प्रशांत विप्लवी की पांच कविताएँ

13
29

 

प्रशांत विप्लवी की पांच कविताएँ

1.बुरबक लड़का

जब मेरे हमउम्र दोस्त
लिख रहे थे प्रेम पत्र
मैं सड़क पर था
स्थानीय आन्दोलन में
और दीवारों को पोत रहा था
अपने विद्रोही नारों से
जब भी आक्रोश में डूब जाती सड़के
उनकी प्रेयसी
पोछ लेती थी अपना श्रृंगार हमारे पक्ष में खड़े होने के लिए
मेरे हमउम्र दोस्त
मायूस लौट जाते थे अपना घर
उनकी प्रेयसी ने
देश और समाज को ऊपर रखा था अपने प्रेम-क्रम में
मैं प्रेम को महसूस करता हूँ हर क्रांति में
जो बेशक बाद में पिघलकर तीसरे दर्जे तक पहुँच जाता है
तीसरे दर्जे पर खड़े लोग
मेरे हमउम्र दोस्तों से अलग नहीं हैं बिल्कुल भी
बस उनका दोगलापन उन्हें क्रान्ति दूत बनाए रखता है
इस तरह हर क्रांति में झोंकी गई स्त्रीयां
तीसरे दर्जों तक पहुंचकर अपना प्रेम खो देती है
और क्रांति स्थगित रहता है हाशिये पर
तीसरे दर्जे के लोग फिर ढूंढ लाते हैं कोई स्थानीय मुद्दा
और कोई मेरे जैसा दीवारों को पोतने वाला बुरबक लड़का

 

========================


2. खुरदरे जीभ

मैं देखता हूँ एक लम्बी कतार
खुरदरे जीभ का
जो अनवरत खाली बर्तनों में
अन्न ढूंढते – ढूंढते
बना देते हैं एक गहरा सुराग
और हम सोचते हैं
गरीब संभाल के रखते हैं टूटे बर्तन ..
मैं देखता हूँ एक गहरा सन्नाटा
जिजीविषा भरी आँखों में
जो हर बार यकींन करना चाहता है
हमारी झूठी बातों पर
और देखता रहता है निष्पलक
और हम सोचते हैं ..
निरा ढीठ है ..आँखों में झांकता है हमारे
मैं देखता हूँ “एक बड़ी फौज” नंगों की
मैं सुनता हूँ एक समवेत क्रंदन
मैं महसूसता हूँ …बढे आ रहे हैं ये लोग ..
फिर अचानक थम जाती है पदचापों की आवाज़
लौटने लगे हैं ये लोग …
भूख का डर इनके आक्रोश से ज्यादा है अब
चाटने लगे हैं जमींन
अनंत गहराई तक
इनके खुरदरे जीभ
खोद देंगे कई-कई इमारतों की नीव
लम्बी-लम्बी सड़कों की परत
तंग साँसों के गुफाओं से ढूंढ लायेंगे काला हीरा
फिर भी इनका खुरदरा जीभ
ढूंढ नहीं पाता पर्याप्त अन्न का दाना ..
मैं देखता हूँ एक लम्बा इतिहास ..
एक महान देश का
मैं देख रहा हूँ वर्तमान …
एक महान देश का
मैं नहीं देखना चाहता …
किसी महानता जैसी बेमानी उपमाओं से मंडित कोई देश
मैं देखना चाहता हूँ ..जीभ को स्वाद के लिए श्रम में लाया गया है
जीभ का खुरदरा होना ..इस महान देश के लिए सबसे बड़ी शर्म की बात है

=============

3.पुरानी पास-बुक


वो बैंक की कोई पुरानी पास-बुक थी
आवरण पर पिता का नाम
गाँव का पता
और पिता को चिन्हित करने के लिए अंकित कोई विषम संख्या
लम्बे अरसे से माँ की पोटली में बंधी
कुछ मुड़ा-तुड़ा-सा पास-बुक
इनदिनों मेरे बेटे के हाथ लग गया है
नगण्य राशि लिए ये खाता
जिनमें उपार्जन की असमर्थता साफ़ झलक रही
जमा से ज्यादा टुकड़ो में निकासी हुई
बेटे का कौतुहल
अंकित नीले और लाल रंगों में है
मेरी नज़र बची राशि पर टिकी है
और अंतिम तारीख पर भी
उनकी बेचैनी इन्ही दिनों बढ़ गई थी शायद
एक द्वंद्व – निकासी और खाते के खात्मे के बीच का था
जो अनिर्णीत रहा होगा मंहगाई के कारण
कोरे पन्नों पर
बेटे ने आंक दिए हैं कुछ बेचैन मानवीय आकृति
रंगों की ढेर से चुना है उसने
सिर्फ और सिर्फ नीला रंग
आसमान की असीमित गहराई से
उभर आती है पिता की कोई तस्वीर
पेन्सिल की तीक्ष्ण रेखाओं का सहारा लिए
हमारी इच्छाओं से बढ़कर
उनका भविष्य नहीं रहा होगा
निकासी किसी पर्व का उल्लास रहा होगा
निकासी बहन की कोई मंहगी सौगात रही होगी
निकासी माँ की दवाई रही होगी
निकासी भैया के कॉलेज की फ़ीस रही होगी
निकासी मेले से ली हुई मेरे जिद्द का कोई खिलौना रहा होगा
निकासी पिता की मज़बूरी रही होगी
निकासी हमारी ख़ुशी रही होगी
पास-बुक का लेन-देन
मेरे पिता का जीवन रहा होगा
जहाँ दर्ज था हमसे जुडी उनका अंकित संघर्ष
 

===============

4. उल्लास

उजड़े मेले में
बचा रहता है गरीब बच्चों का उत्सव
जैसे तुम सहेज कर रखते हो
डिब्बी की बची आखिरी सिगरेट
मीलों दूर पैदल चलने वाली गाँव की औरतें
मांग लेती है सांस किसी दरख़्त से
दुनिया से हारकर घर पंहुचा आदमी
मांगता हो ठंढा पानी
ससुराल के लिए विदा होती प्रेयसी
चाहती है रखूं मैं अपना ख्याल
भूकंप के मलबे पर लावारिश बच्चा
पुचकारता है पालतू कुत्ता
भूख से बिलबिलाया बेघर आदमी
पीता है दमभर पानी
जीवन की टूटती सांस तक
मैं चाहता हूँ लोग मुझे बुलाये मेरे ही नाम से
बचपन का कुछ खेल बचा रह जाता है
बढती हुई उम्र और सिकुड़ती हुई आँखों में
उत्सव रात का अलसाया भोर
बिखेर देता है सड़कों पर हमारा झूठा दंभ
गिले ओस में बारूद की चुप्पी
फटेहाल बच्चों की हंसी दबाये रहती है
जितने रंग-बिरंगे अवशेष हैं सड़क पर
उनके हैं जो दूर से देखते रहे रात का उल्लास

 

=========

5.कड़क चाय

कितनी आसानी से पूछ लेती हो
“कॉफ़ी या चाय”
और मैं अनमने ढंग से बोल देता हूँ
चाय – कड़क
तुम सोचती हो हर बार
मैं कॉफ़ी क्यों नहीं बोलता
लेकिन जब भी तुम कॉफ़ी मग बढ़ा देती हो
मैं थामकर, मुस्कुरा देता हूँ
और चुस्कियों में सुनाता हूँ
पापा से जुडी कोई कहानी
बिलकुल मेरे पास बैठकर
तुम तन्मयता से सुनती हो
हर बार कहानी पूरी हो जाती है
और कॉफ़ी ठंढी
तुम दूसरा मग बनाना चाहती हो
सिर्फ मेरे लिए – गरमा-गरम
मगर मैं किसी गहरी तन्द्रा में देखता हूँ
पापा बरामदे पर रेडिओ से आ रही कोई पुरानी गीत सुन रहे हैं
लैंप की पीली रौशनी में
मैं पलट रहा हूँ कोई किताब
माँ आकर बता जाती है –कॉफ़ी बनने की बात
मैं होठो की मुस्कान दबाकर झांकता हूँ
पापा का चेहरा
जहाँ सुकून ठहरा है
माँ उबाल कर कॉफ़ी बना रही है
मैं जानबूझकर खड़ा हूँ माँ के पास
एक चम्मच कॉफ़ी बढ़ा देती है माँ
मेरी घूँट तक टकटकी लगाये देखती है
फिर पूछती है आँखों के इशारे से कॉफ़ी का स्वाद
मैं भी आँखों से बहुत खूब कहता हूँ
पापा झांकते हैं रसोई में
और खींच लेते हैं नाक भर, कॉफ़ी की महक
माँ की आँखें भर आती हैं
पापा बहुत खुश हैं आज
उनकी आँखें चमक रही है
मैं जानता था
माँ की आँखे पापा की ख़ुशी में भर आती थी
और हमारे घर कॉफ़ी बहुत कम बन पाती थी
इसलिए जब भी तुम
आसानी से पूछती हो – “चाय या कॉफ़ी”
मैं अनमने ढंग से बोलता हूँ –
चाय कड़क 

_________________________

——– प्रस्तुति – नित्यानन्द गायेन

——————————————————

prashant kii kavitayen on invc newsपरिचय


प्रशांत विप्लवी

लालन-पालन एवं शिक्षा : बखरी बाज़ार , बेगुसराय , बिहार

पता : 404 , अम्बालिका काम्प्लेक्स , मेन रोड , ए जी कॉलोनी , पटना-800023

 

मोबाइल : 9801086112 – ईमेल : pra5hant@rediffmail.com

 

 

 

13 COMMENTS

  1. मैने इन्हें आज अभी पढा अभिभूत हूँ शब्दों के आइने से उठ रहे विप्लवी भावों से हर कविता एक नये आयाम की ओर ले जाती है पासबुक तो
    विशेष रूप से प्रभावित करती है एक पाठक के रूप में संतृप्त अनुभव कर रहा ।

  2. प्रशांत विप्‍लवी जिन्‍हें लोग प्‍यार से रिंकू दा भी पुकारते हैं ,,,एक गहरे अच्‍छे नेक इंसान हैं …. स्‍वाभावकि हैं इनकी कविताएं पर इनका असर /// इन्‍हें व्‍यापक मंच की जरूरत है जिसे नित्‍यानंद जी ने देने की कोशिश की है, वह धन्‍यवाद के पात्र हैं

  3. प्रशांत दादा की कवितायों में भाव बहुत सहज संप्रेषित होते हैं.. आम इंसान के आम से सुख दुःख.. महसूस शायद हम सब ने किये हैं.. पर इतने सुन्दर धंद से अभिव्यक्त प्रशांत दा ही कर पाते हैं.. शुभकामनायें! नित्यानंद भाई.. आभार..

  4. सभी कविआये बहुत ही उम्दा ,कुछ बिकाऊं से आलोचक और महान से कवी हैं उनको जरूर पढ़नी चाहिए ….बधाई हो

  5. खुदरी …जीभ ….जितनी तारीफ़ की जाए कम हैं ….शानदार …

  6. कितनी यादों के प्याले उंडेल दियें हैं ,शानदार ….कहीं कुछ अजनबी सा था जी इन कविताओं ने अपना बना डाला !

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here