भारत के बजट की दास्‍तान

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स्‍वतंत्रता के बाद के 70 वर्षों के भारत के बजट दस्‍तावेज संघर्ष, उपलब्धियों, हताशाओं तथा राष्‍ट्र के रूप में भारत के विश्‍वास की लम्‍बी छलांग को दर्शाते हैं। ये राष्‍ट्र की आकांक्षाओं और उपलब्धियों को भी प्रतिविम्बित करते हैं। बजट के उबाऊ आंकड़े औपनि‍वेशिक युग के बाद के भारत के इतिहास में नये जीवन का संचार करते हैं।

– अंजन रॉय  – 

कल्‍पना कीजिए बजट पेश किया जा चुका है, अगली सुबह आप क्‍या करेंगे। जाहिर तौर पर आप अगले साल के बजट की प्रमुखबातों पर एक सरसरी नज़र दौड़ाएंगे।

अब खुद से एक सवाल कीजिए। आज़ादी के बाद के सत्‍तर सालों में लोग केन्‍द्रीय बजट पेश किये जाने के अगले रोज़ क्‍या करते रहे होंगेॽ अगर आप काफी उम्रदार हैं तो शायद आपको याद होगा कि किस तरह बजट के अगले दिन अखबार खरीदने के लिए लाइन में लगना पड़ता था और लोग यह जानने को बेताब रहते थे कि रोजमर्रा की जरूरत की चीजों के दामों में क्‍या बदलाव किये गये हैं। बिजली के पंखे से लेकर सौन्‍दर्य प्रसाधनों तक और कपड़ों से लेकर विलासिता के सामान तक ज्‍यादातर चीजों की कीमतें बजट के बाद बढ़ जाया करती थीं। सिगरेट की कीमत तो पक्‍के तौर पर बढ़ती ही थी जिससे धूम्रपान करने वालों को बड़ी कफ्त होती थी।

मगर अब किसी को बजट के बाद आम जरूरत की चीजों और यहां तक कि सेवाओं पर भी बजट के असर की चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। कारण यह है कि लोगों को पता है कि इन चीजों पर वस्‍तु और सेवा कर (जीएसटी) की दरें क्या थीं और वित्‍त मंत्री उनमें कोई बदलाव कर नहीं सकते। भले ही इसके पीछे उनकी कितनी भी बड़ी आर्थिक मजबूरी क्‍यों न हो। कीमतों का फैसला अब जीएसटी परिषद ही कर सकती है और यह एक तरह से स्‍थायी व्‍यवस्‍था है। हां, घोटाले जैसी कोई बहुत बड़ी वजह हो तो बात और है।

केन्‍द्रीय वित्‍त मंत्री ने एक तरह से सामान और सेवाओं पर टैक्‍स की दरों में बदलाव का अपना अधिकार जीएसटी परिषद को सौंप दिया है। इसी तरह सभी राज्‍यों के वित्‍त मंत्रियों ने भी यही किया है।

ऐसा लगता है कि आम आदमी के लिए केन्‍द्रीय बजट का महत्‍व एक तरह से खत्‍म हो गया है। मगर असल में ऐसा है नहीं। हुआ यह है कि हमारे पास अप्रत्‍यक्ष करों का एक फौलादी ढांचा है जिसमें कोई भी बदलाव या छेड़छाड़ ‘‘सहयोगी संघवाद’’ (यानी कोलेबोरेटिव फेडरलिज्‍म) की सर्वसम्‍मत प्रणाली के जरिए ही की जा सकती है जिसे जीएसटी परिषद कहा जाता है और सभी वित्‍त मंत्री इसके सदस्‍य होते हैं। स्‍वतंत्र भारत के 70 साल के इतिहास में यह बजट में आया बहुत बड़ा बदलाव है।

पिछले सात दशकों में केन्‍द्रीय बजट के स्‍वरूप में आमूल परिवर्तन आ गया है। बीते वर्षों के बजट का अध्‍ययन करने वाले आज के किसी पाठक के लिए बजट में पहला आश्‍चर्य संख्‍यात्‍मक दृष्टि से दिखाई देता है। पहले आंकड़े बहुत छोटी संख्‍याओं में होते थे। माना कि मुद्रास्फीति के कारण आज संख्‍याएं बहुत बड़ी हो गयी हैं, लेकिन अगर मुद्रास्‍फीति को भी हिसाब में ले लिया जाए तो ये आज के मुकाबले बहुत ही छोटी हैं। इसी से पता चल जाता है कि हमने बीते वर्षों में कितनी लंबी छलांग लगायी है। बजट बनाने का तरीका भी बहुत बदल गया है और उसी के अनुसार महत्‍वपूर्ण प्राथमिकताएं बदली हैं। कुल मिलाकर गुजरे जमाने के बजट दस्‍तावेजों को देखकर ऐसा लगता है जैसे ये किसी और ही दुनिया की बातें हैं। लेकिन अगर गौर से देखें तो कुछ चिंताएं उभर कर सामने आती है जो आज के संदर्भ में प्रासंगिक हैं।

पहला बजट

आज़ादी के तीन महीने बाद, यानी नवंबर 1947 में अंतरिम बजट पेश करते हुए केन्‍द्रीय वित्‍त मंत्री आर.के. षणमुखम् चेट्टी ने बढ़ी हुई कीमतों पर चिंता व्‍यक्‍त की थी। इसका मुख्‍य कारण उन्‍होंने ‘समाज के हाथों में अतिरिक्‍त क्रय शक्ति का आना’ और ‘औद्योगिक व कृषि दोनों ही तरह के उत्‍पादनों में चौतरफा गिरावट’ को बताया था।  इस पर गौर करना जरूरी है क्‍योंकि इससे उस समय की अर्थव्‍यवस्‍था की स्थिति का संकेत मिलता है जो एक मामूली घाव से एक ऐसे नासूर का रूप ले चुकी है जो आज भी रिस रहा है। उन्‍होंने ‘सदन का ध्‍यान उस मुद्दे की ओर आकर्षित किया जो सरकार के लिए चिंता का कारण बना हुआ था। यह था उस समय के भारत के विदेशी भुगतानों में भारी पैमाने पर प्रतिकूल संतुलन की स्थिति का बनना’। इसके बाद के अनुच्‍छेदों में उन्‍होंने खाद्यान्‍न के आयात के बढ़ते खर्च का हवाला देकर अपनी बात को समझाया।

यह मुद्दा बाद के दशकों में भी भारत की आर्थिक नीति के लिए इतना महत्‍वपूर्ण बना रहा कि मैं यहां विस्‍तार से उन्‍हें उद्धरित करने से अपने आप को रोक नहीं सकता : ‘‘घाटे का दूसरा और उससे भी अधिक महत्‍वपूर्ण कारण है, जैसा कि सभी जानते हैं, खाद्यान्‍न का आयात। कई वर्षों से भारत खाद्य पदार्थों का नियमित आयात कर रहा है। लेकिन हाल में आयात की मात्रा और कीमतों में बढ़ोतरी हुई है। 1944-45 और 1945-46 में भारत के खाद्यान्‍न-आयात की लागत क्रमश: 14 करोड़ रुपये और 24 करोड़ रुपये थी। 1946-47 में यह 89 करोड़ रुपये के स्‍तर पर जा पहुंची। ये आंकड़े पूरक खाद्य पदार्थों के आयात के अलावा हैं जिनको विदेशों से मंगाने में 1946-47 में 15 करोड़ रुपये अतिरिक्‍त खर्च हुए। 1947-48 में खाद्यान्‍न के आयात पर खर्च की जाने वाली संभावित राशि 110 करोड़ रुपये है।’’

इन आंकड़ों के पीछे एक कड़वी सच्‍चाई छिपी थी। इससे जनता को भारी मुसीबतें उठानी पड़ीं। इससे भारत की छवि भी धूमिल हुई। टाइम पत्रिका के दिल्‍ली संवाददाता ने 22 अगस्‍त, 1949 के अंक में अपने लेख में लिखा था: ‘भारत ने अपनी स्‍वतंत्रता की वर्षगांठ किफायत के नये और अधिक कठोर उपायों की घोषणा से की। भारत बुनियादी तौर पर आज भी एक भूखा देश है। सरकार ने अनाज का उत्‍पादन बढ़ाने के लिए एक अभियान शुरू किया है। खाद्यान्‍न उत्‍पादन बढ़ाने के इस अभियान के प्रचार के लिए नई दिल्‍ली स्थित वाइसराय के गोल्‍फ कोर्स में हल चलाया गया। गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी हांलांकि कोई गोल्‍फ खिलाड़ी तो नहीं हैं, मगर उन्‍होंने बैलों की जोड़ी के पीछे खड़े होकर फोटो खिंचाया…..’

सुखद अंतराल

अब फास्‍ट फारवर्ड करते हुए 1950 के दशक के मध्‍य में आ जाइये। तब तक केन्‍द्रीय वित्‍त मंत्री की जिम्‍मेदारी वित्‍तीय क्षेत्र की एक बड़ी हस्‍ती सी.डी. देशमुख ने संभाल ली थी। 1950 और 1955 के दौरान देश की हालत में चमत्‍कारिक सुधार हुआ। 1955 में बजट पेश करते हुए वित्‍तमंत्री देशमुख ने कहा : अनाज का उत्‍पादन बढ़ा है, आपूर्ति में (कपड़ा, सीमेंट,पटसन के सामान और इस्‍पात) आम तौर पर सुधार हुआ है और सबसे बड़ी बात यह हुई है कि ‘’मुद्रास्‍फीतिकारी स्थितियां गायब हो गयी हैं’’।

1953 में तो विदेशी व्‍यापार संतुलन में 55 करोड़ रुपये का अतिशेष देखने को मिला। भारत के उन दिनों के ‘स्‍टर्लिंग बैलेंस’ (विदेशी मुद्रा भंडार) में भी बढ़ोतरी दर्ज की गयी. ब्रिटेन से आज़ादी मिलते समय भारत को एक खजाना भी मिला था। आज यह भुला दिया जाता है कि भारत ने दूसरे विश्‍व युद्ध में ज़बरदस्‍त योगदान किया था। उसने उपमहाद्वीप से युद्ध में 50 लाख सैनिक ही नहीं भेजे, बल्कि अनाज से लेकर आम ज़रूरत की कई चीजें जैसे पटसन के थैले, बोरे, इस्‍पात व लोहे के सामान का भी योगदान किया भले ही ऐसा करते हुए उसे अपने ही घर में करोड़ों भारतीयों को भूखा रहना पड़ा।

उस समय ब्रिटेन ने इन चीजों के लिए बाद में भुगतान करने का वादा किया। विश्‍व युद्ध के दौरान तो उसके पास पैसा नहीं था क्‍योंकि उसे दुनिया भर में कई मोर्चों पर युद्ध लड़ना पड़ रहा था। इसलिए 1939 से लेकर 1946 तक युद्ध के लिए सामान की सप्‍लाई के बदले भारत को मिलने वाली रकम जमा होती चली गयी। उन दिनों के लिहाज से यह एक बहुत बड़ी राशि थी।

स्‍टर्लिंग रिजर्व की ही तरह डालर का भंडार भी, जो अलग से जमा होते थे, बढ़ता चला गया. डॉलर का इस्‍तेमाल अमेरिका से अनाज के आयात के लिए भुगतान करने में होता था।

मगर मामूली अतिशेष के बावजूद उस समय के वित्‍त मंत्री देशमुख ने चेतावनी दी थी: ‘हमें भूलना नहीं चाहिए कि हमारे विदेशी मुद्रा के खर्च में तेजी से बढ़ोतरी होना निश्चित है….’ 1991-92 के विदेशी भुगतान संकट तक भारत के लिए नीतियां बनाते समय यह बात सही साबित हुई।

एक के बाद दूसरे वित्‍त मंत्रियों के बजट भाषणों और उस साल की योजना के दस्‍तावेज को पढ़ते हुए महसूस होता है कि 1956 का साल भारत के लिए बेहतरीन साल रहा। वित्‍त मंत्री की विश्‍वासपूर्ण धोषणा से भी पता चलता है कि अर्थव्‍यवस्‍था में ‘ठहराव का दौर खत्‍म हो गया है।’ 1950 से 1955 के दौरान सकल घरेलू उत्‍पाद (जीडीपी) में 18 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई जिसका कारण था अनाज के उत्‍पादन में भारी बढ़ोतरी से आयात का कम होना तथा चाय और पटसन की मांग में वृद्धि से निर्यात में जबरदस्‍त बढ़ोतरी। नतीजा चालू खाते में 25 करोड़ रुपये का अधिशेष दिखाई देने लगा और स्‍टर्लिंग अधिशेष भी अपने उच्‍चतम स्‍तर 735 करोड़ रुपये पर पहुंच गया।

नया मोड़

अतीत पर नजर डालने से ऐसा लगता है कि जब सब कुछ अच्‍छा–ही-अच्‍छा लग रहा था तभी भटकाव का सिलसिला चल पड़ा. 1956 में भारत को विश्‍व अर्थव्‍यवस्‍था और पश्चिम के साथ अपने आप को समन्वित करके अधिक मुक्‍त अर्थव्‍यवस्‍था और खुली व्‍यापार नीति का मार्ग अपना लेना चाहिए था। लेकिन इसकी बजाय हम उल्‍टी दिशा में चल निकले। 1956 के बजट में सी.डी. देशमुख ने ऐसी नीतियां लागू कीं जो बिना किसी बड़े बदलाव के 1970 के दशक तक जारी रहीं।

समूचे नीतिगत परिदृश्‍य में बदलाव का कारण था — अत्‍यधिक महत्वाकांक्षी लक्ष्‍यों और एकतरफा रणनीतियों वाली दूसरी पंचवर्षीय योजना को लागू करने में राजनीतिक शक्तियों की हड़बड़ी। पंचवर्षीय योजना में सोवियत संघ के मॉडल का अनुसरण करते हुए पूंजीगत साज-सामान वाले क्षेत्र का बड़े पैमाने पर विकास करने की बात कही गयी थी। इसमें बड़े पैमाने पर परियोजना आयात का भी जिक्र किया गया था। भविष्‍य का अनुमान लगाने की अपनी विलक्षण प्रतिभा से देशमुख ने विचार व्‍यक्‍त किया कि वित्‍तीय पक्ष को दरकिनार करके भौतिक लक्ष्‍यों का निर्धारण नहीं किया जा सकता।

किसी आसन्‍न संकट का पूर्वानुमान लगाते हुए देशमुख ने कहा, ‘इस बात में संदेह की बहुत कम गुंजाइश है कि अगर दूसरी पंचवर्षीय योजना अपनी समय सारणी के अनुसार आगे बढ़ती है तो हम अपने विदेशी खातों में कोई भी अधिशेष बनाने में नाकामयाब रहेंगे, बल्कि इसके उलट हमें बहुत बड़े घाटे का भी सामना करना पड़ सकता है’। योजना की ज़रूरतों की वजह से आम आयातों में कमी लानी पड़ी. दूसरी योजना की ज़रूरतों को पूरा करने और वित्‍तीय संसाधन जुटाने के लिए बड़े पैमाने पर कर लगाये गये. आयकर 91.2 प्रतिशत की सीमा तक पहुंच गया – जिससे काले धन का पैदा होना तय था।

दूसरी योजना के वित्‍तीय परिणामों ने दो तरह के संसाधन अंतरालों के लिए बजट में इंतजाम करने की जरूरत पैदा कर दी। बजट में समग्र घरेलू संसाधन अंतराल और विदेशी मुद्रा संसाधन अंतराल से अलग अलग तरीके से निपटना प्रारंभ कर दिया. यह उसी तरह था जैसे दो अलग-अलग बजट बनाए जा रहे हों।

इस तरह के दृष्टिकोण की विसंगति पर एक युवा अमेरिकी अर्थशास्‍त्री ने गौर किया जो अमेरिकी विदेशी सहायता एजेंसी के तत्‍वाधान में उस दौरान भारत की यात्रा पर आए थे और बाद में उन्‍हें नोबेल पुरस्‍कार भी मिला था। मिल्‍टन फ्रीडमैन 1955 में भारत आये और उन्‍होंने भारत सरकार को एक ज्ञापन दिया. इसमें उन्‍होंने तर्क दिया था कि विदेशी मु्द्रा अंतराल को समग्र घरेलू संसाधन अंतराल से अलग मानना गलत है क्‍योंकि पहला दूसरे का ही एक हिस्‍सा है। उन्‍होंने विनिमय दर नियंत्रण और आयात-निर्यात लाइसेंस देने की इस आधार पर आलोचना की कि इसमें ‘आयात लाइसेंस प्राप्‍त करने वालों को अप्रत्‍यक्ष रूप से बिना सोचे-विचारे सब्सिडी मिल जाती हैं’।

उन्‍होंने वित्‍तमंत्री देशमुख से मुलाकात कर उन्‍हें कुछ सुझाव दिये. विनिमय दरों में उतार-चढ़ाव होने दें, पूंजीगत अधिशेष या भुगतान संतुलन में न्‍यूनता की वजह से मुद्रास्‍फीति या आंतरिक अप‍स्‍फीति होने दें. लेकिन इस ज्ञापन को भुला दिया गया।

तीन भय

ऐसा लगता है आज़ादी के तुरंत बाद और उसके बाद के वर्षों में तीन डर वित्‍त मंत्रियों का पीछा करते थे और इनका असर भारत की आर्थिक नीतियों पर निर्णायक रूप से पड़ा। ये थे – अनाज की कमी का डर, महंगाई के बेलगाम होने का डर और विदेशी देनदारियों को चुकाने के लिए विदेशी मुद्रा की कमी की समस्‍या। भारत के ज्‍यादातर आर्थिक कानून इन्‍हीं तीन भयों के परिणाम हैं और जब तब भारत का पीछा करते रहे हैं।

1950 और 1960 के दशकों में खाद्यान्‍न की कमी की समस्‍या लगातार देश का पीछा करती रही। यह समस्‍या तभी समाप्‍त हुई जब 1970 के दशक में ‘हरित क्रांति’ नाम एक क्रांति देश में नहीं हो गयी जिससे अनाज का उत्‍पादन बढ़ाने में जबरदस्‍त कामयाबी मिली। हमें अमेरिका से खाद्यान्‍न आयात करना पड़ता था जो इस संबंध में भारत की संवेदनशीलता का प्रत्‍यक्ष या परोक्ष रूप से राजनीतिक फायदा उठाता था। इससे जीवन्‍त और विकासशील अर्थव्‍यवस्‍था वाले नये राष्‍ट्र के रूप में भारत की छवि धूमिल होती थी। अनेक केन्‍द्रीय वित्‍त मंत्रियों ने अपने बजट भाषणों में इस चिंता का लगातार जिक्र किया है।

देश में खाद्यान्‍न की कमी की चिंता शुरू से ही देश का पीछा करती रही। इसका कारण यह था कि बंगाल के अकाल की यादें अभी ताजा थीं। देश को मानसून की वर्षा न होने और अनाज की किल्‍लत का सामना करना पड़ रहा था। विदेशों से खाद्यान्‍न के आयात के लिए मुद्रा की आवश्‍यकता थी। विदेशी मुद्रा का भंडार समाप्‍त होता जा रहा था। अनाज के आयात की बुनियादी जरूरत को पूरा करने के लिए विदेशी मुद्रा को बचाना बेहद ज़रूरी था।

विदेशी मुद्रा की आवश्‍यकता नयी नवेली भारतीय विदेश सेवा के विदेशों में पदों के लिए धन जुटाने के लिए भा थी। बजट में विदेशों में भारतीय दूतावासों और उनमें तैनात लोगों के लिए धन के आबंटन का भी जिक्र किया गया है। यह भी एक मुश्किल काम था क्‍योंकि यह फैसला करना था कि या तो जरूरी चीजों के आयात के लिए पैसा बचाकर रखा जाए या फिर दूतावासों और उच्‍चायोगों को पैसा दिया जाए. दोनों में से किसी एक का चयन करना कोई आसान काम नहीं था। ये कुख्‍यात विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम (फेरा) को लागू करने से पहले का दौर था, हालांकि यह कानून कई दशक बाद अस्तित्‍व में आया।

मुद्रास्‍फीति वर्तमान वित्‍त मंत्री समेत सभी वित्‍त मंत्रियों के लिए चिंता का विषय रही है। अपने पिछले बजट भाषण में श्री अरुण जेटली ने जिंसों की वैश्विक कीमतों के संदर्भ में मूल्‍य स्थिरता को लेकर चिंता व्‍यक्ति की थी। मुद्रा‍स्‍फीति आज केवल घरेलू समस्‍या नहीं रह गयी है, यह अब विश्‍व अर्थव्‍यवस्‍था, तेल की कीमतों, अमेरिकी केन्‍द्रीय बैंक की नीतियों और चीन की औद्योगिक सामग्री की मांग से भी जुड़ गयी है।

जहां तक मौजूदा हालात का सवाल है, भारत में मुद्रास्‍फीति काबू में है। विकास को और बढ़ावा देने के लिए हम इस स्थिति में और भी अधिक उदार मौद्रिक नीति की आशा कर रहे हैं। अपनी मौजूदा मजबूत वित्‍तीय स्थिति को ध्‍यान में रखते हुए हम कुछ और अधिक महत्‍वाकांक्षी भी हो सकते हैं।

हम कितनी लंबी दूरी तय कर चुके हैं! अपने सफर की शुरुआत पर अपने विदेशी मुद्रा भंडार में 499 अरब डालर हाने की बात कोई सोच भी नहीं सकता था। लगातार मुक्‍त होती जा रही अर्थव्‍यवस्‍था के बावजूद चालू खाते का घाटा नाममात्र का है। हमें रिकॉर्ड राशियों वाले प्रत्‍यक्ष विदेशी मुद्रा निवेश प्राप्‍त हो रहे हैं। दुनिया की प्रमुख अर्थव्‍यवस्‍थाओं में से से शानदार विकास दर के साथ आज भारत विश्‍व के निवेशकों की आंख का तारा बना हुआ है। यहां का स्थिर राजनीतिक माहौल अन्‍य देशों के लिए ईर्ष्‍या का विषय हो सकता है और देशवासियों में आशाओं का संचार करता है।

अगर हम टाइम पत्रिका में 1949 में भारत के बारे में लि‍खे लेख को याद करें तो इस स्‍वतंत्रता दिवस पर सचमुच खुशियां मनाने की पक्‍की वजह है, क्‍योंकि आर्थिक मोर्चे पर इतने अच्‍छे हालात पहले कभी नहीं रहे।

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About the Author

 Anjan Roy

Author & senior freelance journalist

The author is a senior freelance journalist based in Delhi. He was with the Economic Times and the Telegraph previously.

Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC NEWS.

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