भारतीय भाषा आंदोलन ने अंग्रेजी के गुलाम बने देश व भारतीय भाषाओं की शर्मनाक स्थिति पर मूक रहने वाले साहित्यकारों को धिक्कारा

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6आई एन वी सी न्यूज़
नई दिल्ली,
31 महीने से अंग्रेजी की गुलामी से देश को मुक्ति दिलाने के लिए संसद की चैखट जंतर मंतर पर ऐतिहासिक आंदोलन कर रहे भारतीय भाषा आंदोलन ने देश व भारतीय भाषाओं की शर्मनाक स्थिति पर मूक रहने वाले साहित्यकारों को धिक्कार लगायी।
23 अक्टूबर को भारतीय भाषा आंदोलन में देश के अग्रणी साहित्यकार व भाषा आंदोलन के पुरोधा डा. बलदेव बंशी की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई बैठक में भारतीय भाषा आंदोलन के महासचिव देवसिंह रावत ने दो टूक शब्दों में कहा कि पूरा देश ही नहीं देश की हिंदी सहित सभी भारतीय भाषायें अंग्रेजों के जाने के बाद विगत 68 साल से अंग्रेजी का गुलाम बनी हुई है। परन्तु क्या मजाल है भारत का एक भी साहित्यकार इस देश के माथे पर लगे कलंक का विरोध करने के लिए सरकारों द्वारा मिले तमाम सम्मान व पद से इस्तीफा देना तो रहा दूर इसके खिलाफ पुरजोर आवाज उठाने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाते है। यही नहीं जो साहित्यकार आज कन्नड़ लेखक एमएम कलबुर्गी की हत्या और बढ़ती साम्प्रदायिक घटनाओं के विरोध में अपने राजनैतिक आकाओं को खुश करने के लिए साहित्य सम्मान वापस करने की नौटंकी कर रहे हैं, उनमें इतनी नैतिकता व देशभक्ति नहीं रही कि वे अपने देश व अपनी भाषा जिसने उनको साहित्यकार बनाया और सम्मान दिलाया उसके माथे पर लगे अंग्रेजी की दासता का कलंक हटाने के लिए संसद की चैखट पर विगत 31 महीने से चल रहे देश को अंग्रेजी की गुलामी से मुक्त करके भारतीय भाषाओं को स्थापित करने के आंदोलन में एक पल के लिए भी सम्मलित होयें। श्री रावत ने याद दिलाया कि साम्प्रदायिक घटनायें पहली बार नहीं हो रही है, इससे पहले भी कई बार यह घटित हो चूके है। इस बार संगठित हो कर जो सम्मान वापसी का नाटक रचा गया वह अपने राजनैतिक आकाओं को खुश करने वाला कदम ही है।
श्री रावत ने कहा कि देश का कोई भी राजनेता, पत्रकार, बुद्धिजीवी, समाजसेवी व साहित्यकार सच्चा देशभक्त होता तो वह एक पल के लिए भी देश में बलात थोपी गयी अंग्रेजी की दासता को सहन नहीं करता। वह उसके खिलाफ चल रहे आंदोलन में सहभागी बनता या अपने स्तर पर संगठित हो कर इसका सबसे पहले विरोध करता। परन्तु दुर्भाग्य यह है कि यहां भारतीय भाषाओं में जिनकी रोजी रोटी चल रही है वे साहित्यकार, पत्रकार व राजनेता ही अंग्रेजी दासता के कहार बन कर अपनी मातृभाषाओं व देश के हितों को रौंद रहे है।
इस अवसर पर अपने दो टूक विचार प्रकट करते हुए देश के 92 वर्षीय वयोवृद्ध साहित्यकार व दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर डा बलदेव बंशी ने कहा कि देश में साहित्यकारों का आज शर्मनाक पतन हो गया है। देश में साहित्य के सर्वोच्च सम्मानों का निर्णय जहां पहले प्रधानमंत्री नेहरू जी की मेज पर होता था अब उन पुरस्कारों का चयन प्रकाशनशाहों की निजी पार्टियों में हो रहा है। वहां देश के वरिष्ठ साहित्याकारों को सम्मान देने के बजाय अपने प्यादों को साहित्य पुरस्कारों से नवाजा जाता है। इसी कारण आज ऐसी शर्मनाक स्थिति देखने को मिलती है। साहित्य संस्थानों को साहित्य को पतन से उबारना चाहिए। भारतीय भाषा आंदोलन के पुरोधा रहे डा बलदेव वंशी ने देश के साहित्यकारों से दो टूक शब्दों से कहा कि राजनेताओं की चरण वंदना करने के बजाय देश में अंग्रेजी भाषा की गुलामी को मुक्त करने के भारतीय भाषा आंदोलन में उनको पूरी तरह से उतरना चाहिए। डा बंशी ने कहा कि जब भारतीय भाषायें दासता से नहीं उबरेंगी तो साहित्यकारों व देश का क्या सम्मान रहेगा। अंग्रेजी गुलामी की दासता में जकडे देश व अपनी भाषा की मुक्ति के लिए आवाज उठा कर देश के जनमानस को जागृत करना साहित्यकारों का प्रथम दायित्व है।
उल्लेखनीय है कि भारतीय भाषा आंदोलन की संसद की चैखट जंतर मंतर पर 21 अप्रैल 2013 को भारतीय भाषा आंदोलन के पुरोधा पुष्पेन्द्र चैहान व महासचिव देवसिंह रावत के नेतृत्व में संघ लोक सेवा आयोग व सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालयों सहित पूरी व्यवस्था से अंग्रेजी की अनिवार्यता हटाते हुए भारतीय भाषायें लागू करने की पुरजोर माग कर रहा है।
23 अक्टूबर को धरने में सम्मलित प्रमुख आंदोलनकारियों में भारतीय भाषा आंदोलन के महासचिव देवसिंह रावत, भाषा आंदोलन के पुरोधा डा बलदेव बंशी, पत्रकार चंद्रवीर सिंह, अनंतकांत मिश्रा, प्रोफेसर सच्चेन्द्र पाण्डे, सुनील कुमार, वयोवृद्ध राष्ट्रवादी चिंतक व यूनीवार्ता के पूर्व समाचार सम्पादक बनारसी सिंह, स्वामी श्रीओम, अभिराज शर्मा, सुनीता चैधरी, वेदानंद, महावीर सिंह, सत्यपाल गुप्ता, लक्ष्मण कुमार, जितेन्द्र सिंह लक्ष्मण सिंह कडाकोटी, श्रीराम मौर्या, अरविन्द मिश्रा, आदि सम्मलित हुए।

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