बरतुहार ( अगुवा या बिचवान )

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ll1{ आलोक कुमार }
आइए इस भागम-भाग और तनाव भरी जिंदगी में लीक से हटकर कुछ पुरानी परम्पराओं की यादों को भी सँजोया जाए ….अभी भी ‘रिवाईण्ड’ हो जाती है जाड़ों की वो खूबसूरत दोपहर …..धूप की ओर पीठ  करके बैठा था और चेहरे पर थोड़ी धूप आ रही थी , पूरे शरीर को दोहर ( एक तरह का चादर) से लपेट रखा था , घर के आँगन में दादी सूप में लेकर‘बसमतिया (बासमती) चूड़ा’ फटक रही थीं , उनके सूप फटकने की  एक अलग ही लय थी जोसालों-साल नहीं बदली  थी , ये लय मुझे हमेशा से बहुत मोहित करती थी  । दादी  के चेहरे पर बहुत सी झुर्रियां थीं, पर इन सारी झुर्रियों में भी उनका चेहरा फूल की तरह खिला और खूबसूरत ही दिखता था । वो कहते हैं ना कि “बुढ़ापे में आपका चेहरा आपकी जिंदगी का आईना होता है l”  उनके चेहरे से पता चलता था कि उन्होंने एक निश्छल और सुखी जीवन जिया था। आँखों के पास की झुर्रियां उनकी हंसी को और कोमल कर देती थी l मेरा कौतुहल कुँलाचे मार रहा था आखिर बात क्या है ? जरूर कुछ खास होने वाला है आज …! पता चला आज शाम कुछ बरतुहार आने वाले हैं छोटे चाचा ललन बाबु ‘डॉक्टर साहेब’ के लिए , घर में बहुत दिनों के बाद शादी के प्रायोजन की शुरुआत  है इसलिए सब उल्लासित और उत्साहित हैं l दादी खुद से खेत का उगा खुशबू वाला चूड़ा फटक रहीं , उनको मेरी माँ और बाकी चाचियों पर भरोसा नहीं था। दादी दोपहर होते ही शुरू हो गयी थीं , उनकी लयबद्ध उँगलियों की थाप मुझे लोरी सी लग रही थी। तुलसी – चौरा की पुताई भी कल ही हुयी थी , गेरुआ रंग एकदम टहक रहा था धूप में। तुलसी जी भी मुस्कुराती सी लग रही थीं , हनुमान जी ध्वजा के ऊपर ड्यूटी पर थे , मानो बरतुहार आते ही इत्तला देंगे जल्दी से।

अर्से से यह चलन जोरों पर था कि नौकरी वाले लड़के से ही बेटी की शादी  करनी चाहिए और इसके लिए काफी मेहनत की जाती थी। जहाँ कहीं भी एक भी लड़का  रहता उस पर बरतुहार टूट पड़ते जिसकी वजह से नौकरी करने वालों के दहेज की  मांग सर्वाधिक या यूं कहें की मुँह-मांगी रहती थी l मुझे बिलकुल याद है , गाँव के किसी लड़के के यहाँ कोई बरतुहार  आया तो सभी बुजुर्ग लड़के के  दरवाजे पर पहुँच कर लड़के के पिता जी या बड़े भाई को समझा बुझा कर ‘फैसला’ हमेशा से ‘लड़की’ वाले के ही फेवर में ही देते थे और उस फैसले को ‘लड़का वाला’ मानने को विवश होता था l बरतुहार अक्सर दोनो पक्षों के परिचित हुआ करते थे l एक अलग रुआब और ठसक होती थी बरतुहारों की , उनका कार्यक्रम कुछदिनों का होता था,  आए और लंगर डाल दिया, आए हैं तो कुछ कर के ही जाएँगे l ‘सी.बी.आई.’ वालों से भी ज्यादा पैनी निगाहें होती थीं उनकी , आपकी आमदनी का ब्योरा जानने का उनका हुनर अनोखा और अनूठा था  ‘इनकम-टैक्स’ वाले भी फ़ेल l लड़के वाले के सही ‘स्टेटस’ के मूल्यांकन का ठोका-बजाया फॉर्मूला होता था उनका , ‘विजीलेंस (निगरानी) विभाग’ की उत्पत्ति इन से ही प्रेरित हो कर  हुई हो शायद !! काफ़ी ‘स्पेशलाईजड –फ़ील्ड’ था बरतुहारी और कुछ धुरंधर बरतुहारों की माँग  ‘इन्फ़ोसिस के शेयरों’  की भाँति होती थी l

अब ऐसा नहीं है , शादी और लेन – देन बंद कमरे में होने लगे हैं l आज के दौर में ना तो वो उल्लास , ना कौतुहल अपितु एक रहस्मयी ‘सीक्रेसी’  व्याप्त हो गयी है l बरतुहार ‘एक विलुप्त प्रजाति’  होते जा रहे हैं ,  कुछ बचे भी हैं तो शक और संदेह के घेरे में !!

आज तो है  ” शादी डॉट-कॉम” का जमाना…

ना “बरतुहार “.. ना उनका आना…
ना मान-मुनव्वल ना खींचा-ताना…
याद आ गया ” वो गुजरा जमाना “
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परिचय – :
आलोक कुमार ,
(वरिष्ठ पत्रकार व विश्लेषक )

बिहार की राजधानी पटना के मूल निवासी। पटना विश्वविद्यालय से स्नातक (राजनीति-शास्त्र), दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नाकोत्तर (लोक-प्रशासन)l लेखन व पत्रकारिता में बीस वर्षों से अधिक का अनुभव। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सायबर मीडिया का वृहत अनुभव। वर्तमान में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के परामर्शदात्री व संपादकीय मंडल से सम्बद्ध

*Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely his  own and do not necessarily reflect the views of INVC.

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