भारतीय संस्कृति में कला का प्रभाव

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गोपाल प्रसाद*,,

जिस भारतीय संस्कृति ने कभी सम्पूर्ण विश्व में अपना वर्चस्व स्थापित किया था, उस संस्कृति की स्वर्णिम सम्पदा का संरक्षण, प्रसारण तथा प्रचारण आधुनिक युग की महत्वपूर्ण आवश्यकता है. भौतिकवाद के विश्वव्यापी विकास के बाद आज सारी दुनियां को पुनः सांस्कृतिक मूल्यों की आवश्यकता का अनुभव किया जाने लगा है. वैसे भारत में विषम परिस्थितियों से टकराने के बावजूद आज भी संस्कृतिक परम्पराएं  जीवित हैं और उनमें से अनेक भारतीय परम्पराएँ आधुनिक विश्व के लिए आकर्षण का केंद्र बनी हुई है.
      सर्वविदित है कि भागीरथ कठोर तपस्या करके पतितपावनी गंगा को पृथ्वी पर लाये थे. भागीरथ से पूर्व मनके पूर्वज अंशुमान तथा सगर भी प्रयत्न करते रहे थे. इसी प्रकार भरत ने कठोर तप करके गायन, वादन, नर्तन की त्रिवेणी को सार्वजानिक कल्याण के लिए लोक में प्रवाहित किया. कला की इस सुधामय सरिता ने लोकहृदय को आह्लाद और आनंद से लवरेज कर दिया. धर्म, जाति, वर्ग तथा प्रान्त के भेड़ों को भूलकर सारा लोक बरातों की इस भागीरथी में आनंद के महोत्सव मनाने लगा. भरतों ने सरे देश को सच्चे अर्थों में भावात्मक स्तर पर जोड़ा, क्योंकि भरतों की काला के स्रोत भाव और रसों से ही फूटे थे.
       अंग्रेजों ने जिस विचारधारा को जन्म दिया, उसके पीछे उनकी चाल थी. वे दुनिया की सभ्यता को ईशा के जन्म के आस – पास जोड़ना चाहते थे. भारतीय प्राचीन ग्रंथों के सम्बन्ध में तो उनका दृष्टिकोण और भी संकीर्ण था. वे नहीं चाहते थे कि भारतवासियों को गुलाम बना कर, गुलामों कि सभ्यता को अपनी सभ्यता से बेहतर सिद्ध होने दें, इसलिए लार्ड मैकाले ने अपने शिष्य मैक्स मूलर से भारत के संस्कृत ग्रंथों का समय बहुत बाद का घोषित कराया. खास बात यह भी है कि अन्य विद्वानों ने मैक्स मूलर की बात को प्रमाणिक मान लिया.
      आज यह समस्या और भी जटिल हो गयी है क्योंकि आज देश या विदेश में नाट्यशास्त्र की जो भी पांडुलिपियाँ प्राप्त है उनमें 500 वर्ष से अधिक पुरानी कोई पाण्डुलिपि नहीं है. इससे पूर्व की सारी पांडुलिपियाँ जाने कब और कैसे विनष्ट हो चुकी है.
      वेद भारत के प्राचीन एवं महत्वपूर्ण ग्रन्थ होते हुए भी भारत में भावात्मक एकता स्थापित करने का काम नहीं कर सके. वेद द्विजातीय थे. अतः उन्होंने सवर्णों और अवर्णों के बीच एक दीवार खींच दी, दूसरे  वे धर्मग्रन्थ थे. अतः केवल धार्मिक जनता के आराध्य थे, जो धर्म की मर्यादा को सर्वोपरि मानते थे. देश के अनाड़ियों ने वैदिक यज्ञ विधान को कभी स्वीकार नहीं किया. महर्षि पाणिनि ने संस्कृत व्याकरण कि रचना की. वह देश में इतनी लोकप्रिय हुई उत्तर से दक्षिण तथा पूर्व से पश्चिम तक उनकी व्याकरण को स्वीकार किया गया. इसका कोई भी विकल्प विद्वान लोग तब से आज तक नहीं खोज पाए. इस दृष्टि से वेदों कि तुलना में पाणिनि द्वारा रचित संस्कृत व्याकरण का प्रभाव देश को एकसूत्र में बांधने कि दिशा में अधिक सार्थक सिद्ध हुआ, किन्तु व्याकरण का सम्बन्ध भी देश के शिक्षित वर्ग से था. लोग के सामान्य प्राणियों को न संस्कृत से मतलब था और न उसकी व्याकरण के नियमों से. इस दृष्टि से नाट्यशास्त्र का महत्व सर्वोपरि है. उसने वर्ण और वर्ग की दीवारों को तोड़ कर शिक्षित और अशिक्षितों का फासला मिटा कर, एक ऐसी लोकरंजनकारी काला को जन्म दिया, जिसका सम्बन्ध राजा से लेकर प्रजा तक था, आचार्य से लेकर शिष्य तक था, अभिजात्य वर्ग से लेकर अशिक्षित वर्ग तक था. वैदिक परम्परा ने कालांतर में शैव, शाक्त, बौद्ध तथा जैन धर्म को मानने वालों के बीच एक दीवार खरी करके अपने को एक वर्ग विशेष तक सीमित कर दिया, इसी प्रकार अन्य धर्मों तथा मतों के मनाने वालों में भी एक दुसरे के प्रति कभी सहिष्णुता तथा स्नेह नहीं हो सका. वही  नाट्यशास्त्र में शैव, शाक्त, बौद्ध, जैन तथा अन्य मतों को मानने वालों को एक सूत्र में बांध दिया. गायन, वादन, नर्तन के प्रदर्शन के समय सरे मतावलंबी एक साथ बैठ कर इनका आनद लेते थे. और आज भी लेते है.
          भरतों ने भारतीये संस्कृति के रचनात्मक पक्ष को सुदृढ़ करने में असाधारण और अद्वितीय योगदान दिया है. वर्ण व्यवश्ता के कठोर कल में भरतों ने शूद्रों के अधिकार के रक्षा हेतु ”पंचम” वेद कि सृष्टि की. भरतों कि महानता इसमें थी कि भरतों की महानता इसमें थी कि उन्होंने सवर्णों की न निंदा की और न उनके प्रतिकूल कोई आचरण किया. भरतों ने सवर्णों के विरुद्ध एक ललित आन्दोलन छेड़ा. एक नए आधार को ग्रहण कर लोक की चित्तवृति को कलात्मक सौदर्य की ओर आकर्षित किया. उनकी कला  सम्पदा के लालित्यपूर्ण वैभव ने जन – मन के ह्रदय पर सहज ही अधिकार कर लिया और समाज का हर छोटा वर्ग उनकी कला का प्रेमी हो गया . बिना भेद- भाव के समाज के हर वर्ग का प्राणी उनका प्रशंसक बन गया . उस युग की परिस्थितियों में यह कोई छोटा कम नहीं था . भारतों का यह प्रयास इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ है . भारतों का यह उपकार इस देश की संस्कृति पर एक ऋण है, जिसे आज सांस्कृतिक क्षेत्र के लोगों को चुकाना है . भारतों का यह प्रयास आज के आदमी के लिए एक आदर्श प्रेरणा है , जिसके द्वारा देश को भावात्मक सूत्र के द्वारा पुनः जोड़ा जा सकता है.
                                        धर्म और भाषाओँ ने मनुष्य को संकीर्णता के घेरे में बंधकर उसे छोटा किया है. कला ने विभिन्न धर्मों के माननेवालों को एक मंच पर एकत्रित किया है. कला के क्षेत्र में अमजद खां , इलियाज़ खां हिन्दुओं के समारोहों में मुस्कुराते हुए जाते हैं और पंडित जसराज , राम्च्तुर्मल्लिक, पंडित भीमसेन जोशी मुसलमानों के उर्स में सज्जा पेश करने जाते हैं . भावात्मक एकता का इससे बड़ा उदहारण और क्या हो सकता है?
        कला  की लालित्यपूर्ण अभिव्यक्ति की परंपरा भारतीय चित्रकला में भी उतारकर आयी. भारतीय चित्रकला ने तो न केवल नाट्यशास्त्र में वर्णित करणों और अन्गहारों से प्रेरणा ली अपितु शास्त्र में वर्णित अन्य विषयों को भी समाहित किया . राजपूताना शैली की चित्रकला देखें  अथवा  कांगड़ा शैली की , किशनगढ़ शैली को देखें अथवा पहाड़ी शैली की या मुग़ल शैली की, सभी में नायक- नायिकाओं के मनोरम चित्रण किए गए हैं . इनकी पृष्ठभूमि  में सौन्दर्य की किरणें फैलानेवाला ग्रन्थ भारतों का नाट्यशास्त्र ही है.
      भारत की धातु कला पर भी नाट्यशास्त्र का प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाई देता है. धातु निर्मित प्राचीन मूर्तियों में चाहे नटराज शंकर की मूर्ति हो अथवा नृत्य करते गणेश की. रमणियों की मूर्ति हो या किसी अन्य की . उनमें कलात्मक सौन्दर्य की छटा दिखाई देती है . मोहनजोदड़ो की खुदाई से प्राप्त नर्तकी की मूर्ति इस कथन की सत्यता का उदहारण है. आज तक धातु की बनी वस्तुओं पर खुदाई से जो कलात्मक भावपूर्ण आकृतियाँ बनाई जाती है, उनपर प्राचीन मूर्तिकला का प्रभाव है और प्राचीन मूर्तिकला नाट्यशास्त्र से प्रभावित है. मूर्तियों का लयात्मक विन्यास तथा कलात्मक सज- सज्जा हमें उसी परंपरा से जोड़ती है . इस दृष्टि से देखा जय तो भारतों के नाट्यशास्त्र ने सरे देश को काव्य , गायन, वादन, नर्तन, शिल्प के माध्यम से भावात्मक एकता के सूत्र में जोड़ा है. भारतों की कला सृष्टि इतनी सशक्त , सौदार्यशाली और कमनीय थी की देश के प्रत्येक क्षेत्र के साधकों के लिए वह अपरिहार्य बन गयी | लोगों को लगा की जैसे उसके प्रयोग के बिना उनकी कला अपांग और अपूर्ण रह जाएगी . अतः सारे देश ने एक सिरे से दूसरे सिरे तक उसे बिना भेदभाव के ग्रहण किया और देश में एकरूपता का जयघोष किया |
      नवचेतनावादी वर्ग के लोगों की बुद्धि जैसे -जैसे समय के साथ प्रौढ़ होती गयी, उनके अनुभव और दृष्टिकोण में अंतर आने लगा , उन्होंने रस की सत्ता को स्वीकार करना प्रारंभ कर दिया . रस का अर्थ है –  मन को अच्छा लगनेवाला या यों कहें की किसी रचना में निहित उसका सौन्दर्य और उस सौन्दर्य की अभिव्यक्ति की प्रक्रिया . अब पुनः वह समय आ गया जब रस के महत्त्व को लोग मानने लगे हैं. इधर भारतीय पुरातन संस्कृति के प्रति पुनः सारे देश में जागरण की लहर दौड़ चुकी है. लोगों की मानसिकता में बहुत अंतर उत्पन्न हो गया है. अब लोग विदेश की आयातित परम्पराओं से उबकर भारत की पुरातन स्वर्णिम सम्पदा से जुड़ने लगे हैं.
(लेखक सूचना के अधिकार  कार्यकर्त्ता हैं )
गोपाल प्रसाद (RTI ACTIVIST)
मंडावली, दिल्ली – 92

मो० – 9289723144

EMAIL: gopal.eshakti@gmail.com

*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC

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