– अरुण तिवारी –
न सभी परम्परायें बुरी हैं और सभी आधुनिकतायें। कई परम्परायें हैं, जो बालिकाओं के साथ होने वाली यौन हिंसा पर लगाम लाने का कारगर माध्यम मालूम होती हैं। अवध क्षेत्र के कई जि़लों में परंपरा है कि बेटी व बहन से क्रमशः पिता व भाई चरण स्पर्श नहीं करायेंगे। पिता व भाई कितने भी उम्रदराज हो, वे ही बेटी व बहन के चरण स्पर्श करेंगे। बेटी व बहन कोे गलती से भी चरण लग जाये, तो उसके चरण स्पर्श करके क्रमशः पिता व भाई गलती की माफी मांगेंगे। किसी महत्वपूर्ण कार्य के लिए प्रस्थान से पूर्व मां ही नहीं, छोटी से छोटी कन्या के चरण स्पर्श कर आशीष लेंगे। बेटी, पोती, नातिन, भतीजी से लेकर भानजी तक…. सभी अविवाहित कन्या संबंधियों से इसी व्यवहार की परम्परा है। बेटी तथा अपने से उम्र में छोटी बहन से अपनी किसी भी तरह की शारीरिक सेवा कराना, पिता व भाई के लिए निषेध है।
इसी तरह बेटी द्वारा कमाये धन का अपने लिए उपयोग, पिता हेतु निषेध है। बेटी के पिता, बेटी के ससुराल पक्ष का धन अथवा भोजन लेना तो दूर, पानी तक नहीं पीयेंगे। बेटी के ससुराल से आया कोई भी उपहार-भोज्य पदार्थ आदि माता-पिता के लिए निषेध है। यदि वे इसका उपयोग करेंगे, तो उसकी एवज में उतनी धनराशि, बेटी को देंगे। यहां तक कि विवाह आदि मौके पर बेटी पक्ष से आया न्योता भी कुछ रुपया जोडकर लौटाने की परम्परा है।
बेटी किसी भी जाति या धर्म की हो, वह समूचे गांव की बेटी होगी। यह समभाव भारत के कई इलाकों की परंपरा में रहा है। अवध में परंपरा है कि गांव की किसी भी बेटी के ससुराल में, उसके मायके का प्रत्येक पितातुल्य व्यक्ति उक्त न्यूनतम मर्यादाओं का निर्वाह अवश्य करेगा अर्थात भोजन-पानी नहीं ग्रहण करेेगा; यही परम्परा है। कई इलाकोें के ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य परिवारों में बेटी और बहू से खेत में काम कराने पर मनाही है।
अवध क्षेत्र में बङे भाई की पत्नी को भौजी कहते हैं और छोटे भाई की पत्नी को भयहो। आपात् स्थिति छोङकर, शेष हर परिस्थिति में भयहो और जेठ का एक-दूसरे को स्पर्श पूरी सख्ती के साथ वर्जित है। ऐसा करने पर प्रायश्चित का प्रावधान है। परम्पराओं में तो मां और पत्नी को छोङकर, किसी भी नारी से एकांत में मिलने पर मनाही है। देश के कई इलाकों में आज भी बेटी के लिए वर नहीं, वर के लिए वधू ढूंढी जाती है।
विश्लेषण कीजिए कि क्या इन परंपराओं की पालना करने पर यौन हिंसा अथवा बालिकाओं पर शारीरिक अत्याचार की सामान्य स्थिति में कहीं कोई गुंजाइश बचती है ? आधुनिकता की चमक ने इन परम्पराओं पर धूल भले ही डाल दी हो, किंतु गंवार और अनपढ़ कहे जाने वाले हजार, लाख नहीं, कई करोङ गंवई लोग आज भी बालिका सुरक्षा और सम्मान की ऐसी कई परंपराओं का पालन करते मिल जाते हैं। बालिका सशक्तिकरण के नये नारे और नई पढ़ाई के जोश में हमने ऐसी कई अच्छी पुरानी परम्परायें भुला दी हैं। शुक्र है कि ऐसी कई अच्छी परम्पराओं का जिक्र कई गंवई इलाकों में आज भी सुनाई दे जाता है। आइये इन्हे ध्यान से सुने और फिर अपने जीवन में गुने। बालिका सशक्तिकरण चाहने वालों को ग्राम गुरु का यही संदेश है।
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अरुण तिवारी
लेखक ,वरिष्ट पत्रकार व् सामजिक कार्यकर्ता
1989 में बतौर प्रशिक्षु पत्रकार दिल्ली प्रेस प्रकाशन में नौकरी के बाद चौथी दुनिया साप्ताहिक, दैनिक जागरण- दिल्ली, समय सूत्रधार पाक्षिक में क्रमशः उपसंपादक, वरिष्ठ उपसंपादक कार्य। जनसत्ता, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, अमर उजाला, नई दुनिया, सहारा समय, चौथी दुनिया, समय सूत्रधार, कुरुक्षेत्र और माया के अतिरिक्त कई सामाजिक पत्रिकाओं में रिपोर्ट लेख, फीचर आदि प्रकाशित।
1986 से आकाशवाणी, दिल्ली के युववाणी कार्यक्रम से स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता की शुरुआत। नाटक कलाकार के रूप में मान्य। 1988 से 1995 तक आकाशवाणी के विदेश प्रसारण प्रभाग, विविध भारती एवं राष्ट्रीय प्रसारण सेवा से बतौर हिंदी उद्घोषक एवं प्रस्तोता जुड़ाव।
इस दौरान मनभावन, महफिल, इधर-उधर, विविधा, इस सप्ताह, भारतवाणी, भारत दर्शन तथा कई अन्य महत्वपूर्ण ओ बी व फीचर कार्यक्रमों की प्रस्तुति। श्रोता अनुसंधान एकांश हेतु रिकार्डिंग पर आधारित सर्वेक्षण। कालांतर में राष्ट्रीय वार्ता, सामयिकी, उद्योग पत्रिका के अलावा निजी निर्माता द्वारा निर्मित अग्निलहरी जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के जरिए समय-समय पर आकाशवाणी से जुड़ाव।
1991 से 1992 दूरदर्शन, दिल्ली के समाचार प्रसारण प्रभाग में अस्थायी तौर संपादकीय सहायक कार्य। कई महत्वपूर्ण वृतचित्रों हेतु शोध एवं आलेख। 1993 से निजी निर्माताओं व चैनलों हेतु 500 से अधिक कार्यक्रमों में निर्माण/ निर्देशन/ शोध/ आलेख/ संवाद/ रिपोर्टिंग अथवा स्वर। परशेप्शन, यूथ पल्स, एचिवर्स, एक दुनी दो, जन गण मन, यह हुई न बात, स्वयंसिद्धा, परिवर्तन, एक कहानी पत्ता बोले तथा झूठा सच जैसे कई श्रृंखलाबद्ध कार्यक्रम। साक्षरता, महिला सबलता, ग्रामीण विकास, पानी, पर्यावरण, बागवानी, आदिवासी संस्कृति एवं विकास विषय आधारित फिल्मों के अलावा कई राजनैतिक अभियानों हेतु सघन लेखन। 1998 से मीडियामैन सर्विसेज नामक निजी प्रोडक्शन हाउस की स्थापना कर विविध कार्य।
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