भारतीयता हिन्दू या मुसलमान?

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images{संजय कुमार आजाद**,,}
         चीनी यात्री ह्वेनसांग 7वीं सदी में हिन्दुस्तान आया, उसने हिन्दुओं के बारे में लिखा-‘हॉंलांकि हिन्दुस्तानी सामान्यतः शांत स्वभाव का है परंतु एक गुण उन्हें अन्यों से अलग रखता है और वह गुण है उसकी सरलता तथा चरित्र की ईमानदारी।’ मुगल आक्रांता अकबर का मंत्री अबुफजल (16वीं सदी) लिखता है-‘हिन्दू सामान्यतः प्रवृति से सहिष्णुता, हंसमुख, न्यायप्रिय, सत्य का पुजारी, कृतज्ञ व ईमानदार होता है।’ भारत के प्रथम गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स (1732-1818) लिखता है-‘हिन्दू अत्यंत ही सरल व परोपकारी होता है। अपने ऊपर किये गये दया, उपकार को स्मरण रख कृतज्ञ रहने वाला तथा अन्यों की अपेक्षा किये गए दुर्व्यहार पर बदले की भावना न रखने वाला तथा सुस्वभावी, निष्ठावान एवं न्यायप्रिय होता है।’

                    उपरोक्त तीन उदाहरण 7वीं सदी से 19वीं सदी तक का हिन्दुओं के बारे में अवधारणा है और तीन उदाहरण इस देश के हिन्दू शासकों के बारे में तमिलनाडू के राजा पोर्कई पाण्डियन अपनी गलती पर अपना दाहिना हाथ काटने की सजा देता है। दूसरे राजा वीर पाण्डया कटृ बोम्मन अपने को कोड़ा मारने की सजा और रानी अहिल्याबाई ने अपने भ्रष्ट पुत्र को मृत्युदंड की सजा दी।

उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि हिन्दू समाज न्याय प्रिय एवं निःस्वार्थ सेवा भाव के कारण ही विश्व का नेतृत्व करने वाला विश्व-गुरु बना था। ना कि इस्लाम और ईसाईयत मत की तरह तलवार के भय से फैला था। जब भी इस हिन्दू भूमि पर हिन्दू या हिन्दुत्व की बात उठती है तो इस देश के तथाकथित सेकुलर और कुछ मुसलमान ‘ईस्लाम खतरे में है’ का स्यापा करना शुरु कर देता है। खास कर उर्दू मीडिया जो राष्ट्रीयता के बजाय ईस्लाम और ईस्लामीयत की ऐसा व्याख्या करता, मानो ईस्लाम बस अब चन्द क्षणों में नेस्तानाबुद हो जाएगा। जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि इन अखबारों और कुछ मुस्लिमों में है क्योंकि जहां-जहां गैर ईस्लामी अल्पसंख्यक हुए, उसे छल-बल, प्रपंच और प्रताड़ना से उसे निगलने का हीं प्रयास किया है। बांग्लादेश, पाकिस्तान, जम्मू-कश्मीर, केरल, पश्चिम बंगाल सहित देश के अनेक भागों में मुसलमानों का कारगुजारियां जगजाहिर है। अभी मध्य प्रदेश के स्कूलों में गीता के कुछ भाग जो चारित्रिक व नैतिक उत्थान हेतु विद्यार्थियों के लिए जरुरी था, को पढ़ाने का प्रयास किया गया। ऐसा हो-हल्ला इन गिराहों ने मचाया कि लगा पूरा मध्य प्रदेश ईस्लाम विहीन हो जाएगा। क्या ईस्लाम इतना कमजोर है कि गीता का एक श्लोक उसे नष्ट कर देगा? मुस्लिम बुद्धिजीवियों व राष्ट्रवादियों को इस ओर ध्यान देना चाहिए। इस देश का मुसलमान प्रगति का साक्षीदार बनेगा या कट्टरवादी बर्दर जाहिल अरब संस्कृति का मोटिया बन उसे ढ़ोता रहेगा। मुसलमानों को विश्व के विशाल मुस्लिम आबादी वाला ‘इंडोनेशिया’ से सीखना चाहिए। वहां भी मुसलमान है पक्के नमाजी हैं, किंतु वे अपने पूर्वजों के प्रति उतना ही समर्पित व संवेदनशील है जितना ईस्लाम के प्रति। फिर भारतीय मुसलमानों में इतनी कट्टरता, जड़ता क्यों? इंडोनेशिया का प्रथम श्रेणी का टेक्नोलॉजी इंस्टीच्यूट आई.टी.वी. है और उस संस्थान का लोगों ‘श्री गणेश’ है। विश्व के सबसे बड़े मुस्लिम राष्ट्र इंडोनेशिया के संसद भवन के ठीक सामने श्रीकृष्ण की आठ घोड़ों को चलाते हुए विहंगम मूर्ति स्थापित है। वहां के नोट पर भी श्रीगणेश और गरुड़ देवता के चित्र बने हैं। जिस तरह अपने यहां राष्ट्रीय चिन्ह् ‘अशोक चक्र’ है, वैसे ही वहां ‘गरुड़’ राष्ट्रीय प्रतिक है। वहां के राष्ट्रीय हवाई सेवा का नाम ‘गरुड़ एयरवेज’ है। वहां के कुछ राष्ट्राध्यक्षों के नाम इस प्रकार है-सुकर्णो, सुकर्णो-पुत्री-मेधावती, वीर हरि मोहम्मद आदि। वहां के विश्वविद्यालयों में मां सरस्वती एवं भगवान श्रीगणेश की मूर्ति मुख्य द्वार पर स्थापित किया गया है। गीता का उद्बोधन ‘चातुर्वर्ण्यम् मया सृष्टम् गुण कर्म विभागशः’ का पूर्ण स्वरूप इंडोनेशिया में दिखता है जहां कर्म से जाति का विभाजन होता है। इंडोनेशिया के बासी गर्व से कहते हैं-‘हमनें अपना पंथ परिवर्तन किया है परंतु अपनी संस्कृति व पूर्वजों को नही बदला।’ अपनी संस्कृति, महापुरुषों व जीवन के आदर्शों पर भारत से ज्यादा इंडोनेशिया के मुस्लिम नागरिक गौरवान्वित महसूस करते हैं। क्या इंडोनेशिया से इस्लाम विलीन हो जायेगा? कदापि नहीं। बल्कि वह और सुदृढ़ होगा। किंतु भारत में आखिर मुसलमानों को अपने पूर्वजों से उनके संस्कार और संस्कृति इतनी दूरी क्यों? आखिर कब भारत के मुसलमान अरबी गिरोहों के चंगुल से आजाद होकर अपने पूर्वजों पर गर्व करना सीखेंगे? ना मुसलमानों का भला जाहिल बर्बर अरब संस्कार कर सकता ना कठमुल्लों की तकरीर से उनका भला हो सकता है ना शरीयत से और ना शरारत से भला होगा। भारत के मुसलमानों को इसी मिट्टी में जीना-मरना और प्रगति करना है जब हमारे पूर्वज एक हैं तो अधिकार भी एक है। जिस ‘गीता के अध्ययन को विश्व स्वीकार कर रहा है विशेषकर जर्मनी, अमेरिका, इंगलैंड, जापान जैसे देश में भारतीय साहित्य संस्कृति को अपने विद्यार्थियों के लिए प्रस्तुत कर रहा है और हम हैं कि शुतुरमुर्ग की तरह रेत में गर्दन गाड़े जा रहे हैं। भगवद्गीता का प्रथम अनुवाद चार्ल्स विलिकन्स ने 1785 में गद्य रूप में किया। 1787 में उसका अनुवाद फ्रांसीसी भाषा में एब्ब परौड, रूसी भाषा में एनआई नोरीकोव 1823 में ऑगस्ट व्हिल्हेम वॉन श्लेगिल ने लैटिन भाषा में गीता का अनुवाद किया। 1827 में व्हिल्हेम वांन ने गीता के बारे में कहा-‘सबसे सुन्दर दुनिया को दिखाने के लिए सबसे गुढ़ व सर्वोच्च ज्ञान इसमें निहित है।’ विचारक हेगले ने कहा कि ‘आत्मा का उच्चता के संदर्भ में भारतीय चिंतन ज्ञान का आवश्क पोषक तत्व ही गीता है।’ भगवद्गीता से प्रेरित जर्मन विद्वान फ्रेडरिक श्लेगल, मैक्समूलर, अंग्रेज विद्वान विलियम ब्लैक या अमेरिका विद्वान राल्फ वाल्डो एमर्सन या टीएस इलिओत सबने ‘गीता’ के वर्चस्व को स्वीकारा। ये विद्वान तलवार के बल पर नहीं भाव और भावना के बल पर गीता को आत्मसात किया। कुप मण्डुकता का पर्याय बने 21 वीं सदी के तथाकथित सेकुलर और उनके राहानुरागी मुस्लिमों को बाहर आकर सीखना चाहिए कि अच्छाई क्या और बुराई क्या है ? भारत के मुसलमानों को तो गर्व होना चाहिए कि उनके पूर्वज हिन्दू ही हैं। उनके संस्कार और संस्कृति भी हिन्दू ही है। सिर्फ उपासना पद्धति इस्लामी है। इस्लामी संस्कार और संस्कृति अरबी संस्कृति है जिसे कोई भी स्वाभिमानी मुस्लिम उसका गुलाम नहीं हो सकता है। जिस भारत भूमि पर 33 करोड़ देवी देवता मानने वाले और अनेकानेक प्रकार के उपासना पद्धति मानने वाले हैं किंतु उनका पूर्वज एक है। यही भारत के मुसलमानों को भी समझना चाहिए। किंतु वोट के सौदागर और ईमान और दीन के नाम पर बरगलाने वाले मुल्ला-मौलवियों का फौज उन्हें बाहर निकलने नहीं देना चाहता है। जानता है कि बदलाव की एक चिंगारी उन विचौलियों के दूकान को बंद करा देगा। किंतु मुस्लिम समुदाय को ही यह बदलाव कर उन्हें भारतीय बनना होगा। भारतीय मुसलमान बनना होगा ना कि अरबी मुसलमान, जिसे सिर्फ और सिर्फ अरब की सर्वोपरिता हीं दिखता है। उससे आगे बढ़कर इस्लामी दीन को इंडोनेशिया के निवासियों के जैसे अपना कर आगे बढ़ना चाहिए। भारतीय मुसलमानों का राष्ट्रीय पहचान ‘हिन्दू’ है। इसे नकारा नहीं जा सकता है क्योंकि बार्हस्पत्य शास्त्र के अनुसार-‘हिमालय समारम्भ यावदिहु सरोवरम्। तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्तानं प्रचक्षते।’ अर्थात हिमालय से इन्दू सरोवर (हिन्द महासागर) तक देव निर्मित इस देश को हिन्दुस्तान कहा जाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी हिन्दुत्व को ‘रिलीजन’ नहीं एक जीवन पद्धति माना है। विख्यात दार्शनिक एवं पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एस. राधाकृष्णन लिखते हैं-ष्भ्पदकनेउ पे दवज ं तमसपहपवदण् प्ज पे बवउउवद ूमंसजी व िउंदल तमसपहपवदण्ष् अर्थात् हिन्दुत्व एक संघ है, हिन्दू सम्प्रदाय नहीं संस्कृति है। फिर भारत भूमि पर निवास करने वाले मुसलमान अपने आपको ‘हिन्दु’ विशेषण से क्यों डरते हैं। हिन्दू दृष्टि चिंतनपरक, अनेकांत और अर्न्तमुखी है। यह   बोधि प्रवण जो श्रद्धा के रूप में हृदय की गहराईयों में प्रतिष्ठित है और उस श्रद्धा का अर्थ है आत्मा और जगत की अनभिव्यक्त संभावनाओं के प्रति असीम आस्था। हिन्दुत्व बुद्धि को प्रश्न पूछने अन्वेषण करने, कल्पना करने, नये विचार, नयी टीकायें लिखने का तदनुरूप सदैव नये विद्वानों, चिंतकों, उपदेशकों के आविर्भाव का मार्ग खुला रखता है। फिर मुसलमानों को क्या उपरोक्त विषय-विन्दू नहीं चाहिए। विश्व आज कुप मण्डुकता में तैरने वाले मेंढ़कों की इंसान विरोधी नीतियों से त्रस्त है। सिर्फ मैं ही श्रेष्ठ हूं, मैं ही रहूं यह मत या पंथ किसी भी समाज या राष्ट्र के लिए उसके मानने वाले लोगों के लिए ही घातक और बाधक है। हिन्दू विशेषण वसुधैव कुटुम्बकम् पर आधारित है जो सभी मतों को चलने मानने वालों का संघ ही तो है। भारतीय मुसलमानों को भी राष्ट्रहित को ध्यान में रखकर अपने पूर्वजों के स्वाभिमान को आत्मसात कर प्रगतिशील भारतीय बनकर भारत का नाम रौशन करे ना कि जाहिल, बर्बर और अंध युगीन अरब संस्कार और संस्कृति की गुलामी का लावादा ओढ़कर दाकियानुसी और बर्बर मुसलमान बनें। इस देश के कई अखबारों को भी इन मुसलमानों को बरगलाने के बजाए उन्हें सही रास्ता बताने का साहसिक कार्य कर उनमें राष्ट्रीयता हिन्दुत्व है का संचार कराना चाहिए जो कि जीवन पद्धति है ना कि इस शब्द को फिरकापरस्त बताकर देश की मुख्यधारा से मुसलमानों को काटने का राष्ट्रद्रोही कार्य करना चाहिए।
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sanjay-kumar-azad*संजय कुमार आजाद
पता : शीतल अपार्टमेंट,
निवारणपुर
रांची 834002
मो- 09431162589
** लेखक- संजय कुमार आजाद, प्रदेश प्रमुख विश्व संवाद केन्द्र झारखंड एवं बिरसा हुंकार हिन्दी पाक्षिक के संपादक हैं।
*लेखक स्वतंत्र पत्रकार है *लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं और आई.एन.वी.सी  का इससे सहमत होना आवश्यक नहीं।

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