बावजूद भी अगर आप गाँव मे किसी अनपढ महिला के सामने फ्ुस्स साबित हो जाते है तो ये कोई चैकानें वाली बात नही होगी। क्योंकि आप जिस भाषा के आधार पर उससे जुडने की कोशिश कर रहे है उसके लिए वह भाषा शून्य है अतः आप भी उसके लिए शून्य ही साबित होगें भले ही आप कितने बड़े धुरंधर क्यों ना हो। अब ऐसे मे जेहन मे सबसे पहले सवाल ये उठता है कि आखिर इतने काबिल होने के बावजूद भी हम गाँव की ओर क्यों रूख करे ? इसका सीधा सा जबाब यह है कि कितनी ही बडी कम्पनी क्यों ना हो अगर उसकी पकड निचले स्तर तक नही है तो वह कामयाब नही हो सकती । उस स्तर पर पकड बनाने के लिए उसे उन लोगों की भाषा को जानने के साथ-साथ उनकी जरुरतों को समझना भी होगा तभी उनकी योजनाओं की सफलता सुनिश्चित हो पाती है। उदाहरणार्थ- पैन्टीन शैम्पू प्राक्टर एंड गैम्बेल जैसे बडे नाम का हिस्सा है पर बाजार मे उनका उत्पाद 100-150 की बोतल के साथ-साथ डेढ रुपये मे भी आसानी से मिल जाता है ऐसा क्यों ?
ऐसा इसलिए कि हिन्दुस्तान मे बसने वाली आबादी का एक हिस्सा ही 100 से 150 रुपये की बोतल खरीद पाने की संभव है। कुछ हिस्सा 50-60 रुपये की बोतल खरीद सकता है तो कुछ के लिए वह भी मुश्किल है। ऐसे मे अगर आपको उत्पाद बेचना है ओर अपना नाम बढाना है तो उसके लिए आपको उनकी क्षमता को आंकते अपना उत्पाद बेचना होगा ओर इसलिए ही डेढ रुपये मे भी शैम्पू का पाउच निकालना होगा क्योंकि आपके बाजार का एक बहुत बडा हिस्सा उससे होता है। इसके विपरीत अगर आप ऐसा नही कर पाते है तो आप कितने ही काबिल और होशियार मार्केटिंग अफसर की नियुक्ति क्यों ना कर दें वह वहाँ सफल नही हो पायेगा ओर बाजार मे आपका नाम बेशक बडा हो पर वो उस वर्ग के लिए अनजान ही बना रहेगा ओर कोई दूसरा ब्रांड जो उनकी आवश्यकताओं को समझ सकेगा उस जगह को ले लेगा। आज भूंमडलीकरण का दौर है, देशी विदेशी एक से एक बडा नाम गँावों की ओर रुख कर रहें है। वालमार्ट जैसे बडे नाम जब बाजार मे होगें तो क्या वो ग्रामीण क्षेत्र मे रहने वाले या वहाँ से आये हुए लोगों के साथ उतने ही सहज हो पायेगें जितना उनके लिए नुक्कड पर दुकान खोले हुए किराने वाला होता है। क्योंकि उसे वह अपनी भाषा ओर व्यवहार के द्वारा समझा भी सकते है ओर उसे समझ भी जाते है। ये भाषा की विडम्बना ही है कि गँाव से जुडा कितना ही बडा पैसे वाला क्यों ना हो अगर उसे शहर के किसी बडे होटल या माॅल मे कुछ खाने-खरीदने के लिए जाना हो ओर उसे अंग्रेजी की जानकारी ना हो या वहाँ के माहौल से अनभिज्ञ हो तो उसके अन्दर कहीं ना कहीं अपने को कमतर आंकने क प्रकिया चालू हो जाती है। ऐसे मे उसे लगता है कि या तो वह इन सबके लिए नही है या ये सब चीजें उसके लिए नही है। बेशक कम्पनी ने ये आधुनिक स्तम्भ उन जैसे लोगों के लिए ही प्रस्तावित किया हो पर भाषा की समस्या के कारण वह अनुकूल प्रभाव नही छोड पाती है ओर बजाये सकारात्मकता के अपना नकारात्मर प्रभाव छोड देती है।
बहुराष्ट्रीय कम्पनीयों को चाहिए कि वह अपनी योजनाओं को बनाने व लागू करने मे उन तमाम ग्रामीण पहलुओं से भली भांति परिचित हो ले जिनके लिए उन्हे बनाया जा रहा है। क्योंकि अगर वो ही इन्हे समझ ना पायें ओर वो भी भाषा के ज्ञान के कारण तो किसी भी योजना को चाहे वो कितने ही बडे पैमाने पर क्यों ना हो कारगर नही हो पायेगी। यूनीसेफ के किसी प्रोजेक्ट पर अगर कोई बिहार के गांवो मे जाकर विकास की बात करे या जानकारियाँ देनी चाहे ओर भोजपुरी से वाकिफ ना हो तो शायद उसे अपनी बात समझाने मे उतनी ही असहजता महसूस होगी जितनी उसे सुनने वाले लोगो को उसकी भाषा के कारण हो रही होगी । इसलिए किसी भी कम्पनी या संस्था की प्राथमिकता यही होनी चाहिए कि वह उस माहौल मे पलने बढने के लिए उस माहौल को समझने वाले लोगों को प्राथमिकता दे। ना कि ऐसे लोगो को जो सिर्फ किसी एक भाषा की अच्छी जानकारी होने के कारण बडी कम्पनी मे जगह पा लेते है ओर शेष उस स्थान को पाने के लिए या वहाँ तक पहुँचने के लिए सिर्फ इस वजह से वंचित नही होने चाहिए कि उन्हे अमुक भाषा की जानकारी नही है।

‘‘भाषा ही अगर विकास में बाधक है तो उस भाषा से जुडी योजनायें भी विकास की राह मे उतनी ही बाधकता उत्पन्न करती रहेगीं जितनी उस भाषा के होने से है। ‘‘

*विशाल शर्मा

अध्ययनरत, स्वतंत्र पत्रकार
जनसंचार एवं पत्रकारिता विभाग
बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय
(केन्द्रीय विश्वविद्यालय)
लखनऊ

*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC

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