**भट्टराई का भारत प्रेम कितना-असली-कितना नकली

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*विष्णुगप्त

नेपाल के माओवादी प्रधानमंत्री बाबू राम भट्टराई और पूर्व प्रधानमंत्री प्रंचड दोनों कट्ट माओवादी हैं और ये उस सिद्धांत के हठधर्मी हैं जिसमें निर्विवाद तौर पर माना गया है कि सत्ता बंदूक की गोली से निकलती है-मिलती है। तीन दशक अधिक समय तक बाबू राम भट्टरई और प्रंचड ने सशस्त्र अभियान चलाया। तानाशाही के ख्वाब इनके पूरे तो नहीं हुए पर दूसरी बार माओवादियों की सरकार नेपाल में जरूर बन गयी है। उम्मीद यह बनी है कि माओवादी अब लोकतांत्रिक सिद्धांत का पालन करेेंगे और अतिरिक्त भारत विरोध की कूटनीति-अभियान से बचेंगे? माओवादी प्रधानमंत्री भट्टरई का भारत दौरा नेपाल की शांति प्रक्रिया को किस तरह शक्ति प्रदान करेगी? इसकी पड़ताड़ की जरूरत कैसे नहीं है?
भारतीय कूटनीतिक संवर्ग नेपाल के माओवादी प्रधानमंत्री बाबू राम भट्टराई के दौरे से कितना चमत्कृत है,यह जानना मुश्किल है। जहां तक राजनीतिक-मीडिया संवर्ग की बात है तो ये दोनों सवंर्ग बाबू राम भट्टराई के भारत दौरे और उनके द्वारा व्यक्त किये गये दोस्ती के शव्दों को लेकर चमत्कृत जरूर है। इसका कारण यह है कि पूर्व माओ प्रधामनंत्री प्रचंड जहां अंध चीनी स्वामिभक्ति से लबालब होकर भारत को कोसने की कोई कसर नहीं छोड़ते थे और नेपाल की हर राजनीतिक घटना के साथ ही साथ माओवादी तानाशाही की विफलता को भारत के मथे मढ़ने का काम करते थे। प्रंचड और भट्टराई में फर्क जरूर है। यह फर्क असली भी हो सकता है और नकली भी हो सकता है। माओवादी कूटनीति का एक छुपा हुआ एजेंडा भी हो सकता है। यह छुपा हुआ एजेंडा भारत को भ्रम में रख अधिक आर्थिक सहायता हासिल करने के साथ ही साथ लगभग 20 हजार से अधिक माओवादी सशस्त्र कैडरों को सेना में शामिल कराने के रास्ते तैयार करने का हो सकता है। अगर माओवादी अपने 20 हजार सशस्त्र कैडरों को नेपाल की सेना में शामिल कराने में कामयाब हो गये तो निश्चित मानिये कि नेपाल में माओवादी तानाशाही के आने से रोकना मुश्किल होगा। पड़ोस में एक और तानाशाही हमारे लिए कोई सहज स्थिति भी नहीं हो सकती है क्योंकि माओवाद का पूरा संवर्ग भारत विरोधी है और चीन के इसारे पर नाचता है। भारत ने अरबों डालर का आर्थिक सहायता देकर बड़े भाई का फर्ज निभाया है। अब माओवादियों का भारत विरोधी रूख का दशा-दिशा क्या होगा, यह देखना शेष है। भारत की कूटनीतिक एक्सरसाइज की स्थितियां इस ओर होनी चाहिए कि नेपाल का संविधान लोकतांत्रिक हो और इसमें तानाशाही की अंश मात्र भी आशंका न हो। नेपाल की माओवादी विरोधी राजनीतिक धारा को संतुष्ट रखना सर्वोपरि है।
माओवादी प्रधानमंत्री बाबू राव भट्टराई द्वारा भारत दौरे में व्यक्त किये गये शव्दो का अर्थ कई आशंकाओं को जन्म देता है। भट्टराई से जब दिल्ली में पूछा गया कि नेपाल में भारत विरोधी भावनाएं भड़काने और भारत विरोधी हथकंडे को रोकने की उनकी नीति क्या होगी? इस सवाल का जबाव बड़ी कूटिलता के साथ उन्होंने दिया। भट्टराई ने यह नहीं कहा कि नेपाल की घरती पर भारत विरोधी भावनाएं भड़काने और भारत विरेाधी साजिशें नहीं होने देंगे? उनका जवाब था कि नेपाल अपनी धरती का उपयोग पड़ोसी देशों के खिलाफ नहीं होने देना चाहेगा। भारत का नाम न लेकर पड़ोसी शव्द का अभिप्राया क्या हो सकता है। एक अर्थ तो यह है कि नेपाल भारत को कोई विशेष तरजीह देने या फिर पुरानी दोस्ती की मिठास के प्रति गंभीर नहीं है। दूसरा अर्थ चीन को खुश रखने का हो सकता है। भारत जहां नेपाल में आईएसआई की सक्रियता को लेकर चिंतित है। जबकि नेपाली माओवादियों द्वारा भारतीय कंपनियों पर हो रहे हमले भी चिंता का एक अन्य विषय है। तिब्बत आंदोलनकारियों का एक बड़ा समूह अभी भी नेपाल में है। माओवादियों की सक्रियता से तिब्बत आंदोलनकारियों की गतिविधियां बेहद प्रभावित हुई है। तिब्बत आंदोलनकारियों के दफ्तर तक बंद करा दिये गये हैं। ऐसा प्रंचड के शासनकाल में हुआ था। चीन यह नहीं चाहता कि नेपाल में तिब्बत शरणार्थियों की अतरिक्त सक्रियता सुनिश्चित ने हो क्योंकि ऐसा होने पर चीन की अंतर्राष्टीय छवि खराब होती है। जाहिरतौर पर भट्टराई ने पड़ोसी शव्द का प्रयोग कर चीन को आश्वास्त करने की कोशिश की है कि वह अपने देश में चीन विरोधी तिब्बत आंदोलनकारियों की सक्रियता बंधित करेंगे और भारत को हम अपना सर्वश्रेष्ठ पड़ोसी नहीं मानते हैं?
आशंकित करने वाला दूसरा शव्द लोकतंत्र-संविधान के स्वरूप को लेकर है। भट्टराई ने भारत दौरे में कई बार जोर देकर कहा कि नेपाल का संविधान पश्चिमी देशों के संविधान पर आधारित कदापि नहीं होगा। भट्टराई ने यह भी नहीं कहा कि नेपाल के संविधान पर भारत का छाप होगा। दुनिया में लोकतांत्रिक संविधान और लोकतंत्र में भारत का लोकतंत्र सर्वोपरि है। भारत के बाद अमेरिका-यूरोप का संविधान-लोकतंत्र की ख्याति है। भारत और पश्चिमी देशों की लोकतांत्रिक पद्धति से अलग दुनिया में कौन से देश में कौन सा संविधान है जिसे हम सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र की संज्ञा दे सकते हैं। दुनिया में अभी तक लोकतांत्रिक व्यवस्था ही जनभावनाओं के करीब रही है और उन्हीं देशों ने तरक्की के रास्ते तय किये जिनकी शासन व्यवस्था लोकतांत्रिक थी। दुनिया में कम्युनिस्ट तानाशाही और मजहबी तानाशाही ने किस प्रकार से अपनी जनता का शोषण किया है और उन्हें आर्थिक तरक्की का मोहताज बनाया है यह भी जगजाहिर है। चीन में कम्युनिस्ट तानाशाही के जनक माओत्स तुग ने अपने ही दो करोड़ नागरिकों को भूख से मौत के आगोश में भेज दिया था। चीन आज माओत्स तुंग की नीति से हट गया है। चीन की तरक्की तो जरूर हुई है पर चीन में मजदूरों का शोषण दुनिया में कुख्यात है। मजदूरों के शोषण के बल पर ही दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियां चीन में अपनी तकदीर बना रही हैं। भट्टराई को कौन सा संविधान और लोकतंत्र आकृष्ट करता है?
संविधान निर्माण के रास्ते अभी सुगम हो गये हैं, ऐसा कुछ नहीं है। यह सही है कि काफी तकरार के बाद माओवादियों की दूसरी सरकार जरूर बन गयी है। अब संविधान तैयार करने के लिए सर्वानुमति बनाने की जिम्मेदारी बाबूराम भट्टराई के उपर ही है। माओवादी हमेशा कहते रहें हैं कि उन्हें प्रधानमंत्री की सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली नहीं चाहिए। उन्हें सर्वदलिये लोकतंत्र भी नहीं चाहिए। राष्टपति प्रणाली माओवादियों की मांग है जिसके अंदर सत्ता की सर्वश्रेष्ठता भी सुनिश्चिम होनी चाहिए। माओवादी इस प्रसंग में अलग-थलग है। माओवादियों के साथ सत्ता में शामिल मधेशी दल को भी प्रधानमंत्री की वर्चस्ववाली शासन प्रणाली चाहिए। माओवादी विरोधी राजनीतिक धारा किसी भी स्थिति में संविधान में तानाशाही के अंश को शामिल करने के लिए तैयार नहीं है। इस गतिरोध का निपटारा कैसे होगा?
प्रंचड की विफलता और चीन की अंधभक्ति से माओवादियों को सबक मिला है? ऐसा माना जा सकता है। प्रचंड ने भारत विराधी पैंतरेबाजी दिखाने और चीन को खुश करने की कोई कसर नहीं छोड़ी थी। प्रंचड को यह खुशफहमी होगी कि भारत के खिलाफ कर नेपाली जनता की गोलबंदी कर तानाशाही कायम कर लेंगे। चीन से भी उसे सशस्त्र सहयोग की खुशफहमी थी। सशस्त्र अभियान चलाना और सरकार चलाना दोनों अलग-अलग क्रियाएं हैं। शांतिकाल की चुनौतियां कठिन होती हैं। 20 हजार से अधिक सशस़्त माओवादियों को सेना में शामिल कराने की प्रचंड पैंतरेबाजी को भी नेपाल की सेना ने ध्वस्त कर दिया था। प्रचंड की चीन अंधभक्ति माओवाद की कब्र खोद रही थी। माओवादी यह समझ चुके हैं कि सीधेतौर पर तानाशाही की बात कर या फिर चीन की अंधभक्ति दिखा कर नेपाल की सत्ता पर एकमेव तरीके से कब्जा नहीं जमाया जा सकता है। नेपाली जनता भी अब माओवादियों की हिंसा और अस्थिरता से तंग आ चुकी हैं। नेपाल की राजनीतिक धारा पर भारत की पकड़ को भी माओवादी स्वीकार कर चुके हैं। माओवादियों को भी अब ज्ञान हो गया है कि अति भारत विरोध से नुकसान ही होगा। इसीलिए माओवादी अपने खुले एजेंडे में बदलाव के लिए बाध्य हुए हैं।
नेपाली कूटनीति में भारत की चुनौतियां क्या हो सकती है। पहली बात तो यह कि भारत के कूटनीतिक संवर्ग को बाबू राम भट्टराई की चिकनी-चुबडी बातों में आने की जरूरत नहीं है। खासकर 20 हजार सशस्त्र माओवादी लड़ाकुओं पर ध्यान केन्द्रित करना होगा। माओवादी भट्टराई अपने सशस़्त्र कैडरों को सेना में भर्ती कराने के लिए दबाव डालेंगे। यह तय है। अगर सशस्त्र माओवादी कैडर सेना में शामिल कर लिये गये तो निश्चित मानिये कि नेपाल में माओवादियों की तानाशाही कायम हो ही जायेगी? माओवादी विराधी राजनीतिक धारा चीन के खतरनाक मंसूबो की समझती है। भारत को माओवादी विरोधी राजनीतिक धारा को भी संतुष्ट रखने की जरूरी है। नेपाल में सर्वानुमति से लोकतांत्रिक संविधान बन कर तैयार हो और राजनीतिक अस्थिरता के दौर समाप्त होनी चाहिए। नेपाल में लोकतंत्र की स्थापना की राह तैयार करना भारत का कर्तव्य है। लोकतांत्रिक नेपाल ही भारत के लिए हितकारी होगा।

**विष्णुगुप्त का परिचय समाजवादी और झारखंड आंदोलन सक्रिय भूमिका रही है। मूल रूप से समाजवादी चिंतक हैं। पिछले 25 सालों से हिन्दी पत्रकारिता के योद्धा हैं। ‘झारखंड जागरण‘ रांची, ‘स्टेट टाइम्स‘ जम्मू और न्यूज एजेंसी एनटीआई के संपादक रह चुके है। वर्तमान में वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार है। संपर्क नम्बर – 09968997060 *Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC

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