भारत रत्न डा बी आर अंबेडकर

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BR-Ambedkar,invc news –  प्रभात कुमार राय – 

डॅा0 भीमराव रामजी अंबेडकर (14.4.1889-6.12.1956) भारतीय संविधान के शिल्पकार, प्रख्यात विधिवेŸाा, न्यायविद्, महान इतिहास विवेचक तथा धर्म और दर्शन के प्रकांड विद्वान थे। वे दलित वर्ग के प्रबल मसीहा थे और जीवन-पर्यन्त अछूतोद्धार के लिए क्रियाशील रहे। अछूतों के जीवन से उन्हें गहरा लगाव था और अपार सहानुभूति थी। 1920 के दशक में बंबई में उन्होंने बेबाकी से कहा थाः ”जहाँ मेरे व्यक्तिगत हित और देशहित में टकराव होगा वहाँ मैं देश के हित को प्राथमिकता दूँगा, लेकिन जहाँ दलित जातियों के हित और देश के हित का टकराव होगा, वहाँ मैं दलित जातियों को प्राथमिकता दूँगा।“ वे जाति-विहीन समाज से दलित मुक्ति की कल्पना की थी और उनका मानना था कि जाति-विहीन समाज की स्थापना के बिना स्वराज प्राप्ति का कोई महत्व नहीं है।

भारत के संविधान में वैयक्तिक स्वतंत्रता, मानवीय समता एवं नागरिक बंधुता की तत्वत्रयी का समावेश उनका अमूल्य योगदान है। उन्होनें लोकनिष्ठा को प्रतिपादित किया तथा कई विचारधाराओं के संश्लेष को संविधान में शामिल किया। इसमें फ्रांस और अमेरिकी क्रांतियाँ भारत की लोकतंत्रात्मक क्रांति से जुड़ती है। उनकी अवधारणा थी कि समाज के विभिन्न क्षेत्रों में अगर प्रजांतत्र स्थापित नहीं होता है तो राजनीतिक प्रजातंत्र अस्तित्वहीन हो जायगा। वे प्रजातंत्र को सरकार के रूप की बजाय एक वृहत् सामाजिक संगठन करार करते थे। वे अब्राहम लिंकन की उक्तिः ”जैसे मैं गुलाम रहना पसंद नहीं करूँगा, उसी तरह मैं स्वामी बनना भी पसंद नहीं करूँगा।“ से प्रभावित थे। उनके अनुसार प्रजातंत्र का उद्वेश्य जनता के सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में बिना किसी हिंसा के क्रांतिकारी परिवर्तन लाना है। वे प्रजातंत्र को समाजवाद के सिद्धांत से पृथक नहीं मानते थे। उन्होंने प्रजातंत्र की सफलता के लिए नैतिकता, जो वैज्ञानिक सेाच एवं तार्किक कसौटी पर आधारित हो, को अनिवार्य बताया। नैतिकता को कानून के बल पर स्थापित नहीं किया जा सकता है। उन्होंने संविधान के प्रावधानों से प्रजातंत्र को गतिशीलता प्रदान की तथा राष्ट्रीय एकता और अखंडता को बल दिया।

दलितों के प्रतिनिधि बनकर वे दोनों राउंडटेबल कान्फ्रेन्स में लंदन गए तथा उनके हितों की प्रबल वकालत की। उनके तर्क तथा प्रभावी अभिव्यक्ति के कारण ब्रिटिश सरकार ने कम्यूनल एवार्ड की घोषणा की। जिस पर गाँधीजी ने पूना के यरवदा जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया था। अंततः गाँधीजी और डा0 अंबेडकर के बीच एक समझौता हुआ जो पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है। पूना पैक्ट पर मानवाधिकार से जुड़े दो बड़े नेताओं ने सहमति प्रदान कर अपने को कुशल राजनीतिक तथा बुद्धिजीवी होने का परिचय दिया। यह इसी पैक्ट का परिणाम है कि शिक्षा एवं रोजगार आदि के क्षेत्रों में वंचितों के लिए द्वार खुला।

गुरूदेव रवीन्द्रनाथ भी जाति-प्रथा के प्रबल विरोधी थे। वे अछूतों के साथ अमानवीय व्यवहार को फासिज्म तथा के0के0के0 आदि की बर्वरता से भी बढकर मानते थे। गुरूदेव रवीन्द्रनाथ तथा बाबा साहब ने मिलकर गाँधीजी से जाति-प्रथा के उन्मूलन की वकालत की थी। जब गाँधीजी ने बाबा साहब के साथ पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर किया था उस समय टैगोर मौजूद थे। यह महज संयोग था कि जब गाँधीजी ने यह घोषणा की थी दलितों की समस्या के निदान बिना मैं चैन से नहीं रहूँगा, उस वक्त भी गुरूदेव रवीन्द्रनाथ गाँधीजी के साथ थे।

स्वतंत्रता के बाद डा0 अंबेडकर को भारत का प्रथम कानून मंत्री बनाया गया। उन्होंने कुरीतियों एवं दासता के शिकंजे से ग्रसित समाज को मुक्त करने तथा महिलाओं के सम्मान की रक्षा के लिए हिंदू कोड बिल का सूत्रीकरण किया। 1951 में हिंदू कोड बिल पास न होने के कारण उन्होनें मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया तथा राज्य सभा में सरकार का घोर विरोध भी किया। व्यथा और आवेश में आकर उन्होंने यहाँ तक कह दिया थाः ”मैं संविधान का शिल्पी नहीं वरन किराये का लेखक था, जो काम सौपा गया कर दिया। हिंदू समाज में ऊँच-नीच, भेदभाव और लिंगभेद को यथावत रखते हुए केवल आर्थिक परिस्थितियों के लिए कानून बनाना ताश के बंगले जैसा है और संविधान का अपमान है।“ उन्होंने अपने चिंतन को धर्म की ओर प्रवृत किया और 14.10.1956 (विजयादशमी) को पाँच लाख से भी अधिक अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म को अंगीकार किया। इससे अहिंसा, जाति एवं वर्ण-प्रथा विरोधी तथा विश्वंधुत्ववादी बाबा साहब को सही धरातल मिला। दलितों की दुर्दशा को उन्होनें खुद झेला था तथा अनुभव-जन्य सरोकार को उन्होंने समष्टि के साथ जोड़ा। अपनी आंतरिक व्यथा, करूणा एवं संताप को अपने तक सीमित नहीं रखकर व्यापक समूह के साथ, बुद्ध दर्शन के परिप्रेक्ष्य में, जोड़ दिया। बौद्ध धर्म के पुनरूत्थान में डा0 अम्बेडकर का महत्वपूर्ण योगदान रहा। उन्होंने बुद्ध की समता को अपनी सेाच का आधार बनाया। वे हिंसा के प्रबल विरोधी थे तथा बुद्ध के अहिंसा के उपदेश का अक्षरशः पालन करते थे। फलस्वरूप उन्हेांने अपने अनुयाथियों को अपने अधिकारों की प्रप्ति के लिए शांतिपूर्ण एवं अहिंसक आन्दोलन करने की सख्त हिदायत दी थी। हिंसा से प्रजातंत्र की आत्मा का हनन होता है- यह उनकी विचारधारा थी।

विषम परिस्थिति में भी डा0 अंबेडकर अधिकतम एवं गुणात्मक शिक्षा पायी और अपना सारा जीवन अध्ययन-अध्यापन में बिताया। उनका सूत्रवाक्य थाः ”शिक्षित बनो, संगठित होओ और संधर्ष करो।“ उनके मस्तिष्क में ज्ञान का विराट विश्वकोष वर्Ÿामान था। उनका मानना था कि बुद्धि का विकास मानव के अस्तित्व का अंतिम लक्ष्य होता है। शिक्षा का उन्होंने दलितों के उद्धार का सबसे सशक्त हथियार कहा था। उन्हेंने शिक्षा की महŸाा को रेखांकित करते कहा थाः ”शिक्षा शेरनी का दूध है, जो पियेगा वह अपने अधिकारों के लिए शेर की तरह गरजेगा ही।“ दासता को उन्होंने अस्पृश्यता से सैकड़ों गुणा बेहतर बताया था क्योंकि गुलामी में शिक्षा, गुण, संस्कृति एवं संपŸिा आदि के लिए कुछ गुंजाइश भी रहती है जबकि अस्पृश्यता में कुछ भी नहीं। सामाजिक प्रगति तथा समतामूलक समाज की स्थापना के लिए उन्होंने शिक्षा को अनिवार्य माना था।

बाबा साहब दूरदर्शी एवं युग द्रष्टा थे। उन्होंने भारत को अमेरिका सदृश देश बनाने का सपना देखा। अमेरिका को वे विज्ञान, प्राद्यौगिकी, उद्योग, कला एवं व्यापार आदि का आधुनिक केन्द्र मानते थे। अमेरिका से प्रेरित होकर उन्होंने अपनी पुस्तक ”स्टेट्स आफ माइनोरिटिज“ की भूमिका में भारत का नाम ‘युनाइटेड स्टेट्स ऑफ इंडिया’ रखने का सुझाव तक दे डाला था तथा अमेरिका के तर्ज पर अध्यक्षीय शासन प्रणाली की वकालत भी की थी। जब भारत सरकार ने राष्ट्र संघ में चीन को शामिल करने की पेशकश की तो डा0 अंबेडकर ने इसकी तीव्र आलोचना की। उनको चीन का पक्ष लेकर अमेरिका की नाराजगी कतई पसंद नहीं था क्योंकि अमेरिका से आर्थिक एवं तकनीकी मदद मिलने में दिक्कत पैदा हो गयी थी।
वे एक मर्मक्ष अर्थशास्त्री थे जिन्होंने औद्धाोगीकरण को समग्रता से देखा तथा इसे बढ़ावा देने के लिए रूपरेखा तैयार किया। उन्होंने तार्किक ढ़ंग से भारतीय कृषि प्रणाली को बड़े-बड़े फार्म में परिवर्तित कर प्रति हेक्टेयर उत्पादकता बढ़ाने का सुझाव दिया तथा अमेरिका के तर्ज पर कृषि को भी औधोगिक पैटर्न पर संगठित करने की वकालत की । भारत की जमीन काफी उर्वर होने और यहाँ के किसान परिश्रमी होने के बावजूद भी कृषि क्षेत्र में उत्पादकता अन्य देशों की तुलना में काफी कम था। वे पहले भारतीय थे जिसे किसी विदेशी विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में पी0 एच0 डी0 की डिग्री मिली थी। वे 1932 में ही कृषि के पूर्ण मशीनीकरण के पक्षधर थे। बाद में कुछ राज्यों द्वारा इसे अपनाकर हरित क्रांति लायी गयी जिससे खाद्य पदार्थो की उत्पादकता में आशातीत वृद्धि हुई। कृषि के औद्धोगीकरण का निहितार्थ किसी अन्य उद्योग एवं व्यापार की तरह किसानों को अपेक्षित लाभ मिलना था।

उनका गाँधीजी और जिन्ना से वैचारिक मतभेद था जिसे वे पूरी स्पष्टवादिता से प्रकट करते थे। उनके लिए बिगड़ती स्थिति में चुपचाप बैठना असह्य था। वे तर्क एवं बुद्धि के आधार पर प्रतिवाद, प्रतिकार एवं मूलोच्छेद में विश्वास रखते थे। उन्हें जेनिंग्स की उक्तिः ”अगर कोई विरोध नहीं है तो प्रजातंत्र कायम नहीं रख सकता है। ‘हिज मेजेस्टी’ को सरकार के साथ एक सशक्त प्रतिपक्ष की भी जरूरत है।“ में गहरी आस्था थी। विसंगतियों की ओर इशारा देना या साधारण प्रतिक्रिया देना मात्र उनका मकसद नहीं था। वे सक्रियात्मक हस्तक्षेप कर चीजों एवं परिस्थितियों को बदलना चाहते थे। उनकी रचना का उत्स वृहतर समय-समाज का सरोकार एवं उदार दृष्टिबोध था।

वे एक महान समाज सुधारक थे तथा मानवाधिकार के प्रबल पोषक थे जो भारत ही नहीं विश्व के दलित-शोषित-प्रताड़ित जनों को मुक्ति का मार्ग दिया और समता की धरातल दी। उनकी आकांक्षा और प्रतिबद्धाता उनके लिए विचार की सशक्त शैली, अभिव्यक्ति का प्रभावी संप्रेषण, संवाद का अनोखा संदर्भ और परिणाम बन गया। उन्होंने भविष्यवाणी की थीः ”आगे आने वाले समय में, चाहे वह दो सौ वर्ष बाद आए, भारत में रहने और हिंदू धर्म मानने वाले लोग मेरे दर्शन को सामाजिक स्तर पर भी मानेंगे।“ यह आज भी प्रासंगिक है।

prabhat-raiBIHAR-invc-news,writer prabhat raiपरिचय -:
प्रभात कुमार राय
( मुख्य मंत्री बिहार के उर्जा सलाहकार )

पता: फ्लॅट संख्या 403, वासुदेव झरी अपार्टमेंट,
वेद नगर, रूकानपुरा, पो. बी. भी. कॉलेज,
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1 COMMENT

  1. डा बी आर आंबेडकर के बिचारों को बड़ी स्पस्टता से आपने ब्यक्त किया है।परंतु राजनैतिक ठीकेदार इनका जिस प्रकार दुरूपयोग कर रहे हैं वह डा आंबेडकर को अनसुचित जाति का नेता बनाने पर तुला है।उसपर कैसे रोक लगे यह बिचरणीय है।
    आपका लेख पढकर अच्छा लगा।साधुबाद।

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